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संवेदनाओं के धरातल पर समृद्ध सृष्टि की सबसे समर्थ शक्ति प्रेम की सुवास से तृप्त ह्रदय गन्धर्व स्तुति सा अनूठा कंठ प्रकृति की प्रतिकृति नाद ब्रह्म पर तालबद्ध चंचल चपल उत्सवप्रिय आनंदमयी लय विराट की दृष्टि से उपकृत अकूत सम्भावनाओं से युक्त है हर स्त्री पर सदियों से रूढ़ियों के नश्तर चुभते हुए आडम्बर ,अप्रासंगिक रीतियाँ-नीतियां देहरी की परिधि के चक्र में मेत्ता को नकार कर सत्ता का अंतहीन आक्षेप रचते समताविहीन संवेदनहीन समाज में स्त्री बुद्ध हो जाना चाहती है किसी भी जातक कथा में बुद्ध नही बने “स्त्री” पर स्त्री बुद्ध होना चाहती है
अपने पैर के अंगूठे से जमीन कुरेद रही स्त्री बुद्ध के ठीक सामने श्रावस्ती के विशाल प्रांगण में नीचे मुंह किये बैठी एक मौन स्त्री अपने पैर के अंगूठे से जमीन कुरेद रही
ये स्त्री अभी अभी सह के आई है तीक्ष्ण निगाहों के चाबुक क्यों -कहाँ -कब तक चली सवारी जैसे जुमलों के जवाब देकर
ये स्त्री कल जब अबोध कन्या थी तब चपल हिरनी सी भय और सीमाओं से परे थी उर्जा और चेतना का पुंज सभी को तरंगित करती फूलों में सुवास, बादल में पानी पंछियों में गीत और जीवन में संगीत इसी की पुलक से थी सभी में जीवन की ललक
बुद्ध के सामने बैठी ये स्त्री तटस्थ होकर खोद देगी एक दिन देखना तुम्हारी रूढ़ियों की जमीन |
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