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प्रेम, दर्शन, शायरी और
साहिर लुधियानवी ’वह अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर, छोड़ना अच्छा।’ ये पंक्तियां हैं अब्दुल हयी साहिर लुधियानवी की। कोई चाहे तो शायर की इन दो पंक्तियों पर कितने ही पन्ने लिख सकता है फिर कैसे पूरे साहिर पर लिखा जाय? और लिखा जाय तो क्या-क्या छोड़ा जाय? ‘साहिर’ इस नाम में मुहब्बत है, नज़ाकत है, और बात छोड़िये इस नाम में खामोशी है और लफ़्ज भी हैं क्या कुछ नहीं है यहां ये नहीं कह सकते कि ’नाम में क्या रखा है?’ अगर मैं गलत हूँ तो पूछिये उस पीढ़ी से जो साहिर के दौर को जी चुकी है, जिन्होंने साहिर को पढ़ते-सुनते उम्र का एक दौर बसर किया है। 08 मार्च, 1921 में लुधियाना, पंजाब में जन्में साहिर ज़मीदार घराने से थे पर उनके माता-पिता में हुए अलगाव के कारण उन्हें माता के साथ मुफ़लिसी में रहना पड़ा। लुधियाना के खालसा स्कूल से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की फिर वे लाहौर चले गए। वो 1939 का समय था लाहौर के सरकारी कॉलेज में साहिर पढ़ने लगे। कॉलेज जीवन साहिर के जीवन का एक बेहद रोमांचक समय रहा जहां उतार-चढ़ाव सब उन्होंने करीब से देखे। साहिर अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के लिये कॉलेज भर में मशहूर थे। उनकी सहपाठी और पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम उनकी ग़ज़लों और नज़्मों की मुरीद हो गई। और कौन न मुरीद होगा? हम भी तो हैं उन ग़ज़लों को आत्मसात कर गुनगुनाने वाले।अमृता साहिर से प्रेम करने लगी। साहिर को साहिर बनाने में उनकी परिस्थितियों का बड़ा हाथ है। यह वो दौर था जब प्रेम करना कांटों की राह चलना था और साहिर साहब के रास्ते कांटों से भर दिये गए। कहते हैं अमृता के पिताजी ने साहिर को कॉलेज से निष्कासित करवा दिया। साहिर मुस्लिम थे और अमृता सिख सरदार, इनका मिलन कैसे हो सकता था? वह भी उस दौर में...आज भी बहुत कांटे होते हैं ऐसी प्रेमिल राहों में। इस सब के बीच कुछ और हुआ और वो सब बेहतर ही नहीं बेहतरीन हुआ। साहिर की कल़म शायरी को जन्म देती गई वे कहते हैं - ’जज़्बात भी हिन्दु होते हैं, चाहत भी मुसलमां होती हैं, दुनियां का इशारा था लेकिन, समझा न इशारा दिल ही तो है।’’ क्या खूब शायर थे साहिर, क्या खूब प्रेमी थे साहिर। प्रेम में असफल हुए पर इस नाकामी को रचनात्मक मोड़ दे एक और ऊंचाई पर पहुंचने वाले शायर की प्रेम की ऊंचाई भी अलहदा थी। अमृता और साहिर का प्रेम रूहानी प्रेम था, जो एक दीप की तरह सुलगता रहा मंद-मंद। इनके प्रेम को समझने के लिये इनके जैसा दिल चाहिये।वैसे इनका प्रेम आज भी चर्चा का विषय है... गाहे-बगाहे कोई कहता है अमृता ने ही प्रेम किया साहिर मियां तो कायर थे...