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वक्त के उस मुहाने पर

कौन हो तुम ?
बीतता बसंत।
और तुम,
मैं ?
सूखती बरसाती नदी ।
यहॉं क्यों खड़े हो ?
बीत जाने की प्रतीक्षा में ।
तुम क्यों ठिठकी हो ?
बरसात के लिये,
क्या बीतते मौसम लौटेंगे ?
नहीं जानता ।
मैं भी कहॉं जानती हूँ ।
तो चलो वहॉं,
वक्त के उस मुहाने पर जा बैठें,
जहॉं मौसम करवटें बदलते हैं ।

 – मनीषा कुलश्रेष्ठ
 

 

यूं तुम हो…

यूं तुम हो
एक संतुलित, सजग व्यक्ति
बहुत ही उदारमना।
लोग प्रभावित होते हैं ,
और मैं गर्वित ,
पर जानती हूँ ,
बहुत छिपाना पड़ता है तुम्हें।
छोटे क्षुद्र भाव,
ईष्र्या, शंका, आक्रोश
बहुत सफलता से तुम
छिपाते आए हो।
कितना समझाते हो
आँखों को ,
छिपा लें स्नेह भी,  प्रशंसा भी।
आज तक कहते आए हो
'' अतीत था तुम्हारा अपना,
वर्तमान है हमारा
और हो,
तुम मेरी अपनी ''
पर,
कभी– कभी कर जाती हैं
अवमानना ये चतुर–मुखर आँखें,
पूछ ही लेती हैं…
अतीत के कुछ गुस्ताख़ प्रश्न।
रक्ताभ हो जाती हैं ईष्र्या से।
थोड़ा डर जाती हूँ,
पर एक मुस्कान सहेज लेती हूँ।
कहीं तो स्नेह होगा ही…
अगर है,
स्नेह से अवश ,
अधिकार की तीव्र भावना तो…
यूं तुम हो
एक संतुलित ,सजग व्यक्ति
बहुत ही उदारमना।

 – मनीषा कुलश्रेष्ठ  

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