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विवश मैं

बड़े रेगिस्तान में
रेत की पगडन्डियां
बनती बिगड़तीं
मिट मिट जाती.
कभी पानी वहां दिखता
पंछी अ‍ोर वृक्ष भी
शायद मरीचिका हो
पर प्यास की बात है
और चले चलता मैं

– अखिलेश सिन्हा
9 नवम्बर 2000

प्रण
तुम्हारे अश्रु दिखते हैं
सालता है हृदय को
उनका निरंतर बहना
चाहता हूं पोंछ दूं उन्हें
पर मेरे नन्हें हाथ पहुंच नहीं पाते
तुम्हारी आंखों तक
पर खड़ा रहूंगा मैं
इसी तरह हाथ बढ़ाए
शायद एक दिन
मेरे हाथ
तुम तक पहुंचें

– अखिलेश सिन्हा

भूल
भूल मुझसे हो गयी
कि कह दिया ठहर मैंने
और बात उसने मान ली।

देखकर उसकी थकन को
और लम्बे रास्ते जो
उसने चले थे
कह दिया ठहर मैंने
और बात उसने मान ली।

सृजन की थकन को
सृजन में थकन सोच
कह दिया ठहर मैंने
और बात उसने मान ली।

नहीं मिटती कभी भी
रुकने से‚
थकन जीवन की।
जाना नहीं पहले कभी
और कह दिया ठहर मैंने‚
भूल मुझसे हो गयी
और बात उसने मान ली।

– अखिलेश सिन्हा
3 दिसम्बर 2000
 

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