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।। कविता में छिपकली, बाघ, चिडि़या, कौवे, गिद्ध और चींटियां ।।

छिपकली होने का अर्थ

छिपकलियों के बीच रहते
तो जान सकते
उनका चलन और तरीका
धीरे धीरे खुलते हैं उनके रहस्‍य
कि भींत पर अंधेरे में भी क्‍यों चिपकी रहती है छिपकलियां....।

दीवारों से उनका लगाव
उनके भय से आता है कि मन से
छतों पर उलटा चिपके हुए
दिखती रहती हैं गहरी खाइयां
तल पर मुंह फाड़े बैठे दैत्‍य....।
ज़मीन पर नहीं दौड़ सकती छिपकलियां
रौंदे जाने का भय
तोड़ देता है गति के सारे नियम....।

चुप हैं दीवार पर चिपकी छिपकलियां
तुम उनकी उदासी को
खुशी की अनुपस्थिति की तरह मत आंको
डर में जीते हुए
खुशी में खुश हो जाने से भी भय लगता है
किसी ने आंख भर देखा तो
आंख में भर ले जाएगा सारी खुशी.....।

छिप कर जीने की कला जानती
खुशियों को छिपाती हैं छिपकलियां...।

तुम हँस सकते हो उनकी जड़मति पर
तुम रहना जानते हो छत के नीचे
और सपाट रखते हो रंगीन दीवारें
रपटन छिपकलियों का दुर्भाग्‍य है....।

रहने दो
तुम नहीं जान पाओगे एक छिपकली होने का अर्थ....


मुझसे पहले चींटियां

पहली बार जब मैंने अपने को पाया
सबसे छोटा, सबसे पीछे
बड़ा होने को उचकता रहा
ठीक उस क्षण पहली बार ठीक से देखा चींटियों को
बड़े ‍दिल वाली छोटी चींटियां ..!

हर दूसरे मोड़ पर ठिठका
अराजक सड़कें कभी इधर ले जाती रहीं
कभी उधर
सच यह भी लगता था, वह भी
चींटियों ने बांधी कतार
कहा, बस चले आओ रास्‍ते रास्‍ते इसी तरह ...!

कितना कुछ था जो पा सकता था, छूट गया
इस पछतावे को ‍जितना फरोला
उतना बढ़ता गया,
जितनी राख थी ऊपर, नीचे उतनी आग
कितना कुछ अब भी था नज़र में
पर नज़र आई चींटी एक दाने के साथ...!

वीरानों में जब भी खुद को ढूंढता पहुंचा
पाया कि मुझसे पहले है कोई वहां
वीराना नहीं था वहां
बुद्ध भी नहीं थे वहां,
नहीं थी कोई दैवी शक्ति
चींटियां थीं, जरूर इनको देखा होगा बुद्ध ने भी...!

ईंट, सीमेंट और कंक्रीट के जंगल में
सब कुछ निष्‍ठुर, सब कुछ प्राणहीन
एक अधूरी बस्‍ती में सब अधूरा सा
पहचान के चिह्न खोजते हुए कुरेदा जहां
वहीं अपनी मौज में ‍दिखीं चींटियां
पूरा हुआ घर, कृतज्ञ हूं
चींटियां सदा ही करुण हैं मुझ पर...!

अगर मैं हो सका कभी
इतना ही लघुतर
अगर पा सका कभी सीधा-सीधा रास्‍ता
कभी रख पाया अगर वीराने में पहला कदम
कुछ पूरा कर सका कहीं कभी किसी घर को
इस करुणा का ऋण चुका सकूंगा तब भी, संदेह है... !

ओ करुणामय !
ऐसी ही उदार रहना मुझ पर
तुमसे बड़ा कोई कहां पाऊंगा भला !!


