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दिगन्त

आकाश है‚ और है एक पुरुष।
धरती है‚ और है एक नारी।

धरती ने आकाश को स्पर्श किया‚
दिगन्त स्पर्श किये हुए पुरुष ने सोचा‚
यह प्रेम सिर्फ कल्पना है।
दिगन्त तो एक मूल है‚ है एक भ्रान्ति‚
होठों का स्पर्श तो एक जादू है।
क्योंकि नारी की ज़रूरत तो‚
सिर्फ एक घर की है‚
और मातृत्व की।

एक दिन भारी तूफान और आँधी के बाद‚
आकाश से बरसी जोर बरसात।
नारी समझी यह प्यार की देन है।
पुरुष ने उसे तृप्त करने के लिये‚
अपने आप को उजाड़ कर दिया।
मूर्ख धरती की ओर देखकर हँसा आकाश‚
क्योंकि बरसात तो फिर से करेगा ' वह'
जब जरूरत होगी।

पुरुष मानता और जानता है कि उसका तृप्त शरीर‚
जब सुख निद्रा में सो जाता है।
नारी उसे निष्पाप प्रेम की छवि मानती है।

आकाश को मान्य हो या न मान्य हो यह बात
मगर शाश्वत सत्य है कि –
नारी है‚ इसलिये पुरुष का अस्तित्व है।
धरती पर खड़े होकर ही‚
आकाश को देखा जा सकता है।
धरती या नारी के न होने से‚
पुरुष या आकाश कायाहीन है।
भ्रमित पुरुष को नहीं है पता कि‚
नारी–हृदय में भी छिपा है विद्रोह
धरती का हृदय चीर कर ही बाहर आता है जो‚
उसीका दूसरा नाम है लावा।

– मानशी घोष

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