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विक्षिप्ता - 2

वह
नदी की तरह बहती हुई
निर्मल स्वच्छ
बलखाती लहराती
नहीं
उसे मेमना कहना अधिक उचित है
हाँ, एक निरीह मेमना
कुलांचे भरता
पर मातृ-प्रेम से वंचित
नहीं नहीं
माँ तो थी उसके पास
पर
थी पुत्र-मोह में अंधी
मेमने को काँटा चुभता
माँ को इसका पता ही न चलता
यही उपेक्षित जीवन जी रही थी वह
कि एक दिन
बकरी का मुखौटा ओढ़े
एक भेड़िया आया
मेमने से झूठा प्रेम दर्शाया
प्यार का भूखा मेमना
देख न पाया
उस मुखौटे के पीछे का सच
सौंप दिया उसे सर्वस्व
आखिर तो वह मेमना ही था न
दुनियादारी,छल,कपट से अनजान
भेड़िए ने भी
उसे बहुत छ्ला
जब इस से मन भर गया
तो निकल पडा दूसरे मेमने की तलाश में
ये बेचारा
सच्चे प्रेम से तो वंचित था ही
अब झूठे से भी वंचित हुआ
लगा कुम्हलाने एक फूल की भाँति
अजीब अजीब हरकतें करने लगा
कभी घंटों रोता
कभी खूब खुश होता
कभी गुमसुम रहने लगा
कभी हिंसक होने लगा
अब जा माँ की आँख खुली
मातृ-प्रेम जागा
पर वह निरीह अभागा
समझ न पाया
सब गड्ड-मड्ड होने लगा
मन मष्तिष्क पर अपना नियंत्रण खोने लगा
यदि समय रहते माँ यह जान जाती
उसकी सुनती और समझाती
तो उस फूल,नदी,मेमने रुपी बच्ची की
आज यह हालत न होती
आज वह भी सामान्य जीवन जीती
विक्षिप्ता के रूप में यूँ
अभिशप्त न होती...

 

सुनीता सनाढ्य पाण्डे

7 दिसम्बर 2014

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