चींटियों के लिए शोकसभा

उम्र की धूप ढलने के बाद
जाती हुई सांझ के धुंधलके तक
आरामकुर्सी पर बैठकर किताब पढ़ना...
गर्दन पर हाथ लपेटे हुए
सोचते रहना वह सब
जो नहीं था कभी इस धरती पर...ना होगा कभी..।

इच्‍छाएं रेंगती हैं...तन पर, मन पर
न्‍यूटन नहीं तय कर पाए
हठ पर उतरी चींटियों की गति
पर कहावतों में पढ़ा था...
चलती हुई चींटी सौ योजन चली जाती है...।

चींटियों का कद उतना ही था, जितना होता है...
दाना जब भी आया, मुंह से बड़ा था...।

चली ही गई होंगी अब तक सौ योजन..सारी चींटियां
ढो ले जाना था लुभाती अपेक्षाओं को....याद आया...
रेंगती चीटियों की कतार थी...जब किताब उठाई थी
झुण्‍ड बनते गए जब पलटे भूमिका से आगे के पन्‍ने...।

हल्‍की नम घास में छिपी चींटियां
पैरों के इर्द गिर्द करती रहीं परिक्रमा ....।
रेंगती हुई चींटियों में दिखती रही तय हुई यात्रा
घसीट कर लाई गई मिठास के ढेर के नीचे दबी ढेर सारी चींटियां...।

किताब के आखिरी पन्‍ने तक पूरी नहीं हुई कथा
अधूरे दिन का अंत आधा रहा
मिठास अब भी अपनी जगह है पर
यह शाम उम्र भर लंबी एक शोकसभा है
चींटियों की इस सामूहिक आत्‍महत्‍या पर....
पता नहीं आपकी जांच के नतीजे क्‍या कहते हैं.....।


पंक्ति तोड़कर चलती चींटी

वक्‍त चींटी की चाल चलता है
तुमने कहा था
मैंने हां कहा था पर
बहुत बाद में देखा उन्‍हें पंक्ति में चलते हुए

मैंने माना वक्‍त चींटी है....
पंक्ति तोड़कर जाती चींटी ढूंढती रही आंख हमेशा

छोटी छोटी चींटियां कैसे खींच ले जाती हैं
बड़े बड़े पहाड़, तुम्‍हें हैरानी हुई...
तुम हैरान थी ये जानकर कि
चलती हुई चींटी सौ योजन चली जाती है....

क्‍या आज भी इतनी ही हैरान हो तुम
जब चींटियां जाने कितने योजन चल चुकीं होंगी
जाने कितने पहाड़ खींच ले गई होंगी

मैं हैरान हूं यह देखकर कि
चींटियां आज भी पंक्ति में चलती हैं
पंक्ति तोड़कर जाती चींटी की तलाश आज भी है मुझे....

 

भीतर उड़ती चिडि़या

एक छोटी सी चिडि़या थी भीतर
धूसर पंखों वाली
पंखों के बीच एक छोटी सी हरी लकीर
हरी लकीर पर सुनहरी दाने छिटके हुए
भीतर भीतर चुगती
भीतर भीतर उड़ती
जितनी उड़ान हो उतना सा रह जाता है आसमान
उड़ान खुलने दो जरा
मुक्त करो आसमान को, तुमने कहा, मैंने भी कहा.... !

मैं जानता था एक चिडि़या है तुम्हारे भीतर
आंख में सपना भरा आसमान लिये खोलती थी पंख
पंख खोलती और तौलती सपनों को
सपने देखना आ जाये तो खुलने लगते हैं पंख और
पंख खोलना आ जाये तो
सीखी जा सकती है उड़ान, मानतेे थे तुम, मैंने भी माना....।

उड़ान पर विश्वास था तुम्हारा
आसमान पर विश्वास था तुम्हारा
चिडि़या पर विश्वास था कि नहीं, पता नहीं
साथ-साथ उड़ सकती है दो चिडि़यां
नीले आसमान के बीचोंबीच
हरी-भरी थी ये खूबसूरत कल्पना
तुम्‍हारी कल्‍‍पनाओं पर विश्वास था मुझे ...!

आसमान एक नीला जंगल है।
और जंगल के अपने कानून
ना तुमने बताया, ना मुझे पता था ...!

जिस बाज के पंजों पर
अब भी चिपके हैं मेरी चिडि़या के धूसर पंख
लाल होकर काली पड़ गई है
हरे रंग की सुनहरी दानों वाली चमकती लकीर-
उसे लेकर कभी कुछ नहीं कहा सुना हमने
मुझे पता नहीं था, तुमने बताया नहीं।

हम अपने-अपने विश्वास के साथ यात्रा में थे
इसी बीच मुक्त हुई दोनों के भीतर चिडिया
बाज और चिडि़या सहयात्री नहीं होते
पर इसमें तुम भी क्या करो ...!

