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बकुल यात्रा में है शरद ने निशान्धकार की नीरवता में चन्द्र पर सवार हो हौले से दस्तक दे दी है। दिनदहाड़े द्वार थपेडता नहीं आया है अभी, लेकिन चन्द-मयूख पर पेंगे बढाती मदमस्त महकती हवाओं ने उसकी आहट सुन ली है और स्वागत में द्वार खोल दिए हैं। बकुल के फूलों की सुगन्धी अपने चरम पर है और गन्धमादन से बह कर आती अनिल संग मिल कर उषाकाल में श्वसन तंत्र अपने अधीन कर दिलोदिमाग तक को मदहोश कर जाती है। बकुल के नन्हे नन्हे सफेद पीले चक्राकार फूल सघन गहरे हरे चिकने पत्तों के मध्य छिप कर अपनी सुगन्धी इस प्रकार फैलाते हैं कि अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि महक आ कहाँ से रही है। अब यदि आप श्वास खींचते, गर्दन ऊँची किए सुगंध का उद्गम खोजते फिरोगे तो इसे नहीं पा सकोगे और थक कर गर्दन नीची करने पर यह अचानक प्रस्तुत हो जाएगा, माटी और दूब से गलबहियाँ करता। इस युग में भी भला कोई बगैर नजर में आए सुगन्धी फैलाता है क्या! पर लगता है कि ये मधुगंधा अब भी कोयल की कूक में अपने मदन देव को पहचान, उनके कांधों पर चढा स्वरविहीन सुगन्धबाण छोड़ रहा है। हे मधुगन्धा धन्य हो तुम! अपने प्रकृति प्रदत्त कर्म का निर्वहन करने के लिए। बकुल यानी मौलश्री का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना इस धरती का, बल्कि सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में तो ' भूर्जज्ञ उत्तान पदो...' कह कर पृथ्वी को भी वृक्ष से उत्पन्न हुई बताया गया है। दूसरी ओर इन्ही वेदों में वृक्षों को पृथ्वी की संतति कहा गया है। मुझे लगता है कि जीवन चक्र या फिर ब्रह्माण्डीय चक्र का इससे बेहतरीन उदाहरण नहीं हो सकता। जहाँ सब कुछ चक्राकार हो वहाँ 'पहले कौन' सवाल करना अर्थहीन हो जाता है। आर्यावर्त की आरण्यक संस्कृति में आयुर्वेद की रसविद्या में बकुल को शिववल्लरी कहा गया है। जिस शिव ने मन्मथ को अपने क्रोध से राख बना दिया उसी शिव ने उन्ही के बाण पर विराजमान नन्हे पुष्प को अपना नाम भी दिया और अपने ह्रदय में स्थान भी। और यह लघुकाय अपनी सुगंध से एक ओर तो पार्वती को मोहित करता रहा और दूसरी ओर गन्धमादन पर्वत से पम्पासर वन को पार कर अशोक वाटिका तक राम और सीता के मध्य सुगन्ध-सेतु बनता रहा। और तो और इस नन्हे केसव का प्रताप इतना कि द्वापर में यमुना के तट पर कदम्ब का सखा बना गोपियों को अपनी शिधुगन्ध (ईख और गुड़ से बनी मदिरा की गन्ध) से मदहोश करता रहा। कितने सटीक नाम रखना जानते थे न हमारे वैदिक निघन्टुकार! मनमोहक और अर्थपूर्ण। एक ही वनस्पति के अनेकों नाम, सब पृथक पृथक रस-रूप-गुण के आधार पर। नाम अनेक होने पर भी एक माला में ऐसे गुंथे हुए से लगते हैं कि सिरा पकड़ो और घूम फिर कर फिर वहीं पहुँच जाओ। जैसे विष्णु को पकड़ो और शिव राम हनुमान कृष्ण तक पहुँच जाओ जो फिर विष्णु को हाथ थमा देंगे और इनके मध्य में गुंथे होंगे अनगिनत सुर यक्ष किन्नर गन्धर्व और भी जाने कितने ही। इस छतरीनुमा सघन वृक्ष की छाँव में जब कृष्ण बंसी बजाते तो बंसी के सुरों पर बैठ नन्हे पुष्पों की सुगंध राधा संग गोपियों के रोम रोम से भीतर उतर उन्हें मदहोश कर देती। मदहोश राधा और गोपियों को तो छोड़ आए कान्ह! उद्दव के ज्ञान की नोक पर। लेकिन बकुल कहाँ छूटने वाला था! वो तो जैसे कंदर्प के गज पर सवार हुआ मदमस्त चाल से चलता और अपना सम्मोहन बिखेरता इंद्रप्रस्थ तक चला आया और कृष्ण सखी कृष्णा को सम्मोहित करता उनके उधान में स्थान पा गया। उधर गोपियाँ विरह में आँसू बहाती और अपने बिछौनों में कुम्हलाए सूखे फूलों को भर जैसे कान्हा का संस्पर्श पा जातीं। कुम्हला कर भी तुम्हारी सौरभ ने कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा। फिर चाहे तुम सूर्यताप से कुम्हलाए हो या विरह ताप से। और तुम्हारी पत्तियों की दुर्दम जिजीविषा तो ऐसी कि सूर्यताप हो, हिमोपल वेग हो या फिर झंझानिल इन्होंने तो हताश होना सीखा ही नहीं। ये तो सारी परीक्षाएँ उत्तीर्ण करती हुईं सदा हरियल ही बनी रही और भरी जेठ की दुपहरियों में भी ठंडे पानी के छींटे देती रहीं। तुम ताप को सुवास में बदल देने का हुनर रखते हो क्या! मैने तो देखा है ताप को लावे में बदलते हुए। पीढ़ियों को भस्म होते हुए। तुम्हारे सुवासित मायाजाल से यक्षिणियाँ भी नहीं बच पाईं और बकुल तुम बड़भागी बने यक्षिणीयों के अंगों से दोहद संचार के। तुम यक्ष यक्षिणीयों का हाथ थामे कालिदास के ह्रदय में ऐसे उतरे कि कुमारसम्भव से लेकर मेघदूत तक कुरबक, अशोक और लोध का हाथ थामें, प्रेम और विरह की अद्भुत अभिव्यक्ति के गवाह बने। हे कामिनियों की मुखमदिरा से सुवासित होकर खिलने वाले केशर! हे मेघों के आश्रय मौलश्री! हे कंदर्प के शर की शान बकुल! ज्योतिष शास्त्र में वर्णित तुम्हारे मंगलगान को सुन कर जाने कितनी ही कुमारी कन्याओं ने अपने मांगलिक दोष का शमन करने के लिए तुम्हारी जड़ों को सींचा है और न जाने कितने हाथों ने पाप नाश की कामना लिए तुम्हे रोपा है और कितनो ने ही अपनी दन्तपक्तियों को चमकाने और मजबूत करने के लिए तुम्हारे रस के कुल्ले किए हैं। अनेकों युगचक्रों से तुम अपने सहचरों समेत मानव जाति की अन्तहीन कामनाओं की पूर्ति के साधन बन रहे हो। लेकिन क्या तुम अब भी सुरुपिणियों के अंगों के स्पर्श से पुष्पित पल्लवित होते हो? मैने तो देखा है तुम्हे पवित्रमना पंछियों और गिलहरियों के साथ खिलखिलाते हुए। उनके स्पर्श से महकते हुए और अपने पके हुए पीले फल उन्हें अर्पित करते हुए। तितलियों को आकर्षित करते हुए। और वो नन्हीं गोरैया! कितनी आश्वस्त होकर अपना नीड अपने बच्चे तुम्हें सौंप देती है और तुम्हारी सघन शाखाएं उपशाखाएँ उन्हें सीने में दुबका कर सारी बुरी नजरों से बचा लेती है। लेकिन जब उद्यानों में तुम्हारे काट छांट कर बना दिए गए बौने रूप को देखती हूँ तो मन द्रवित हो उठता है। तुम्हारी नसों में बहते प्रेमरस के प्रवाह को जबरन रोक दिया जाता है और मनुष्य की नयनतृप्ति के लिए तुम पुष्पोद्गम और दोहद से वंचित रह जाते हो। तब मन कह उठता है काश तुम जंगल में ही जन्मे होते, और मानव भी जंगली ही बना रहता। कुबुद्धि से बुद्धिहीन ज्यादा अच्छा। बुद्धि का विकास गलत दिशा में होने का परिणाम ही तो भुगत रहा है न मानव। एक समय था जब तुम्हारी लाल चिकनी मजबूत लकड़ी कंदर्प के धनुष की नाह बनी जिसके वक्ष पर बैठे बाणों ने तीनो लोकों में प्रेम का संचार किया। तुम्हारी लकड़ी के चिकनेपन और मजबूती को तो इस युग के मानव ने भी पहचाना और उसे अपने कांधों पर जगह भी दी लेकिन अफसोस! तुम्हारे वक्ष पर बैठ प्रेम बाण नहीं मृत्यु बाण चला रहा है वह बन्दूक बना कर। तुम तो अपनी यात्रा में अपने अनगिनत सहचर पादपों के साथ वहीँ खड़े हो अपना सुवासित प्रेम बाँटते। अपने धर्म के मार्ग पर अडिग। ब्रह्माण्डीय नियमों के पथ पर। लेकिन मानव! मानव भटक गया है अपनी यात्रा में। इंद्रियाधीन हो स्वधर्म को भूल बैठा है और अपनी ही जडों को काट रहा है। आज सूरदास की एक पंक्ति याद आ रही है- ' मेरे हरि हारिल की लकड़ी ' वर्तमान में तो लगता है मानव को, तुम्हे तुम्हारे सहचरों समेत, हारिल की लकड़ी समान पकड़े रहना होगा तभी वह बचा पायेगा प्रेम सुगन्धी को, धरा को और स्वंय को। प्रिय बकुल! प्रिय केसव! पथ से भटके मानव को हाथ पकड़ फिर से मार्ग दिखा दो न! उसे अपना सहचर बना यात्रा में शामिल कर लो न! |
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