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सच कहना …

क्या क्या विस्मृत किये बैठे हो तुम
भूल गये पलाश के फाल्गुनी रंग
चटख धूप में मुस्कुराते अमलताश
और टूटी चौखट वाली खिड़की पर
चढ़ी वो चमेली और उसकी मादक गंध?
पकते सुनहले गेहूं के खेत
वह नहर जिसे
मुझे गोद में उठा कर पार कराते थे
सिके भुट्टों की भूख जगाती सौंधी खुश्बू?
मुझसे तो कुछ भी नहीं भूला गया
न वो किले की टूटी दीवार पर
साथ बैठ गन्ने खाना
न वो सावन के दिनों में
लाल सुर्ख वीरवधूटियों को घास से चुन लाना
कैसे भूल जाती वो होली के रंग
साथ साथ बढ़ती बेल सी
हमारी कच्ची दूधिया उमर
और आर्थिक अभावों की कठोर सतहें
बड़ी संजीदगी से पढ़ते थे तुम
मैं वही आंगन में तुम्हारी बहनों के साथ
रस्सा टापती‚ झूला झूलती
भरसक ध्यान खींचती थी तुम्हारा
खिलखिला कर
अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाती तुम्हें
तुम पर धुन सवार थी
अभाव काट बड़ा बनने की
क्यों
जानकर अनजान रहे मेरे प्रेम
और उठान भरती देह से?
मैं क्यों रातों तुम्हें
अपनी सांसों में पाती थी?
विधना ने तो रचा ही था बिछोह हमारे मस्तकों पर‚
तुमने भी वही दिन चुना परदेस जाने का
जिस दिन मेरे हाथों में
पराई मेंहदी रची थी सगाई की
मैं आज तक न जान सकी
कि तुम्हारे बड़ा बनने में
मेरा क्या कुछ टूट कर बिखर गया
जिसे आज भी सालों बाद
भरी पूरी गृहस्थी का सुख न जोड़ सका
सच कहना याद आती है न …
मेरी नहीं
उन पकते खेतों की…

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

अंधेरे में उजाले की किरण

 

घनेरी रात की नदी की
स्याह उमड़ती घुमड़ती अंधियारी लहरों
के वेग से
किनारे बैठी मैं विकल हो
विवस्त्र हो जाती हूं और
कूद पड़ती हूं
हहराती स्याह लहरों में
हाथ को हाथ नहीं सूझता
क्लान्त हो मैं डूबने लगती हूं
कि अर्धचेतनता में ही
महसूस होती हैं दो सशक्त भुजाएं
मुझे कस कर पार करती हैं
अंधेरे की नदी
अर्धचेतनता में
मैं उस चेहरे को अकसर देख कर
भी भूल सा जाती हूं
वह मेरे होंठों में अपने होंठों
से प्राण फूंकता है।
मेरे वक्षों में स्पन्दन भर
डूबते हृदय को
जगाता है
ठण्डी देह को अपनी देह से लिपटा
अपनी उष्णता मुझसे बांट लेता है
मैं अर्धचेतनता में
नेत्र खोलती हूं
और अंधेरे में उजाले की किरण
सी मुस्कान उसके चेहरे पर पाती हूं
बस वहीं उलझ कर
बाकि का चेहरा देखने से चूक जाती हूं।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ
 

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