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महारानी

अपूर्वा अनित्या

सका नाम ही महारानी था, सारा गाँव उसे महारानी बऊ बुलाता था। बऊ माने माँ। पुराने समय में बुन्देलखण्डी अपनी माँ को बऊ ही बुलाते थे।

एक तरह से वो इस गाँव में पैदा होने वाले हर बच्चे की माँ थी।

दाई माँ। जन्म देने वाली माँ के बाद दाई माँ की ही ज़रूरत हर बच्चे को सबसे ज़्यादा होती थी। आजकल व्यवस्था बदल गई है। वरना दाई के बगैर काम न चलता था। जीवनदायिनी घुट्टी बना कर पिलाने से लेकर, बच्चे की हड्डियाँ मजबूत करने वाली मालिश और हारी-बीमारी में देखभाल तक, हर काम में दाई की पुकार होती। महारानी हर बच्चे पर अपने बच्चे जैसा दुलार रखती।

संयुक्त परिवार था, जचगी लगी ही रहती सो महारानी भी आती रहती। कभी कभी उसके साथ उसकी नातिन भी आती। महारानी की इकलौती बेटी की मृत्यु हो गई थी, तो रचना उसके साथ रहने लगी थी। मुझसे दसेक साल बड़ी होगी। वो भी काम में उनका हाथ बँटा दिया करती।

मेरा बालमन तब ये न समझता था कि महारानी उसका नाम हो सकता है। मेरे लिए वो कहानियों की कोई महारानी थी जिसे राजा ने नाराज़ होकर कौआ हँकनी रानी की तरह त्याग दिया और महल से निष्कासित कर नाइन बन जाने की आज्ञा दी है।

जब तब मैं उसे छेड़ती रहती , “काय महारानी तुमाए महाराजा कहाँ हैं?”

“महाराजा हमें छोड़ दये, और निकर गए दूर देस ...” महारानी आसमान की ओर उंगली उठाती।

मेरा विश्वास पक्का हो जाता, हो न हो राजा इसे यहाँ छोड़कर अपने देस अपने महल वापस चला गया है।

उसकी कद काठी भी अन्य स्त्रियों के मुकाबले मजबूत थी , लंबी – चौड़ी, घड़े जैसे चिकने चेहरे वाली साँवली - सलोनी महारानी बऊ जब काँच की अठगजी धोती (मराठी स्त्रियों की भाँति लाग वाली साड़ी पहनने का तरीका यहाँ काँच कहलाता है।) का पल्लू कमर में खोंसती तो किताब की चित्रों वाली रानी लक्ष्मीबाई लगती।

नाक में अठन्नी के आकार और सितारे की आकृति वाली पुंगरिया, गले में तरह - तरह के नकली मनकों की माला और गंडे ताबीज़। नाक, ठोड़ी और माथे पर गुदे हुए गोदने उसके पूरे व्यक्तित्व को भव्य बनाते थे।

इस तरह रचना भी मेरे लिए किसी राजकुमारी से कम न थी, मैं उससे अपनी जिज्ञासा छिपा न पाती और वो भी पक्की बातूनी मेरी कल्पना की आग में अपने झूठे किस्सों का घी डालती रहती।

“अरे हमारे महल में तो जे बड़े - बड़े मोर, हिरन, तोते रहते थे। इतने बड़े और सुन्दर बाग थे कि क्या बताएँ!” रचना अपनी बड़ी – बड़ी आँखें नचाकर कहती तो मेरा मन उस बाग के मोर देखने पहुँच जाता।

जब कभी किसी काम से रचना आती तो मैं सवाल पूछ - पूछ कर उसे परेशान कर डालती।

“तो तुम्हें स्कूल नहीं जाना पड़ता था?”

“रोटी नहीं खानी पड़ती होगी न रोज़ ?”

“रोज़ नहाती थी?”

“हिरन तुमसे बात करते थे?”

“रथ में बैठकर बाज़ार जाती थी?”

रचना भी पूरे धैर्य से मेरे सवालों के जवाब देती।

“अरे काहे का स्कूल, राजकुमारी को क्या ज़रूरत पढ़ने लिखने की!”

“मैं तो नित नये पकवान खाती थी, राजा के साथ रथ में बैठकर शिकार खेलने जाती थी!”

