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एक अकेली मितुल : छवियां तीन

देवदीप मुखर्जी

ह एक दिन मितुल जब ढलते हुए दिन की किरणों को पीठ पीछे लेकर तुम नदी  तट पर जल में अपनी छाया निहार रही थी..वह छाया, तुम्हें, तुम्हारे लिए एक अकेले का दृश्यांश था पर मुझे स्पष्ट दिखाई दे रही थी जल में तीन प्रतिछाया... तुमसे अलग होती जल में थिरकती तीन तीन छवियां मितुल... 

रेत नद में मितुल : पहला आख्यान... पहली सत्ता 

वहां धुर पश्चिम में रेत की नदी उड़ती हुई..तट बदलते रास्तों के निशान गुम होते.. पूरे चांद की शरद रात में रेत पर उग रहे तुम्हारे पद चिह्न मितुल... यह रेत है और रेत की नदी में प्रतिबिम्ब मरीचिका की तरह दूर कहीं...

यह पहली सत्ता है तुम्हारी मितुल..एक तरफ रेत सी रूखी शुष्क तो दूसरी ओर जेठ की तपती लूई चद्दर में

खेजड़ी सी हरियल, भरी गदराई...छांव देता कांधा...

पेट भरे को लूंग या कि सांगरी या फिर खोखा.. छपनिया अकाल में तुम्हारे तनों के छिलके ज़िंदा रखे हुए थे जैसे,उसी तरह हो तुम घन सघन जीवन से भरपूर....कवि ने "तुम्हारे सौनेली मींझर से अलगोजे री गूंज सुणी... आंख्यां में सुपनां नाचे ..."

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तुम शमी वृक्ष से उपजी यज्ञ की समिधा रही हो मितुल.. अग्नि झरे तुम्हारी इस रंग विविध सत्ता से.. रेगिस्तानी बिल्ली की तरह हो चौकस..

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तुम्हारा यह रूप मुग्ध करता है मितुल जहां केवल और केवल आत्मा है.....शरीर रेत के धोरों की तरह विलीन होता... 

चेहरों की भीड़ में अकेली मितुल : दूसरा आख्यान...द्वितीय सत्ता 

रेत के धोरों से लौट चौतरफ चेहरों की बहमान नदी में तुम बहुत अकेली और तन्हां हो चली थी मितुल..

यह नागर सभ्यता का सच है...सब कोई है और कहीं कोई नहीं है......भीड़ की इस नदी में तुम्हारे अकेलेपन की छाया सड़क से फुटपाथ.....फुटपाथ से पगडंडी की तलाश में उद्भ्रांत....बिम्ब है प्रतिबिम्ब अनुपस्थित..

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कविता से गुजरते हुए तुम्हारी इस द्वितीय सत्ता ने मंच की चौहद्दी नाप डाली.. अभिनय से निर्देशन तक...... इच्छा मृत्यु की तरह मंच पर आकार लेती विलीन होती सुप्त चेतना...सुर हवा में तैरते, तारों के साथ चांद तक टहलते हुए... इतने सब कुछ के बीच भी अवसाद का धुआं... यकीन के परदे अदृश्य..

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तुम्हारी यह सत्ता रहस्यमयी है मितुल..

अभी धूप तो अभी बादल..

अभी हवा तो अभी उमस..

अभी चांदनी तो अभी तमस...

एक लम्हे में टूटकर गिरती खिलखिलाती हँसी तो दूसरे ही पल अगुन झरे नेत्र..

तुम्हें समझना किसी आग के दरिया से गुजरने जैसा है..

यह जानकर भी मैंने हर पल उसी दरिया से गुजरने का प्रयत्न किया.... तुम्हारे अंतस में एक और ही मितुल रहती है.. ममत्व,स्नेह और प्रेम की अभिलाषी.. तुम्हारे इस मन का आवरण नारियल की तरह कठोर..वहां तक पहुंचने की सुरंग आबनूसी अंधेरे में निमज्जित... चमगादड़ों की फडफडाहट में सुर ताल का अनुनाद... घाटियों से टकराकर लौटता सन्नाटा...