ख़ैर जो भी हो मैं उस झमेले में नहीं पड़ती।मुझे तो यह दीवानगी रोमांचित करती है। मैं कॉलेज में पढ़ाती हूँ और प्रेमियों के बीच रहती हूँ। प्रेम के बदलाव को महसूस करती हूँ तो दिल तड़प उठता है। हो सकता है प्रेम को लेकर मैं दकियानूसी हूँ या अतीतजीवी या कुछ भी कह लो पर इन युवाओं को प्रेम में देखती हूं तो एक सतहीपन नज़र आता है। आज की पीढ़ी को देखती हूँ तो लगता है गली-गली, घर-घर, कैम्पस-कैम्पस प्रेमी युगलों से अटे पड़े हैं। आज एक ’ब्रेकअप’ के बाद नया साथी तलाश लिया जाता है या फिर ‘पैचअप’ का पैबन्द्य लगाकर रिश्तों को जरूरत के मुताबिक ‘सी’ लिया जाता है और मजे की बात है कि प्रेमी-प्रेमिकाओं को न वह पैबन्द्य नज़र आता है न फटे की सीवन ही दिखती है। आज के प्रेमी-प्रेमिकाओं ने जो कर दिखया है वो एक बड़ा कारनामा है जिसमें ’बिरहा’ को तो ’डीलीट’ ही कर दिया है। जिस ‘बिरहा’ ने बड़े-बड़े शायर बनाए जिसने वर्षों तक दर्द को संभाल कर रखने का हौंसला दिया वो ‘बिरहा’ वो ‘जुदाई’ अब नहीं दिखती। एक जमाना था जब प्रेम में मिले दर्द को प्रेमी-प्रेमिका अनमोल हीरे की तरह हृदय में छिपाकर रखते थे और वो दर्द निरन्तर प्रिय के सानिध्य का एहसास करवाता करता था। अब न वो ठहराव है न इन्तजार का एहसास, अब तो नई तकनीक ने पल भर की दूरी भी मिटा दी। अब प्रेमी-युगल उठते-बैठते, घर में, बाहर, सोते-जागते, खाते-पीते, हर पल का संदेसा और सैल्फी का आदान-प्रदान कर बिरहा को तिलांजलि कबकी दे चुके। अब सौंदर्य, पैसा, मौज-मस्ती, घूमना-फिरना और फन, बस यही है मक़सद। अब मिलन ही मिलन है, नहीं है तो सच्चा प्रेम, नहीं है तो तमाम उम्र किसी की याद में जीने का हुनर। इसीलिये तो अब साहिर नहीं बनता कोई। साहिर ने तो उस दौर में लिखी पर मुझे उनकी ये पंक्तियां आज के दौर पर खरी उतरती लगती हैं - ‘‘उन का गम उन का तसव्वुर, उनके शिकवे अब कहां अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई।’’ और अब कोरोना में शृंगर रस को भी कोई कैसे लिखे...जैसा भी प्रेम होता है वह भी इस काल में ख़तरे में पड़ गया। अब मास्क लगे तरुण किस मास्क पर रिझें? अधरों का सौंदर्य...कपोलों की लाली...कुछ भी तो नहीं पढ़ पाते।आह! दारुण है प्रेमियों के लिए कोरोना।ख़ैर साहिर पर आते हैं।
साहिर एक ग़रीब लड़का
और देखने में बिल्कुल सुन्दर नहीं,
पर अमृता
जैसी अनिंध्य सुन्दरी उन्हें हद का प्रेम करती रही तमाम उम्र। अमृता ने
अपनी आत्मकथा ’रसीदी
टिकट’
में लिखा भी है
‘‘साहिर
को जिन्दग़ी का एक सबसे बड़ा कॉमलेक्स है कि वह सुन्दर नहीं है,
इसी कारण
उसने मेरे पूअर टेस्ट की बात की।’
क्या अब कोई
लड़की खाली जेब और अति साधारण रंग रूप वाले लड़के से प्रेम कर सकती है?
