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औरत
औरत, तुम्हें इंसान बनने में
लगेंगे अभी युग- युग।
इसलिए अपने को जरा ढक कर रखो
सिर से तलवों तक
पता है न,
लज्जा औरत का गहना है।
दबी-ढकी तुम कितनी अच्छी लगती हो।
अपने स्तनों की बनावट को छुपाती
शर्मीली-सी।
देखो मैं औरत से पहले
एक इंसान हूं।
ढको न !
तुम भी अपना चेहरा
मुझे शर्म आती है
तुम्हारे दाढ़ी मूंछ देख कर।

मलाला
15 साल की मलाला
तुम जीओ 115 साल।
तुम नहीं मरोगी गोली से
क्योंकि,
तुम्हारी धमनियों में बहता
लहू का हर कतरा गर्म है।
तुम्हारी सपनीली आंखों में लड़कियों के शिक्षित होने के सपने हैं,
तुम्हारी आवाज़ आसमान से बात करती है।
भला, ऐसी फौलाद लड़की को कौन मार सकेगा ? ?
तालिबानियों मारो तुम एक मलाला
एक हजार मलाला पैदा हो जाएंगी
ठीक पत्थरचट्टे की तरह
जिसके हर पत्ते से एक नया पौधा उग आता है।
पता है,बंदूक के कारखाने में जितनी बंदूकें बनती हैं
उनसे कहीं ज्यादा आवाजें हुमकती हैं,
दिलों में
बेताब होती है,
बाहर आने को
हाथ बढ़ाती हैं आगे
छूने को आकाश।

मेरे पास की औरतें
मेरे पास रहने वाली कुछ औरतें
अल सुबह उठकर निपटाती हैं
घर के सारे काम
भाग-भाग कर।
नौ बजते-बजते
आसमानी साडियों में लिपटी दर्जनों औरतें चलती दिखती हैं
कुछ दौड़ी-दौड़ी चाल,
कतारों में।
सूरज का ताप भरता है
उनकी चालों में ऊर्जा।
उनके चेहरे मारते हैं टक्कर,
सूरज को।
माथे पर लगी लाल बिन्दी और सूरज की रौशनी में
उनके चेहरे करते हैं,
दिप-दिप।
छोड़ दिया है अब उन्होंने
शौचालयों की सफाई का काम
अब चुना है उन्होंने, सिलना-बुनना।
जब आती है उनके पास
पाई-पाई कमाई की
तो भर जाता है
आत्म विश्वास से उनका बटुआ लबा लब।
रात होते-होते वो अंगड़ाई लेकर झाड़ देती हैं
अपनी सारी थकान
और फिर अगले दिन
फिर से चल देती हैं
सूरज को टक्कर मारने
मेरे पास की औरतें।

वैश्या
वैश्या,
जुमले बहुत घड़े हैं समाज ने
तुम्हारे लिए
तुम्हारा होना भी चिरकाल से स्वीकारा है
समाज ने
जायज भी ठहराया है
कहते हुए कि
’’यदि वैश्या नहीं होतीं, तो व्याभिचारी कहां जाते ?’’
सबसे निकृष्ट कही जाने वाली वैश्या,
तुम तो शिव के समान हो गई हो
तुमने समाज का विष रख लिया है कंठ में
जो निगल गईं तो नहीं बचोगी
और उगल दिया तो फैल जाएगा सब जगह
चैराहों से घरों तक
तुम तो बन गई हो पत्थर की मूर्ति जैसी
जो अब रोती नहीं है
नही चोटिल होता है,
तुम्हारा शरीर
नही आहत होती हैं,
तुम्हारी भावनाएं
तुम बन गई हो रबड़ की गुडि़या
जिससे कोई भी खेल जाए
और फेंक दे
उस बदनाम बस्ती में
जिसे देखने भर से शर्मसार होती है,
सभ्य समाज की, सभ्य बिरादरी
’हां’ तुम भी कभी रही होंगीं
10 - 12 साल की
बात-बात पर रोने वाली
जिद करने वाली
भावी स्त्री
पर तुम स्त्री नहीं बन सकीं
नही बन सकीं महिला
समाज की जरुरत के लिए तुम बन गईं वैश्या
सुनो, तुम पर कुछ स्त्रियां जार-जार रोती हैं
कौनों में बैठ कर।

-अनुपमा तिवाड़ी

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