थोड़ा सा बरगद
मेरे गाँव के बरगद में
फलते थे
ढे.रो आराम : वर्ष भर
गर्मियों में
चुरा लाते हम
बोरियाँ भर चैन
जो रहते साल–साल भर
बिल्कुल तरो–ताजा
कल उस बरगद की
इक शाख देखी मैंने
तुम्हारे आँगन में
क्या दोगी मुझे तुम
थोड़ा सा बरगद ?
– अखिलेश सिन्हा
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अब वृक्ष कम बचे हैं
हाँ खुला आकाश मिला है
दिखी हैं नयी दिशाएं
और
खुला है नदी का वह तट
जो अब तक छिपा था
पर अब
जब सूरज हमें सताता है
मैं ढूँढता हूं अपनी छत
जो कहीं मिलती नहीं
जब दिशाएं हमें डराती हैं
मैं ढूँढता हूं अपने प्रहरी
पर वे कहीं दिखते नहीं
और जब नदी बाढ़ बन डुबोती है
मैं ढूढता हूं अपनी नौका
पर वह कहीं दिखती नहीं
शायद अब वृक्ष नहीं बचे,
हां अब वृक्ष नहीं बचे हैं।
– अखिलेश सिन्हा
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