मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

ज़िन्दगी का तर्जुमा

कभी-कभार होता है
कि ज़िंदगी का तर्जुमा
उदासी में कर दूं
उदासी
जो मेरे लिए
खुशी के बेशुमार
थकते घोड़ों की टापों से
उड़ती हुई धूल है
गोधूलि में उतरती हुई जो
बैठती जाती है
जिसकी रौ में
दिशाएं डूबने लगती हैं
और सांझ का निकलता पहला तारा
जलना छोड़ टिमटिमाने लगता है
और चांद का कतरा
जिसे थोड़ी सफेदी लिए होना चाहिए
थोड़ा धूमैला होता जाता है


हां, जिंदगी
तुम्हारी ही बाबत सोच रहा हूं मैं
तुम जो चारों सिम्त फैली हुई हो
तुम
जिसके लिए
कोई दरो-दीवार नहीं है
तुम
मेरे इस छोटे से कमरे में भी
वैसी ही गतिशील हो
जैसे बाहर अंतरिक्ष में
ज़िंदगी
तुम्हारे इस कमरे में ही
किस तरहा पिन्हा हैं
तुम्हारी छोटी-छोटी जिदें
वहां
सबसे ऊपर उस कोने में
किस तरह धूल व मकिड़यों के बीच
टिके हुए हैं विवेकानंद
उनके हाथ सामने बंधे हैं
पर उनकी आंखें कैसी अभयदान देती-सी
चमक रही हैं


रात्री का चौथा पहर है
और कटे तरबूज सा चांद अभी
सुबह के तारे के पास
पहुंचने की जिद में
रंगहीन-निस्तेज हो रहा होगा
उस कमरे में दीवान, पर मेरी बीवी
दो बेटों के साथ सो रही है
और सामने दीवार पर
एक जोड़ी आंखें
लगातार मुस्करा रही हैं
और मुझे लगता है
कि इन दो टिमटिमाती आंखों की रोशनी में
तीनों जने
चैन की नींद सो रहे हैं
संभव है
पूरे दिन
मेरी बीवी
उस चेहरे और उसकी
आंखों की चमक से
लड़ती हो
और शाम थककर सोती हो
तो गहरी आती हो नींद
आखिर यह नींद ही तो उसे एक दिन
उस कमरे से मुक्त कराएगी

मेरे लिए तो
वो चेहरा मेरा ही चेहरा है
उसकी आंखें मेरी ही आंखें हैं
जिनका सो रहे मेरे बच्चों के लिए
कोई मानी नहीं
क्योंकि उनकी खुद की एक-एक जोड़ी
चमकती आंखें हैं
क्या ज़िंदगी
एक ब्लैक स्पेश है
जिसमें अंधेरे का क्लोरोफिल
कांपता रहता है
जहां सभी ग्रह-उपग्रह तारे
टिमटिमाते रहते हैं
अपनी लगातार छीजती रौशनी के साथ
जिसे सोखता अंधेरा
पुष्ट होता रहता है
और एक दिन फूटता है
नई-नई ज्वालामुखियों ग्रहों-उपग्रहों
तारों के साथ


गर पांवों से पूछूं मैं
तो बताए वह
कि ज़िंदगी उसके नीचे की जमीन है
जिसे वे कुरेदते रहना चाहते हैं
और फिर
उड़ा देना चाहते हैं ठोकरों में
सामने फैले परिदृश्य पर
और सर तो बस
झुकते चले जाना चाहेंगे
बेइंतहा मुहब्बत में
ज़िंदगी
तुम्हारी धूप
इतनी तंज क्यों हो जाती है कभी-कभी
और तुम्हारे ये चांद-तारे भी
इतने उदास हो जाते हैं
तब मुझे नहीं सूझता कुछ
तो चला जाता हूं नींद की आगोश में
ओह
नींद
थक कर
गुड़-मुड़ा कर सो जाना
एक किनारे कोने में
फिर सपनों में देखना
धूप को चांदनी में
और चांदनी को
पहाड़ में बदलते

मुफलिसी के इन दिनों में
जबकि मेरे पैरहन
पैबन्दों के मुहताज हो रहे हैं
ज़िंदगी
तुम उतनी ही प्यारी हो
जितनी कभी भी थी मेरे लिए
नहीं, कोई सवाल नहीं है ज़िंदगी
किसी को जवाब देना भी नहीं है
एक दौर है लंबा
और मुझे चले चलना है
और तू तो बस होगी ही साथ
उधर देखो ज़िंदगी
कोई तुमसे ऐसे बेजार क्यों है ?
तुम्हारी चांदनी इतनी चित्तचोर क्यों है ?
क्यों तम्हारी रातों में कुत्ते भूंकते हैं इतने


ज़िंदगी
तुम्हारी एक सिम्त
खाली क्यों है ?
या
वह
किसी के होने से खाली है
कि ख्याली है
कभी तो लगता है
कि हर एक सै
कहीं से टूटकर ही अस्तित्व में आती है
जैसे-सूर्य से पृथ्वी और उससे चांद
अपने काल का
अतिक्रमण किए बगैर
हम हो ही कैसे सकते हैं ज़िंदगी
सब
जैसे एक चुप्पी से निकलते हैं बाहर
अपना-अपना राग लिए हुए
सारे छन्द
बहराते हैं किसी सन्नाटे से
और ज़िंदगी राम तो
राग तो
हमारे ही संचित स्पंदनों का
मधुकोष है जैसे
जिन्हें हम अपने
सुन्दर-उदास दिनों में
चाटते हैं
बजाते हैं।

-कुमार मुकुल
 

 Top

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com