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तुम्हारी इस द्वितीय सत्ता ने मुझे, मेरे वजूद को न तो स्वीकार किया, न ही प्रत्याख्यान...एक अलस दोपहर की तरह रहा तुम्हारा यह मन..शरीर से दूर भागता हुआ..यही शायद वजह रही हो कि और और ज्यादा तुम्हें, तुम्हारी इस सत्ता को चाहने लगा.. कवि महादेव साहा के शब्दों में..

" समुद्र से भी ज्यादा समुद्र

आकाश से भी अधिक आकाश हो तुम

मेरे अंतर में जागृत

तभी तो तुम्हें भूलना चाहते हुए भी

और ज्यादा चाहने लगा हूँ

तुम्हें अपने से दूर करते हुए

और भी निकट खींच लेता हूँ...."

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शरीर,इतना भर कि होंठ,बस कपाल पर ही स्नेह अंकित करते रहे सदा...

तुम्हारे स्वस्थ रहने की कामना में रूद्र का वह गीत याद आ रहा है  मितुल...

" मैं अच्छी तरह हूँ, तुम भी अच्छे से रहना

आकाश के पते पर चिठ्ठी लिखना..."

गंगा के ज्वार सी उफनती देह वल्लरी 

तीसरा आख्यान...तृतीय सत्ता :

चांद तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करता है गंगा और तुम रौरव नाद से अपने जल का रह रहकर पहाड़ बनाती हो.. उफनती हुई गंगा में सारे प्रतिबिम्ब विलीन होते..

और जब चांद संतुष्ट होकर नींद में तब तुम, तुम्हारा जल कितना शांत, स्निग्ध...

तुम इसी गंगा नदी की प्रशाखा हुगली नदी की तरह हो मितुल जिसके दोनों तट पर कभी बडी जूट मिल और कारखाने हुआ करते थे.. समय के साथ साथ गलत नीतियों और एक मुश्त लाभ के स्वार्थ में बंद होते..

तुम्हारी देह में भी हुगली नदी...यह दीगर है कि देह के उफान को संयत करना सीख लिया है तुमने...

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कुछ दिनों बाद ही काली पूजा है यहां...

काली, 'काल' या 'समय' को निरुपित करती है.. काल का एक अर्थ काला रंग भी होता हैै आदि रंग...ज्योति से पूर्व डूबी घनीभूत अंधियारी पृथ्वी..

यह वह रंग है मितुल जिसमें चराचर के सारे रंग समाहित हो जाते हैं... लाल, नीला, भगवा, सफेद, पीला, हरा.. किसी भी रंग के पृथक अस्तित्व का विलोप ...

दरअसल मितुल, मां काली ठीक तुम्हारी ही तरह है जिसे समझ पाना बहुत दुरुह है..

माँ काली अंहकार से मुक्ति की आराधना है..

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मितुल.. I-am-the-Body की संकल्पना से मुक्ति ही काली महाकाली है .. शरीर ही अंहकार के मूल में होता है.. शरीर से मुक्ति का अर्थ मृत्यु कदापि नहीं है वरन उस अहं की प्रवृत्ति से मुक्ति है जिसे हम ताउम्र ओढते-बिछाते.. मेरा-तेरा की असामान्य लडाई लडते रहते हैं..

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काली, काल और स्थान का एक अति आश्चर्य प्रतीक है मितुल...

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अब तुम कहोगी मितुल,अगर शरीर नहीं तो फिर तुम मेरे लिए क्या हो.. बहुत ही कठिन है यह प्रश्न.. जिसके उत्तर की तलाश सालों-साल से करता आ रहा हूँ.. मेरे तईं तुम महज़ एक शरीर हो और नहीं भी हो.. मैं भी कहां मुक्त हो सका हूं अपने इस अंहकार से, अपने शरीर से.. लेकिन तुम अपनी सम्पूर्ण सत्ता में शक्ति रही हो मेरे लिए..

माँ काली शक्ति रूपेण है काल में निमज्जित..

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माँ काली स्नेहिल हैं श्यामा भी..

समस्त रंग के अंहकार को निगलती..

यह तुम हो मितुल मेरे लिए....

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