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प्रेम-संगिनी
I
नमक की डली
जैसी होती है प्रेम-संगिनी
प्रेम करने वाली
पल में गुस्सा हो
बन जाती है कठोर
फिर पिघल भी जाती है दुसरे ही पल
जीवन के हर साग में
डलकर पिघलती-घुलती रहती है
बेस्वाद जीवन को
स्वादिष्ट बनाने के लिए...

II

प्रेम में
दर्द झेलती हैं
परन्तु दवा प्रेम की ही पीती हैं
वो जीती जाती है
चेहरे पर अभिमान लिए
साबित करने
जुनूनी प्रेम की महत्ता
जो होता है उसके लिए
आरती के सजे थाल सा सुंदर
कुरान की आयतों सा पाक...

III

आकार हो
या निराकार
सजीव हो
या निर्जीव हो
जीव हो
या जन्तु
सब जगह हर सुरत में
हर मुरत में
दिखती है उसे छवि
अपने मन में बसे पुरूष की...

IV

सामाजिक बंधन
जो बनकर रूकावट
रखना चाहते है बांधकर उसे
उन सब बंधनों को
हवा की तरह भर
अपने अंतस के गुब्बारे में
बांध लेती है इच्छाओं के धागे से
फिर उड़ती जाती हैं स्वछंद
ऊंचें आसमानों में
प्रेम पाने की उम्मीद संजोए...

V

संगिनी धर्म निभाते हुए
चलती रहती हैं नंगे पाव
अंगारे बिछे पथ पर
पर वो आधुनिक सीता है
जले तलवों के साथ चलने वाली
जो कर देती हैं साफ इंकार
लांछनों से डरकर
शुचिता साबित करने खातिर
चुपचाप हाथ जोड़कर
धरा में समा जाने से...

VI


लांछनों की
दुश्चरित्र कहलाई जाने की
संगी द्वारा परित्याग की
सब प्रेम-पीड़ाएं
दिल में समाए लिखकर
उदासी भरी कविताएं
करती रहती है मनुहार
तो कभी छलका देती है आंखें
याद कर बीते दिनों के
खुशनुमा लम्हें ...

VII

लाख न चाहने के बावजूद
विभाजित होते देख
दो टुकड़ों में
अपने पुरूष के प्रेम को
तबाह कर देना चाहती हैं
खोलकर तीसरी आँख
क्रोधित शिव की तरह
तो कभी बहने लगती है स्वयं
अश्रुओं की जलधारा बन
शिवजटा में समाई गंगा की तरह...

VIII

बार बार मनुहार कर
अपने संगी से प्रेम में
चाहती है वो सिर्फ
स्वीकृति
उसे 'संगिनी' मान लेने की
चूंकि होता हैं अन्तर्निहित
'मान' पुरूष के रूहानी प्रेम का;
'संग' पंचभूती देह का
सिर्फ एक बार कह देने में
'संगिनी' शब्द...

डॉ शालिनी यादव

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