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पदचाप

यह कैसी पदचाप है
पीछे पीछे आती है
छन छन छन छन

मेरे चलते ही साथ हो लेती है
ध्वनिरूप
मेरे रूकने पर स्तब्ध
शहर के अविरत भागदौड़ में भी
आजकल यह लुप्त नहीं होती
न छाप छोड जाती है
न दर्शाती है अपना रूप
पुरूष है या स्त्री
बाल है या युवा

केवल मधुरता है
और पुकार भी
जैसे किसी प्रेमी को झुक झुक
इशारे से बुलाती हो

सोचा इसे आजमा लूं
जान लूं इसका उदगम
पहचान लूं उसे और कहूं
साथ चलो पिछे पिछे नहीं

भीड़भाड से दूर
जंगल की पगडंडी पर चल पडा
अकेले उसे पाने के लिये

मधुर संगीत तो अब सर्वत्र था
वृक्ष की डाल में फूलों की पंखुड़ियों में
झरने में और आकाश में
पक्षियों की चहचहाट में
यह सर्वरूप कैसे हो गयी पदचाप

कोयल से पूछा क्या तुम हो पदचाप
तो बोली मैं भी हूं उसकी खोज में
झरने से पूछा क्या तुम हो पदचाप
तो बोला मैं तो बह रहा हूं इसे ढूंढने

वृक्ष फल फूल लतायें
धरती आकास दिशायें
कोई न बता पाया पदचाप का उदगम
और थका हारा मैं ढल पडा निश्चल
एक पत्थर से माथा टेके

स्वप्न के विराट फैलाव में
मेरे ही भीतर उभरा एक संगीत
छन छन छन छन
कोयल की कूक का
झरनो की कलकल का
विश्व के ओम का

और जागनेपर मंदमंद
लुप्त होने लगी पदचाप

– डा सी एस शाह

दो पहलू–नये संदर्भ

1
वस्त्रहरण की पीड़ा से परेशान हे नारी
कितने वस्त्रो का संचय करोगी
कितने आभूषणो की अभिलाषा
केवल तन ढँकने से लाज नहीं छिप जाती
हे भारतीय नारी
द्रौपदी का अनुसरण करना है तो
भक्ति श्रद्धा से संपूर्ण समर्पण करना होगा
वह कृपालू तेरा जीवन परिपूर्ण कर देगा
2
कहीं वस्त्र और लाज का संबंध
लय तो नहीं होता जा रहा है
क्यों कुमारी माता का खिताब
सामान्य होता दिखाई दे रहा है
हे आधुनिक नारी
माता कुंती का अन्धानुकरण न कर
कर्ण की पीड़ा
तेरा बेटा शायद झेल ना पाये
और
अनुसरण करना ही है तो
उत्पीडन को सहन करने की शक्ति जुटा
तथा प्रार्थना कर कि
"हे प्रभु मेरी नियति की झोली में
हमेशा दुख ही डालना
ताकि हर संकट में
मैं तेरा स्मरण रख सकूं"

– डा सी एस शाह
 

परिवर्तन

एक नीलकमल
आकाश की छाया ओढ़े
कृष्ण की माया लिये
नीलकंठ की काया से लिप्त
आश्रम के कुंड में खिला मैंने देखा।

अतीव स्वकेंद्रित निश्चल
सारे विश्व को जैसे
अपने पंखुड़ियों में समेटे
मुझे ललकार रहा हो।

मै भी हो जाऊँ अंतर्मुख
उस की तरह
प्रवृत्तियों को समेट लूं
मन के असीम अवकाश में
और हो जाऊं
निरपेक्ष निराकार ओंकार।

– डा सी एस शाह

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