प्रेम भी
ऐसा जैसा अमृता ने किया,
वह प्रेम जो कभी
पूरा न हुआ पर दो प्रेमियों को संपूर्ण बना गया। साहिर की कहानी में अमृता
प्रीतम न आए तो कोई साहिर को समझ ही नहीं सकता। अमृता के प्रेम की ऊँचाइयां
तो देखिये वे ‘रसीदी
टिकट’
में लिखती हैं,
‘‘जब अकादमी
अवार्ड मिला,
तो प्रेस रिपोर्टर
ने मेरी तस्वीर लेते हुए चाहा कि मैं क़ाग़ज पर कुछ लिख रही होऊं। तस्वीर
लेकर जब प्रेस वाले चले गए तो देखा कि उस पर मैंने बार-बार एक ही लफ़्ज लिखा
था- साहिर.......... साहिर........ साहिर। वाकई यह था साहिर लुधियानवी का
जादू यह खामोशी का एक हसीन रिश्ता था। दो दिल खामोशी से एक-दूसरे पर
रीझ-रीझ जा रहे थे। 1949 में फिल्म ‘आजादी की राह पर’ के लिये गीत लिखा, अधिक नहीं चला, पर ये नाकामी भी कहां रोक पाई साहिर को। फिर लिखा ‘नोजवान’ फिल्म का गीत ‘ठण्डी हवाएं लहरा के आएं.....’ और ये गीत आज तक सुहाना एहसास करवाता है। इसके बाद तो साहिर ने ‘बाजी’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘कभी-कभी’ जैसी फिल्मों के यादगार गीत लिखे जिनका जादू आज भी जस का तस है। साहिर के गीतों के लिये देश के नामचीन संगीतकारों जैसे एस. डी. बर्मन, एन. दत्ता, शंकर जयकिशन, खय्याम आदि ने धुने बनाई। कुछ यादगार ग़ज़ले - ’रंग और नूर की बारात किसे पेश करूं’, ’सिमटी हुई ये घड़ियां फिर से न बिखर जाएं’, ’पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी’, ’मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी’, सलामे हसरत कुबूल कर लो’, नगमा और शेर की सौगात किसे पेश करूं। सारा देश जिसे प्रेम करता था वो शायर निजी-जीवन में अकेला था। अमृता प्रीतम के बाद उन्होंने सुधा मल्होत्रा से प्रेम किया पर वह भी उनकी जीवन-संगिनी न बन सकी। साहिर आजीवन अविवाहित रहे। प्रेमी हृदय वाला शायर यदि परिणय सूत्र में बंध जाता तो शायद अमर प्रेम कहानी का अंत हो जाता जैसे तमाम गृहस्थ लोग सामान्य सी ज़िन्दगी जीते हैं जिनके जीवन से रूमानियत ग़ायब हो जाती है। आज भी वो प्रेमी उन्हें याद करते हैं...वो जो दिल से प्रेम करते हैं...! उनकी प्रेम कहानी अंजाम तक तो नहीं पहुंची पर लफ़्जों की नाव में बैठ शायरी के समन्दर में जरूर उतरी, कुछ ऐसे- ‘‘मैं फूल टांक रहा हूं तुम्हारे जूड़े में तुम्हारी आंख मुसर्रत से झुकती जाती है न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ, ज़बान खुश्क है आवाज़ रूकती जाती है।’’ साहिर का व्यक्तित्त्व उनके हिन्दी सिनेमा के गीतों में उभरकर आता है। साहिर ऐहसासों से भरे शायर हैं जो डूबकर लिखते हैं। उनके गीत ‘मिलती है जिन्दगी में मुहब्बत कभी-कभी’ आज के दौर में भी मशहूर है। कुछ गीत हैं जो सदाबहार हैं जैसे- - आना है तो आ (नया दौर 1957) - अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम (हम दोनों 1961) - चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों (गुमराह 1963) - मन रे तू काहे न धीर धरे (चित्रलेखा 1964) - मैं पल दो पल का शायर हूँ (कभी-कभी 1976) -
ईश्वर
अल्लाह तेरे नाम (नया रास्ता 1970) उनके सदाबहार गीत ’जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ और ‘कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है’ के लिये फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला। साहिर केवल प्रेम में डूबे शायर ही नहीं थे वरन् दूसरों के प्रति संवेदनशील और सिद्धान्तवादी व्यक्ति भी थे। वे हिन्दी फ़िल्मों के पहले ऐसे गीतकार थे जिनका नाम रेड़ियों से प्रसारित फ़रमाइशी गानों में लिया गया। इससे पूर्व गायक और फ़िल्म का नाम ही लिया जाता था, और वे पहले ऐसे गीतकार थे जिन्होंने गीतकारों के लिये रॉयल्टी की व्यवस्था करवाई। साहिर लाहौर से ’साक़ी’ पत्रिका निकालते थे, वे लेखकों के मेहनताने के सदैव हिमायती रहे चाहे कम ही मिले। पत्रिका घाटे में जा रही थी इसी दौरान एक बार लेखक शमा लाहौरी को वक्त पर पैसे नहीं मिले और लाहौरी को जरूरत थी सो वे साहिर के घर ठण्ड में कांपते हुए पहुंचे। साहिर ने उन्हें बड़े प्रेम से अपने हाथो से चाय बनाकर पिलाई और खूंटी पर टंगा अपना मंहगा कोट उतार कर देते हुए कहा ’मेरे भाई बुरा न मानना....... कबूल लो।’’ आज कोई रॉयल्टी के लिए लड़ाई नहीं लड़ता। लेखकों की बाढ़ आ गई, अब कहां वो बातें। साहिर ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कभी स्वयं पर ध्यान नहीं दिया वे औरों का ध्यान हमेशा रखते थे। वे ’नास्तिक’ थे। पर मैं साहिर को नास्तिक नहीं मानती क्योंकि उनका खुदा उनका प्रेम था, उसी प्रेम को हृदय में बसाकर उसकी इबादत की। मुझे वे सूफ़ियों की तरह लगते थे, सूफ़ी लौकिक प्रेम को अलौकिक मोड़ देते हैं परमात्मा से प्रेमी-प्रमिका वाला भाव रखते हैं। मीरांबाई और महादेवी वर्मा दोनों ने परमात्मा रूपी प्रियतम को अपने भाव-सुमन अर्पित किये उन्हीं की पूजा की। इस लोक में भी जो प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम में कशिश होती है वह जुनून पैदा करती है, इसीलिये सूफ़ियों ने परमात्मा से प्रेमी-प्रेमिका भाव रखा। कबीर आत्मा को दुल्हन और परमात्मा को दूल्हा या भरतार कहते हैं क्योंकि कोई रिश्ता न होते हुए भी दो लोग एक-दूसरे के लिये मर-मिटने को तैयार हो वह प्रेम इबादत ही तो है फिर भला साहिर की ‘इबादत’ में क्या कमी थी उनको ‘नास्तिक’ कैसे कहा जा सकता है? क्या इसिलिये कि वे मन्दिर, मस्ज़िद नहीं गए? उनके प्रेम की गहराई को देखिये ‘‘गम और खुशी में फ़र्क न महसूस हो जहां, मैं दिल को उस मुकाम पे लाता चला गया बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया।’’ इसी तरह - ’’मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मेरी हस्ती है पल-दो पल मेरी कहानी है।’’ यह अवस्था एक साधक की सी अवस्था है। साहिर का प्रेम एक दर्शन है जिसमें जटिलता है और वही समझ सकता है जो साहिर को पूरी तरह जानता है और संसार के बने-बनाए खांचे से आलहदा सोचता है। साहिर के जीवन में आए दो लोग अमृता प्रीतम और चित्रकार इमरोज दोनों के जिक्र बिना उनके दार्शनिक जीवन को नहीं समझा जा सकता । उनकी ग़ज़लों में जो गहराई है वह उनका अद्भुत प्रेम दर्शन है, एक भोगा हुआ यथार्थ है, एक रूहानी एहसास है। अमृता का प्रेम एक वक्त में एक साथ साहिर और इमरोज दोनों से था। ये तीन व्यक्ति एकसाथ वक्त बिताया करते थे और एक अदृश्य तन्तु इन्हें आपस में जोड़े हुए था। घण्टों साथ बैठ तीनों व्यक्ति समय गुजारते और रूख़सत होते। प्रबुद्ध चिन्तक प्रेम की एक अवस्था ऐसी भी बयां करते हैं जिसमें इन्सान का अन्तरमन उसकी आत्मा पर कुछ लिखता है तो खामोश तो होता है पर बहुत गहरा होता है। इनका यह प्रेम बयान तो हुआ पर दर्ज नहीं। ये अपने दौर के मशहूर लोग थे और इनके किस्से कहानियां भी खूब मशहूर हुए। कैम्पस प्रेम पर आधारित डॉ. धर्मवीर भारती के अपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ के सुधा और चन्दर की तरह साहिर, अमृता और इमरोज का प्रेम भी युवाओं के दिल धड़काया करता था। आज के दौर में इस जटिल दर्शन को समझना दुश्कर है। अमृता साहिर को उतना ही चाहती थी जितना इमरोज को। इमरोज बताते हैं कि वे अमृता को अपने स्कूटर पर बिठा कर ऑफिस छोड़ने जाया करते थे और अमृता रास्ते में इमरोज की पीठ पर अपनी ऊंगली से साहिर का नाम लिख रही होती थी। ‘‘इमरोज इस वाकये पर कहते हैं नाम साहिर का था, पर पीठ तो मेरी थी।’’ साहिर इस अद्भुत प्रेम को यूं लिखते हैं - ‘‘याद मिटती है न मंजर कोई मिट सकता हैं दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी।’’ प्रेम में डूबकर भावनाओं को व्यक्त करने वाले साहिर के ये अमर गीत कैसे भूल सकते हैं- ’अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं।’ इसी तरह चुहलबाजी भरा अंदाज ’ए मेरी जोहराजबी तू अभी तक है हसी, और मैं जवां।’ यह कहानी आज भी फिल्मकारों को खींच रही है और इस पर फिल्म बन रही है। दिल्ली में इस प्रेम त्रिकोण पर नाट्य प्रस्तुति भी हुई। इन तीनों अद्भुत प्रेमियों के कुछ किस्सों को सैफ़ हैदर हसन ने अपने नाटक ‘एक मुलाका़त’ में बुना। वे कहते हैं ’साहिर कोई इंसान नहीं बल्कि एक भावना है। जब आप किसी की नज़्म या शेरो शायरी से जुड़ते हैं तो आप उसे क्यों पसंद करते हैं? क्योंकि कहीं न कहीं कोई है तो आपके लिये कुछ कह रहा है। आप उसे अपने विचारों के तौर पर ही महसूस करते हैं। दिल में उतरते साहिर का अंदाज इस गीत में देखिए- ’मेरे दिल में आज क्या है, तू कहे तो मैं बता दूं।’ संजीदगी जैसे साहिर के जीवन का एक हिस्सा थी। आज जीवन के विषाद, प्रेम में आत्मिकता की जगह गीतकारों में भौतिकता व सियासी खेलों की वहशत भरी पड़ी है, परन्तु साहिर अलग अंदाज़ के बेफिक्र इन्सान थे। वे यायावर थे, विद्रोही कवि थे और प्रगतिशील थे। उनका बचपन, उनका प्रेम और उनकी ज़िन्दगी बिल्कुल अलग थी। उन्होंने फ़िल्मों के लिये लिखा पर अपने अंदाज़ में रहे। कोई समझौता नहीं किया वे अपने गीतों में एक शब्द का भी बदलाव नहीं करने देते थे। वे असाधारण थे और उनका प्रेम असाधारण लोक की अनुभूति थी। कहीं पढा था ' उनकी कहानी एक ‘वचन-बद्धता’ में बंधे व्यक्ति का एक ‘भावूपर्ण’ महिला से प्रेम और इस प्रेम में एक दिलचस्प हिस्सा इमरोज का समर्पित प्रेम है।' यही रूमानियत उनके गीतों में कुछ यूं ढली - ‘‘ये रात ये चांदनी फिर कहां, सुनजा दिल की दास्ता।’ अपनी प्रेयसी से गुहार करता कवि कहता है ‘चलो इकबार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।’ अहा! क्या रुमानियत भरा गीत है। प्रेम की कशिश भरा गीत याद आ ही जाता है जब साहिर की बात चलती है ’ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात।’ उनकी ग़ज़लों में दर्शन है जो बहुत असरकारी है, सीधे रूप में उतरता है
‘‘मन
रे तू काहे न धीर धरे,
वो निरमोही,
मोह ने
जाने।’ ‘‘हम तो समझे थे के हम भूल गए हैं उनको क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी
बात पे रोना आया।’’ ’जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला हमने तो जब कलियां मांगी कांटो का हार मिला।’ क्या अंद़ाज, क्या ताक़त थी उनके लफ़्जों में। फिल्मनगरी की चकाचौंध भी उनसे सस्ता नहीं लिखवा सकी। एक विरक्त हृदय के भाव लिए साहिर लिखते रहे- ’ये दुनियां अगर मिल भी जाए तो क्या है’ तमाम उम्र एक टीस को सीने में दबाए साहिर शायरी जीते रहे ’’गर ज़िन्दगी में मिल गए फ़िर इत्तफा़क से पूछेंगे अपना हाल तेरी बेबसी से हम।’’ एक शायर जिसने हिन्दी और ऊर्दू में लिखा और खूब मुहब्बत लुटाई सबको। पर एक मज़बूत शायर का एक नाजुक सा दिल सह न सका जमाने की निष्ठुरता और 25 अक्टूबर, 1980 में मुम्बई में 59 वर्ष की उम्र में उन्हें दिल ने ही धोखा दिया, दिल का दौरा पड़ा और साहिर हम सबको छोड़ गए। प्यार की दौलत हमारे लिये छोड़ गए। उनकी वीरानी को बयां करती पंतिक्यों के साथ अलविदा साहिर लुधियानवी ’कोई तो ऐसा घर होता जहां से प्यार मिल जाता वही बेगाने चेहरे हैं जहां जाएं जिधर जाएं।’’
डॉ मंजु शर्मा |
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