खूब - खूब बातें बनाती थी रचना। मैं उसे कितना अच्छा और खुशकिस्मत समझती थी कि स्कूल नहीं जाना पड़ता। सच तो ये था कि वह कभी स्कूल गई ही नहीं थी। अनाज इत्यादि भी हर तीज- त्यौहार पर महारानी के बंधे हुए घरों से जाता था।

उस समय रचना की बातों पर शंका करने का मेरे पास कोई कारण न था, मेरी मीठी कल्पना में वह राजकुमारी ही थी। फिर खबर मिली कि उसका ब्याह होने वाला है।

ब्याह तब मेरे लिए बड़ी अनोखी घटना हुआ करती थी, ऊपर से एक राजकुमारी का ब्याह !

अब तो रचना ने मेरे मन में और भव्यता और दिव्यता प्राप्त कर ली थी। कहीं दूर देश में वह रहती होगी। रंगीन बगीचों और सुनहले महलों में।

फिर कुछ साल महारानी का आना- जाना कम हुआ, और आती भी थी तो अकेली। मैं भी बड़ी हो रही थी तो कई विश्वासों में अंतर करना आने लगा था, तो कभी रचना के बारे में पूछ लेती, कभी बऊ को भी अनदेखा कर देती थी।

एक दिन देखा कि महारानी, मेरी दादी के पास बैठी सुबुक - सुबुक रो रही है। कंधे झुके हुए हैं .. आँखें लाल और चेहरा गीला। दादी उसे ढांढस बंधा रही थीं।

मैं सहमकर उसे देखने लगी, कुछ - कुछ सुना, कुछ समझा, कुछ नहीं।

“पेट से थी बच्ची, पापियों ने दरवाज़ा तक बंद कर दिया। भागती कहाँ! कोठरी की दीवारों से टकराई रही होगी, जली हुई खाल जगह - जगह चिपक गई थी। जब हमें देखने मिली तो केवल पैर के तलवे रचना के थे .. बाकी सब ....” कहते - कहते वह फिर रोने लगी।

मैं डरते - झिझकते उसके पास गई तो उसने मुझे लाड़ से गोद में बैठा लिया। मैंने पूछा, “ऐसा क्यूँ किया रचना के साथ? “मेरा कलेजा मुँह को आ रहा था। तब तक जीवन - मृत्यु जैसी अनावश्यक बातें मैं समझने लगी थी।

“तुम्हारी महारानी बऊ के पास पंद्रह हजार रुपए कम पड़ गए थे ..”

मेरे सर पर हाथ फेरते हुए वह फिर रो पड़ी, और न जाने कब तक सीने से चिपटाए रहती। मुझे भी बहुत तेज़ रोना आ रहा था, मैं कसमसा कर उठ बैठी और वहाँ से भाग आई।

न जाने कितनी रातों तक वे किस्से आँखों में घूमते रहे, राजकुमारी रचना, जलती हुई रचना। उसका महल, वह कोठरी, उसका रथ, रंगीन बाग और बड़े-बड़े मोर के सपने अब डराने लगे। रचना की चीख कानों में गूंजती, कभी उसकी मीठी आवाज़।

कई साल बीते, स्कूली शिक्षा ने किस्से- कहानियों को परे धकेल दिया। वास्तविकता ने कल्पनाशीलता के पट बंद कर दिए। उच्च शिक्षा के फेरे में पड़ गाँव - घर से दूर होती गई। पड़ोसी और पुरानी सहेलियों तक से मेल-जोल कम हो गया। ऐसे में महारानी बऊ और रचना को तो स्मृति पटल से लुप्त ही हो जाना था। वृद्धावस्था के कारण उसने काम करना बंद कर दिया था। घर में नाइन भी अब दूसरी आने लगी थी।


अभी कुछ दिन पहले सूचना मिली कि महारानी बऊ नहीं रही तो फिर वे मासूम किस्से याद आ गए, वह बच्चों को लगाए जाने वाले तेल और औषधियों की महक जो उसके कपड़ों से आती रहती थी, ज़्यादा बोलने पर उसका मुझे लाड़ से झिड़क देना।

मृत्यु से परिचय अब पुराना हो चला है, लेकिन उसके बाद क्या ये अब तक नहीं पता,पर मुझे विश्वास है कि मरने के बाद महारानी अपने महल में वापस पहुंच चुकी है, रचना उसी महल में अब स्वयं हिरनी सी घूमा करती होगी। जहां रोज़ पकवान बनते हैं, जहां स्कूल नहीं जाना पड़ता। जहां ज्वाला और जलन नहीं केवल रोशनी और रंग हैं।
जहां महारानी बऊ नाम की नहीं सचमुच की महारानी है।
 

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