मैं किसान हूँ
मनुष्य
की प्रथम आवश्यकता भोजन है । अन्न से ही इस प्रयोजन की संपूर्ति होती है और
हम अन्न के आदिप्रबंधक हैं । अन्न ही प्राण हैं और अन्न का सातत्य हमारा
परमर् कत्तव्य है । मनुष्य के सभी उद्यमों का आधार अन्न ही हैं और जीवन
पर्यन्त अन्न संरक्षण का सौभाग्य हमारे नाम ही अंकित है । कुछ लोग हमें
किसान कहते हैं और कुछ लोग कृषक । किन्तु जब कोई हमें क्षेत्रज्ञ कहकर
पुकारता है,
तो सच कहें,
हमारा माथा गर्वोन्नत हो उठता है । जानना चाहेंगे-क्यों
?
क्षेत्रज्ञ में क्षेत्र अर्थात् धरती या प्रकृति का अभिनंदन भी हमारे स्मरण
के पूर्व हो जाता है । हम धरती की प्र्रिय संतान हैं और मातृ-वंदना हमारा
प्रथम ध्येय । क्षेत्र है तो क्षेत्रज्ञ है । क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का
संयोग ही सृष्टि का संदर्भ है :
यावत्संजायते किंचित्सत्वं स्थावर जंगम
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ संयोगात्तद्विद्वि भरतर्षभ । (श्रीमद्भगवद्गीता
13/26)
विष्णु भी क्षेत्रज्ञ हैं,
क्षेत्रज्ञों के मुखिया । वे संसार- बीज के संपोषक हैं । संसार का बीजारोपण
कर उन्होंने तो निर्गुण रूप धारण कर लिया । हम आज भी सगुण हैं । द्वापर में
जब वे फिर से धरती पर आये,
तो हलधर के भाई बनकर । गोपाल बनकर । जंगल-जंगल गायें चराकर उन्होंने
कृषक-धर्म से नाता जोड़ा । घनघोर वर्षा के त्राहि-काल में गोर्वधन पर्वत उठा
कर उन्होंने ही कृषकों-ग्वालों की रक्षा की थी ।
वेदों में सीता को खेती की देवी माना गया है । सीता लांगल-पध्दति को कहते
हैं । नैषध चरित्र में कृषि -वैभव की धात्री सीता को पृथ्वी -पुत्री की
प्रतिष्ठा अर्जित है। अर्थशास्त्र की नजरों में हम सीताध्यक्ष कहलाते हैं ।
राम शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ हल जोतना भी है । कृषि कार्य से जुड़ाव
में मात्र उदर-पूर्ति का अर्थ नहीं,
इसमें हमारा परमार्थ भी निहित है । परमार्थ वही कर सकता है,
जो अपनी बुनियादी संस्कृति पर विश्वास बनाये रखे । देश-काल-परिस्थिति के
थपेड़ों में भी न निराश हो,
और न ही क्षुब्ध। यही असल धार्मिकता है । हमारी कर्मठता का रस-स्रोत भी यही
है ।
हम पिछड़े नहीं,
कृषि-सभ्यता के प्रवर्तक हैं हम । सनातन संस्कृति के उन्नायक भी हमीं हैं ।
हम प्रकृति के संविधान के गायक हैं । हमें भली भाँति याद है-धरती और बीज के
अपरिहार्य संबंध को मानव ने जिस दिन समझा,उस
दिन धरती पर नयी सभ्यता का जन्म हुआ । हम उस मानव की संतान हैं । हमारे
पूर्वजों ने ही दुनिया को यायावरी संत्रासों से मुक्ति का मंत्र दिया ।
जंगल खेत बन गये । खेत बने तो गाँव बस गये । धरती माँ बन गई-माता भूमि:
पुत्रोऽहं पृथिव्या: । प्रकृति पूजनीय हो गई और समाज वरेण्य। मेघ,
वायु,
अग्नि ,सूर्य
और चन्द्रमा देवता बन गये । पहली बार परिवार,
जाति,
समाज,
राज्य का माहात्म्य छंदित होने लगा । संपूर्ण परिवेश के साथ मनुष्य का एक
रागात्मक संबंध स्थापित हो गया । सर्वथा उजली एवं नई सम्यता की संपुष्टि
अन्न से होने लगी । जीवन के सभी कोणों में अन्न की निरामिष सत्ता को
सार्वभौमिक स्वीकृति मिली ।
धरती के पहले सम्राट महाराज पृथु से हमारा अटूट नाता है । कहते हैं,
तब धरती बड़ी ऊबड़-खाबड़ थी । एक बार जब कल्पवृक्षों के फल समाप्त हो गये,
तो लोग-बाग भूख से व्याकुल होकर पृथु के पास जा पहुँचे । पृथु ने धरती को
समतल करवाकर खेती का सूत्रपात किया,
गाँव,
कस्बे,
नगर,
घोष (अहीरों की बस्ती) बसाये । उसी समय से धरती पृथु के नाम से पृथ्वी
कहलाने लगी । पुराकथाओं में पृथ्वी-दोहन-प्रसंग में इसका रोचक वर्णन मिलता
है ।
हमारा जन्म शहर के किसी गहन चिकित्सा कक्ष के मखमली माहौल में कब होता है?