चलो
तुम  फिर से आलाप लेकर गाओ वही प्रेमगीत
मैं तब तक लौटता हूं
चिडि़या के छितरे हुये पंख बुहारकर ...!


क्‍या आप जानते हैं उस चिड़िया को?

आपने उस चिड़िया को देखा क्‍या?
जिसे ढूंढ रहा हूं उम्र के बीते कल से आज तक
आपके भी घर तो आती होगी चहचहाने
चिड़िया बंटी तो नहीं है घरों में
उसका घर यह भी है वह भी----।

उसके पंखों की तो याद होगी आपको
बैठती है तो चितकबरे और उड़ती है तो सुनहरे लगते हैं
मैं उड़ान से ही जानता हूं उसे
हवा अपनी संभावनाएं सेती है उसके पंखों के नीचे
कहीं नहीं जाने के लिए सब कहीं उड़ती है वह चिड़िया---।

चिड़िया का उड़ना आसमान के खुले होने का आश्‍वासन है
आंगन में उतरना निर्भय धरती की खुली घोषणा
मैं जितना उसके आश्‍वासन पर भरोसा करता हूं
उतना ही मानता हूं उसकी घोषणाओं को
चिड़िया के घोष ना जयघोष हैं ना पराजय के गीत---।

दानों के बीच फुदकती चिड़िया देखकर ही
कलाकार ने गढ़ी होगी देवी अन्‍नपूर्णा की सुुंदर प्रतिमा
प्रतिमा कि जिसकी आंख में विश्‍वास है जीवन के लिए
चिड़िया का होना जीवन में विश्‍वास का होना है---।

मैं पहचानता हूं उसे उसकी चीं ची की वाज़ से
नहीं सुन पा रहा हूं कुछ दिनों से जिसे
इतने शौर में कुछ भी नहीं सुनता शौर के सिवा
मुझे नहीं पता आप भीड़ में किसकी आवाज़ सुन रहे हैं
मुझे इतना पता है मुझे बस उस चिड़िया की आवाज़ की तलाश है
हो सके तो आप चुप रहें कुछ देर--- शायद मुझे भी सुनाई दे, आपको भी---।


भीतर उतरा आंगन

उतरना था समान को भीतर
अपनी पूरी नीलाई के साथ
साथ लानी थीं जरा सी हवाएं
कुछ हल्‍के हल्‍के बादल और पीली पीली धूप
ऊंचा-ऊंचा रहा, दूर-दूर रहा----।
(आसमान को उलाहना दिया)

पेड़ को उतरना था भीतर, हरियाये दिनों में
भीगी पत्तियों पर से उतरनी थी कुछ बूंदें
कोई नया पत्‍ता फूटता कच्‍ची टहनी की कोर से
भीतर उतरती छांव, छांव में उतरती ठंडक
तना-तना रहा, दूर-दूर रहा---।
(टेढ़ी धारदार नजर से देखा पेड़ को)

उतरना था तारों को बतियाते हुए,
डांटते झगड़ते और समझाते एक दूसरे को
कि रोशनी जितनी हो बात उतनी ही करो
टिमटिमा सकना भी कम नहीं, पैर चादर में रखो
एक टिमटिमाहट उतरती भीतर जग-बुझ करती
ऐंठे-ऐंठे रहे---चिढ़ाते से--दूर दूर---।
(भौहों के बीच गहरी रेखा उभरी जब देखा तारों को)

चिड़िया को उतरना था फुदकते हुए
भूरे, मटमैले पंख होते हैं सबसे सुन्‍दर जब उड़ान भरते हैं
सतरंगी पंखों वाला मोर नहीं जानता उड़ान का पूरा अर्थ
चहचहाती, चुगती कुछ, कुछ ले भी जाती घोंसले मेंं
इंतजार करते चूजों के लिए
पेड़ पर एक परींडा टांगता मीठे पानी का, अगर उतरती चिड़िया
रुठी-रुठी सी रही---दूर दूर---।


