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गंगा
संजय तिवारी
1
प्रचंड प्रवाह
अप्रतिम सौंदर्य
अनुष्टप छंद
जैसे कि मकरंद
जैसे कि पलाश
जैसे कि मद्गन्ध
जैसे कि मधुपाश
जैसे कि अनुबंध
जैसे कि अनंत आकाश
शब्देतर अनुभूति
न व्यास न भवभूति
विरंचि की अद्वितीय माया
शिव की वास्तविक काया
अद्भुत
अद्वितीय
अविकल
अविराम
अविरल
कलकल
लहराती
बलखाती
बेगवती
तेजस्विनी
तपस्विनी
शिव की अलको में लिपटी
शिव की हुई
अलकनन्दिनी
ब्रह्मा के कमंडलु की बंदिनी
सगरपुत्रो की वंदिनी
ब्रह्मांड की उपस्थिति से पूर्व भी
सृष्टि से भी
सनातन से भी
और समष्टि से
शिखर से सागर तक
क्या क्या ढोती
क्या क्या धोती
क्या क्या पाती
क्या क्या खोती
भूत भविष्य और वर्तमान
धारा में ही मूर्तिमान
जगत का समस्त सौंदर्य
और शिव तत्व का औदार्य
नील कंठ से लिपट रहने की जिद
बालहठ की मानिंद
एकटक
अपलक
आर्द्र नयनो की अभिलाषा
विश्वास और आशा
विकल अविकल भाषा
पराजित कर्मनाशा
बनती है महादेव का हार
तारती संसार
पार्वती पर भारी
फिर भी कुवारी
स्वयं को बना लिया शिवांगी
गागर बना दिया
प्रेम में बंधी
हिमको सागर बना दिया।
……....
2
पिता
जब सृष्टि रच रहे थे
व्याधियों से बच रहे थे
मुझे शिखर पर बिठाया
जगत को दिखाया
सनातन प्रत्यूषा
शिव की मंजूषा
मुक्ति की एकमात्र साधन
युक्तिपूर्ण आराधन
जिस जटा में सामर्थ्य थी
रोकने का प्रवाह
और वेग प्रचण्ड
नही कोई घमण्ड
मेरी अकुलाहट
छटपटाहट
और आहट
सभी कुछ पहचान गया
मैं केवल उसी की थी
हूँ
रहूंगी
सब जान गया
शिखर से सागर की मेरी उतरन
शिव जानते हैं
मेरी करुणा
पीड़ा
तपस्या
क्रीड़ा
पहचानते हैं
पार्वती की जलन
बर्फ की यह गलन
मेरी अविरलता
मेरी तरलता
मेरी सत्ता, मेरी गति
मेरी मर्यादा, मेरी मति
मुझ मंद अंकिनी का मान
स्वयम शिव के ही समान
नदी हूँ
बहुत प्यासी हूँ
मुक्तिदायिनी हूँ
पर दासी हूँ
इसीलिए तड़पती हूँ
सागर तक आते ही
पूरी शक्ति से उफनती हूँ
शीर्ष से समाज तक
सृष्टि से पूर्व और इस युग मे आज तक
उतरते उतरते बहुत नीचे
मैंने बड़े चित्र खींचे
चाहे जितना नीचे आयी
खुद को केवल वही पाई
शिव की जटा
शिखर कैलाश का
जगत के शीर्षतम आकाश का
यह शिव का सामर्थ्य
याकि
शिव के लिए मेरी महत्ता
पार्वती शक्ति बनी
दोनो में कई बार ठनी
पर
मैं
करती रही शिवशीर्ष पर नृत्य
नखरों से
इतराती
बलखाती
अकुलाती
कुछ शोदित
कुछ बहाती
बहती जाती
सहती जाती
मेरे भीतर की आह
प्रचंड प्रवाह
गहराई अथाह
मेरी अपनी हर चाह
खुद की राह
मेरा इतराना
ऐठना
बलखाना
सब देखा और सहा
कभी नही कुछ कहा
मैं अब सोच रही हूँ
शिव के लिए केवल गंगा
एक नदी बार नही हूँ
युगों से परे हूँ
एक सदी भर नही हूँ
श्रुतियों की श्रुति हूँ
युगों की गति हूँ
मर्यादाओं की मति हूँ
उन्ही की हूँ
उन्ही में समाई हूँ
सृष्टि में इसीलिए आयी हूँ
सगर पुत्रो का तारना
एक बहाना है
मैंने शिद्दत से अब जाना है
शिवि हूँ
तनीषा हूँ
नीलकंठ की
मनीषा हूँ।
…................
3.
तुम्हे पता है
मैं सोती नही हूँ
इसीलिए कभी रोती नही हूँ
आंसू
जीवन नही होते
जो जीवन मे है वे कभी नही रोते
आंसू
संवेदनाओं की शव यात्रा हैं
नयनप्रवाह की सुनिश्चित मात्रा हैं
इन पर न जाना
इनसे कुछ नही पाना
जीने के लिए मेरा प्रवाह देखो
किनारों के मिलने की चाह देखो
पूरी राह पास में
मिलन की आस में
चलते रहते हैं
हर परिस्थिति में ढलते रहते है
कभी इन्हें मिलते भी देखा है?
इनके न मिलने में ही मेरी जीवन रेखा है
कभी यदि ये संयम से हिल गए
संयोगात मिल गए
क्या बचेगा?
मेरा अस्तित्व फिर कौन रचेगा?
मैं जीवन देने आयी
केवल मृत्यु ढो रही हूँ
गंगा होकर भी
तुम्हे लगता है रो रही हूँ
ऐसा नही है
कुछ भी काल जैसा नही है
तुम नही थे , मैं तब भी रही हूँ
ऐसे ही बही हूँ
शिवकेशपाश में गही हूँ
जहाँ थी वहीं हूँ
गौरी से कोई डाह नही है
जटाओ से इतर कोई चाह नही है
शिव का संवाद हूँ
धाराओं में लिए
अनहद नाद हूँ
ब्रह्मा की बेटी
भीष्म की माता
मानव से यही नाता
न मैं पुण्य की साक्षी हूँ न पाप की
न आशीर्वाद की न शाप की
हे मनुष्य, मुझे कितना जान सकोगे
जितना जानोगे ,उतना ही मान सकोगे
भक्ति और मुक्ति का विधान हूँ मैं
गंगा हूँ पुत्र
जीवन का संविधान हूँ मैं
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