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उलझन

एक एक कर
पढ़ ड़ाले पन्ने मैंने
सारे शब्दकोश के

शायद हो कोई अक्षर
कोई शब्द
जो बाँच दे मुझे ।।।

अंत में हंस पड़ता हूं
जब शब्द मुस्करा कर भाग जाते हैं

ऐसा क्या कहना चाहता हूं मैं ?
ऐसा क्या सुनना चाहती हो तुम ?

– अखिलेश सिन्हा
अप्रेल 15‚ 2001

 

वापसी
प्रकृति के पट खोल
निकल आया मैं

स्वपनमयी सुंदर नगरी
मुस्कराहट कल्लोल
आनंदपूर्ण वातावरण
कांतिपूर्ण अनगिनत चेहरे

देखता रहा इनमें देर तक
मैं तुम्हारा अपना चेहरा
हर चेहरे में : तुम थीं थोड़ी थोड़ी
थोड़ा थोड़ा मैं भी
तुम्हारी वही मुस्कान
मेरा वही गुस्सा : हर चेहरे में

सुरीले कंठों से फूटते
एक से मधुर बोल

सुनता रहा देर तक इन बोलों में
मैं तुम्हारी अपनी आवाज
हर बोल में : तुम थीं थोड़ी थोड़ी
थोड़ा थोड़ा मैं भी
तुम्हारी लयभरी ध्वनि
मेरा सुररहित आलाप : हर बोल में

देर तक सुनता रहा देखता रहा
ढ़ूंढता रहा
अंततः लौट आया मैं
जहां एक थीं तुम और
एक था मैं ....

– अखिलेश सिन्हा
अप्रेल 15‚ 2001

 

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