उम्‍मीद से झांका चिड़िया की आंख में

आंख भर झांका कि आंख खुल गई
भीतर उतरा आंगन
उतरा कि खुले तक फैल गया नीला चन्‍दोवा आंगन भर
हरियाया पेड़ हवा में हाथ हिलाता--सरसराता सा
सांझ होते ही उतर आए तारे झुण्‍ड के झुण्‍ड
जरा सा खुला आंगन रखना घर में
चिड़िया को इंतजार है सुबह का---
वह आंगन भर फुदकेगी, उसका वादा है----।


कमरे में चिड़िया

कितनी छोटी हो सकती है उड़ान
कमरे के फर्श से छत्‍त तक
कि जिस पर लटका पंखा सुनहरी गोले में घूमता है, चलता है
बिना थके चलने पर भी नहीं होती यात्रा कभी, यह चिड़िया को पता है---।

एक दीवार पर है मधुबाला का श्‍वेत श्‍याम पोस्‍टर
सुंदरता इतनी भी होती है, ऐसी भी
चिड़िया निहारती है दर्पण, पर नहीं है वहां सुंदर तस्‍वीर
एक नन्‍हीं सी जान है जो नहीं जानती
कि जब बंद हों खि‍ड़कियां और सब दरवाजे तो
अपने को देखने के सिवा रास्‍ता क्‍या है----।

इस घर का पहला व्‍यक्‍ित आकर देखता है
चिड़िया में जीने की ललक और पंखों की फड़फड़ाहट
कहता है कविता में, हर शब्‍द में जाग उठती है चहचहाहट
दूसरा अपने साथ लाता है रंग
चिड़िया के पंख रंगों से भर उठते हैं कैनवास पर
पोस्‍टर में दिखती है सुनहरी परछाई
बीते कल के सपनों की----।

कितनी ही बार कमरे में आया घर का मालिक
नहीं घटी है कोई बड़ी घटना कहीं
सब अपनी जगह पर है
दीवारें, पोस्‍टर, कालीन, पंखा, फानूस
कोनों में सजे गुलदान और सूखे फूलों के गुलदस्‍ते
कहीं नहीं--कभी नहीं दिखी उसे वह चिड़िया
जो बार बार फुदक कर उसके पैरों के पास ई---ध्‍यान खीचने---।

दीवार, छत्‍त और फर्श का कालीन
खूबसूरत चित्र और भावुक कविता
इन सबके बीच बैठी है एक उदास चिड़िया
आसमान को कैसे निकाले कमरे से बाहर----।

(कौन बाकी है अब इस घर में---नाउम्‍मीदी में पटकती है अपनी चोंच दर्पण पर--- आहट पर चौंकती है घर की स्‍त्री----चिड़िया को सिर्फ उसने देखा है--बंद कमरे में---।
चिड़िया को यकीन है जब भी कोई खिड़की खुलेगी--- स्‍त्री ही खोलेगी----)


नीले स्‍वेटर पर चिडि़या

कितने सारे फंदे, कितने सारे घर
इनसे क्‍या बुनेगी स्‍त्री
क्‍या क्‍या बुनेगी स्‍त्री
कि बुनते बुनते बुना जाएगा स्‍वेटर भर एक...।

घर में फंदे हैं, फंदों में घर
एक फंदे से निकलती सलाई
दूसरे घर को ले आती है अपने साथ
और स्‍त्री बुनती है वह सब,
जो उधेड़ दिया गया है कितनी ही बार....।

नहीं भूली अभी भी
नीले स्‍वेटर के बीचों बीच बुनना चिडि़या
सुनहरी ऊन से
उड़ान न बुनी जा सके भले, बुनी जा सकती है
एक चिडि़या...जो भूली ना हो पंख फड़फड़ाना...।

स्‍त्री घरों के बीच में है
स्‍त्री फंदों के बीच में है
उसकी उंगुलियों को आंख खोलकर देखने की जरुरत नहीं होती
ना फंदे छूटते हैं, ना घर
फंदे घर बन जाते हैं....घर फंदे
बुनना चलता रहता है हर हाल में
सलाइयां रुक जाने के बाद भी...।

मायामृग


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