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।। उस पार ।।

 
हाँ सड़क थी
नहीं था पुल
सड़क के उस पार खड़े थे तुम , इंतज़ार में
इस पार चल रही थी मैं अपनी धुन में बेख़बर

तुमनें पुकारा मुझे बेआवाज़
मैंने सुना उसे महसूसकर
तुम प्रकृतिस्थ पुलिन पर खड़े दिखे
और मैं मानो समुद्री विषम लहर

पर न तो वहाँ समुद्र था
न नदी , न ही पुल
थी महानगर की अजगरी सड़क
जिस पर दौड़ रही थी कई जिंदगियां

सम तक आने के लिए
मुझे पार करनी होगी वह सड़क ।


।। जीवन का रागरंग ।।

भोर की आहट के कुछ क्षण पूर्व से ही
सुनाई देने लगता है पक्षियों का कलरव
जैसे दम साध के बैठे हों वे रात भर

जैसे मायके में मिली हो दिनों बाद पक्की सहेलियाँ
जैसे दो विलग शहरों में बसी बहनों के फोन की घण्टीयाँ
वे बतियाती हैं रोशनी के मिलते ही
वे गपियाती हैं बालकनी में फूल के खिलते ही

बीच -बीच में सुनाई देता है उन्हें
गृहस्थी का गुंजन
याद आता है उन्हें दाने ढूढ़ने का उपक्रम

और बुद्ध - सी मुस्कान लिए वे लौटती हैं सदन की ओर
गुनते हुए ,
मन के तार को न कसना इतना अधिक
की वर्तमान का दम घुट जाए
न ढील देनी है इतनी कि अतीत में ही गुम हो जाएं !


।। सिर्फ तुम ....ओ मेरे चाँद ।।

ह होगा चाँद प्लूटो का
जो बहुत निकट हो अपनी प्रेयसी प्लूटो की धरा के
और ढाल बनकर भी खड़ा हो सशक्त प्रेमी बन
प्लूटो और आग के गोले के मध्य
पर अधिक निकटता से भी नज़र धुंधला जाती है ।

या वह होगा ब्रहस्पति में उग आए कई चाँद के मध्य
एक और गुमनुमा चाँद बनके ,
पर अधिकता में दर्शाया प्यार भी महत्व खो देता है ।

या वह हो सकता है ,
मंगल के चाँद जैसा
जो हो भय का देवता भी और अत्यधिक आकर्षण में
अपनी मंगल धरा के समीप भयहीन हो
खिंचा चला जा रहा हो मिलकर , टूटकर ,विलुप्त होने
पर प्रेम कहानी का अंत मुझे पसंद नही ।

मुझे तो तुम ,
ओ ! मेरे चाँद तुम ही पसंद हो
जो एकाकी मेरे आकाश में विचरण करता हो
मेरे समुद्र से मन को
स्थिर कभी विचलित करता हो
जिसकी कलात्मक सोलह कलाएं
सोलहवे साल से मेरे साथ है ..

विशाख़ा मुलमुले

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