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संवेदना
का एक अनुष्टुप आज जब हिंसा का बाजार गर्म है, लोग एक-दूसरे का गला काटने पर उतारू हैं, संवेदनाएँ छटपटा रही हैं, दो दिलों की दूरियाँ खौफ पैदा कर रही हैं,सहृदयता फाँसी के तख्ते पर झूल रही है, कविता की स्याही सूख रही है,चेतना के स्तर में गिरावट की ओर किसी का ध्यान नहीं, मानवता के प्राण अकुला रहे हैं, तब महर्षि वाल्मीकि शिद्दत से याद आते हैं। वाल्मीकि उच्चकुल के थे या नीचवंश के, यह बहस का विषय नहीं है। वाल्मीकि ने मानवता को जन्म दिया, उसका पोषण किया। मानवता वाल्मीकि के वंश से सरोकार रखती है। वाल्मीकि पहले व्यक्ति हैं,जिन्होंने मानव हृदय के बंद कपाट खोले।संवेदनाओं को बाहर निकाला, करुणा को स्वर दिए। वैदिक कर्मकांड के बीहड़ से बाहर निकलकर वाल्मीकि ने मानवता का महाकाव्य रचा,और मनुष्य जाति को सभ्यता के नये युग में प्रवेश कराया। इतिहास के क्रम में वाल्मीकि, बुद्ध, महावीर आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु धर्म की सम्पूर्ण चेतना का रूपांतरण वाल्मीकि ने ही किया। प्राणीमात्र के प्रति संवेदनशील प्रवृत्ति ही मानवधर्म है, इतनी सी सरल बात कहने के लिये वाल्मीकि को धरती पर आना पड़ा। राम कथा का सूत्रपात संवेदना की इसी सुरंग से होता है। क्रौंचवध की घड़ी वाल्मीकि के हृदय को जाँचने-परखने की घड़ी थी। राम कथा के दारुण दु:ख को हृदय के अंतस्तल में उतारकर उसे विश्वव्यापी बना सकने की पात्रता की परीक्षा का महान् अवसर था- क्रौंचवध। इस दैवनिर्दिष्ट परीक्षा में वाल्मीकि ने अद्भुत सफलता अर्जित की। व्याध को शाप देना वाल्मीकि का लक्ष्य नहीं था। वाल्मीकि युग की छाती पर करुणा का महासागर उंडेल देना चाहते थे। विश्व के विशाल कैनवस पर वे मानव-संवेदना के रंग भरना चाहते थे। परम्परा कहती है कि जिस दिन वाल्मीकि ने तमसा नदी के किनारे क्रौंचवध देखा, और उनके भीतर लोकव्यापी तूफान उठ खड़ा हुआ, वह दिन अश्विन शुक्ल पूर्णिमा का दिन था।इसीलिए यह दिन वाल्मीकि का जन्मदिन माना जाता है। यह दिन सभ्यता के उज्ज्वल इतिहास का दिन है। लोकजीवन में कविता के उतर आने का पहला दिन। आह से उपजे गान और आँखों से चुपचाप बहने वाली कविता की मार्मिक पुकार का दिन। यह दिन काव्यकारों के लिये जलसे का दिन होना चाहिए। यह दिन मानव अधिकार नहीं, प्राणी-अधिकारों के प्रति सचेत होने का दिन होना चाहिए। वाल्मीकि पहले एक निरीह पक्षी की ओर से लड़ते हैं, फिर लड़ते हैं सीता की ओर से। वे लड़ते हैं अन्याय और आतंक के विरुद्ध। लेकिन बाहर युद्ध के मैदान में नहीं, अपने भीतर हृदय के विशाल फलक पर। अश्रु जब हथियार डाल देते हैं, तब शब्द उठ खड़े होते हैं। अश्रु पीछे खड़े रहते हैं, शब्द आगे निकल जाते हैं। वाल्मीकि का जन्मदिन शब्द के उत्सर्ग का भी दिन है। यह काममोहित संसार के पाँव में चुभे हुए काँटों को निकालने का दिन है। यह दिन है विरहाकुल क्रौंची के करुण क्रंदन को वैश्व करुणा के महागीत में रूपान्तरित करने का। वाल्मीकि हैं, तो हमारा जातीय इतिहास है। वाल्मीकि हैं, तो हमारी सभ्यता का कोई भविष्य है। वाल्मीकि नहीं, तो फिर राम नहीं, सीता नहीं, हमारी सांस्कृतिक विरासत भी नहीं।राम कथा हमें सदियों से रुलाती रही है, और हमारी चेतना का प्रक्षालन करती रही है। वाल्मीकि कहते हैं -मनुष्य योनि में आते हो तो निष्ठुर न बनो। यदि तुम्हारी संवेदनाएँ मर चुकीं, तो तुम जीवित कैसे कहला सकते हो।यदि मानव जाति का अभ्युदय चाहते हो तो बुद्धि के फेर में न पड़ो, हृदय से काम लो। वाल्मीकि की पताका लेकर आगे बढ़ने वालों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। वाल्मीकि का ही झंडा वेदव्यास ने उठाया।कालिदास ,अश्वघोष, भवभूति, रैदास,तुलसीदास , महात्मा गांधी से लेकर मानवीय संवेदनाओं के पक्ष में खड़ी हुई असंख्य जातियाँ वाल्मीकि का ध्वज उठाए हुए हैं। वेदोत्तरयुग का यह क्रांतिकारी पुरुष, जिसने राम की कसौटी पर लोकचरित्र को कस कर देखा, नित्य स्मरणीय है। कौन जाने, वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के सफहों पर छाई हुई वे अरण्यावलियाँ, वे मूक पर्वत, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी, नदियाँ, झरने आज भी वाल्मीकि की ही संवेदना का समवेत गान कर रहे हों। विश्वास नहीं होता, कहीं तो है संवेदनाओं का एक अनुष्टुप। |
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