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एक गज़ल
इस ज़िन्दगी की हम परवाह क्यूं करें मौत आने का इन्तज़ार क्यूं करें बीत जायेगी यह रात भी लमहा लमहा भोर के तारे की हम चाह क्यूं करें आ रहे होंगे वो आहिस्ता आहिस्ता हम उनके आने का इन्तज़ार क्यूं करें वो गुनहगार हैं तो मुझे परवाह क्या हम उनके गुनाहों का हिसाब क्यूं करें जलते ही रहते हैं परवाने शमा पर वो मेरे मरने पर फिर आह क्यूं भरें |
मइया मोहिं
मइया मोहिं डाऊ
बहुत खिझायो नोट : इस कविता का किंचित भिन्न संस्करण न्यू जर्सी से प्रकाशित हिन्दी साहित्यिक पत्रिका 'विश्वा' के अप्रैल 2000 अंक में छप चुका है। |
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