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चेहरा

दर्पण में क्या देखा तुमने ?
वही पुराना सुन्दर मुखड़ा
कुछ बचकाना
कोमल, निश्छ
और पहचाना
वही रूप लावण्य सलोना
जगता - सा वह सुमन अनोखा ?

देखो फिर से देखो दर्पण
वही पुराना रूप अधूरा
ये जीवन का दूजा फेरा
नन्ही - नन्ही ये रेखाएं
गुजरे कल की अमिट छाप हैं
हर बीते पल की गणनाएं
कहती अपनी कथा आप हैं

और चन्द ये गहरी रेखें
प्रस्तर समय युद्व छाप है
अनुभव है आँखों की लौ में
छाया है टूटे सपनों की
सीखी हुई हरेक बात है

हाँ सुन्दरता आज नहीं है
पर इसमें इक नई बात है
देखो फिर तुम देख सकोगे
शेष समय का नव प्रभात है

मंजरी भान्ती
7 दिसंबर 2007

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