सावन की फुहार या बैशाख की जलती हवा या फिर पौष की कँपकँपाती शीत-लहर के
बीच किसी मेड़ पर,
किसी वृक्ष के नीचे या ज्यादा हुआ तो खेतों से घिरे किसी झोपड़ीनुमा घर में
हमारी पहली किलकारी गूँजती है । गाय-बैल-बकरी,
सुग्गा -मैना -पंड़ुक,
चीटीं-तिलचट्टा-फफूंदी हमारे अवतरण के गवाह बनते हैं । वहाँ कोई फॉरेन
रिटर्न डॉक्टर,
नर्स,
मेडवाइफ,
और बधाई देने वाले हितचिंतक कहाँ हुआ करते हैं । हमारी दादी चाहते हुए भी
पड़ोस में मिठाई नहीं बाँट पाती है । फिर भी गाँव -बिरादरी है कि संपूर्णत:
पुलकित हो उठता है । धरती की सेवा के लिए एक और बेटा या बेटी जो उन्हें मिल
जाती है ।
खेत-खलिहान हमारा क्र्रीडांगण बन जाता है । यहीं गिल्ली-डंडा,
गोबर- गुच्ची,
छू-छू माथेल खेलते-खेलते जाने कब और कैसे हमारा बचपन चुक जाता है। हम
ढोर-डगरों के पीछे-पीछे भागने लगते हैं । पाठशाला की किताबें देखी-अदेखी रह
जाती हैं । सपनों के पाठों का दम बस्तों में ही घुट जाता है । हम सारे
सखा-सहेली एक दिन फिर उसी खेत पे मेड़ पर पहुँच जाते हैं,
जहाँ पहले ठीक हमारी उम्र में हमारे माता-पिता अपने माता-पिता के साथ पहुँच
गये थे । मेड़ पर पाँव एक बार थम जाते हैं । मन कलप उठता है । पिताजी फिर भी
गुरेरते नहीं । वे जानते हैं,
उनका अनुभव उन्हें विश्वास दिलाता है । भीतर से आवाज गूँजती है-तुम्हारे
ऑंसू ही सबकी मुस्कान हैं । तुम्हारे रूठ जाने से लक्ष्मी रूठ जायेगी और
लक्ष्मी के रूठ जाने से सारी की सारी दुनिया भूखी रह जायेगी । ऐसे वक्त
कारे-कजरारे मेघ,
मेढ़कों की टेर,
मटासी माटी की गंध,
पास के जंगल से खेत पर उतर आये मोर की इन्द्रधनुषी पाँखें मुझे घेरने लगती
हैं । मेरी प्रकृति आखिरकार मुझे राजी करा लेती है । मेले से खरीदा हुआ और
गले पर लहराता साफा सिर की पगड़ी बन जाता है । बमुश्किल घुटनों तक पहुँचती
धोती की किनारी कमर तक सिकुड़ जाती है । एक और बेटा समूचे संसार के त्राण का
संकल्प लेकर खेत पर उतर पड़ता है ।
हल ही हमारी कलम है,
जिससे हम खेत की रचना करते हैं । बंजर पृष्ठों पर लहलहाती फसलें रचनात्मकता
का प्रतीक बन जाती हैं,
जिसका वैभव देखकर समूचा गाँव लहस उठता है । गलियों से चौपाल तक झूम उठते
हैं । लोक के अंतस्थल में बैठे आलोचक पर कृतित्व के रंग,
गंध,ध्वनि
का ऐसा जादुई असर होता है कि वह सब कुछ भूल बैठता है । उसे याद रहता है तो
केवल पसीने का गीत,
साधना का छंद । हमारी साधना सबकी आराधना बन जाती है । वह निष्कर्ष दे देता
है-उत्तम खेती मध्यम बान,
कठिन चाकरी भीख निदान ।
हम न होते तो अन्न कहाँ होता । चटोरी जीभ को स्वाद की पहचान कहाँ होती।
मनुष्य का सारा ज्ञान,
समूचा विज्ञान पंगु होता । वह भूखा रहता या पानी पी-पीकर ईश्वर को कोसता
रहता । हम हैं तो ईश्वर हमारे कोसने से बचा हुआ है । बिभुक्षित: किम् न
करोति पापं । एक हमारे बिना सभ्यता भटक जाती,
संस्कार अटक जाते और संस्कृति जहाँ की तहाँ सटक जाती । अन्नाद्भूतानि
जायंते जातान्यन्नेन वर्धन्ते । हमारे श्रम की गंगा-जमुना जल से उत्पन्न
अन्न से ही सब उत्पन्न होते हैं तथा जीवित रहते हैं । हमारे पसीने से रस
पाकर उपजे अन्न से वीर्य बनता है और उससे संतानोत्पत्ति होती है। अन्न से
तन ही नहीं,
मन भी बनता है-जैसे खाये अन्न तैसे होय मन ।
पढ़े-लिखे नये जमाने के लोगों की ऑंखों में भी जब अपने चित्र को असभ्य,अनाड़ी,अनपढ़,
गँवार और मूरख रंगों में पाते हैं,
तो हमें उनके गुरुओं पर भी तरस आता है । यह प्रकृति से निरन्तर दूर होती
शिक्षा की विकृति है । अप्रकृति ही विकृति है । हम उनके निए अन्नदाता नहीं,
अन्न उत्पादक हैं । अन्न उत्पादक भी नहीं,
व्यावसायिक विकल्प रहित मजबूर देहाती । उनकी बाजारु ऑंखे हमें देखकर ऐसे
चमकती हैं,
जैसे हम कोई अकेले घायल पखेरु हों और वे बाज ।
हम निरक्षर हैं तो क्या
?
हम धरती,बीज
और प्रकृति के संबंध के प्रत्यक्ष द्रष्टा हैं । अन्न या अनाज की उपलब्धता
धरती की एकान्तिक प्रकिया नहीं,
वह प्रकृति की संपूर्ण प्रक्रिया है । हम अकेले नहीं,
टूटे हुए नहीं,
बिखरे हुए नहीं । वह देखिए हमारा परिवार-बेटा खुर्रा जोत रहा है,
बेटी चिड़िया उड़ा रही है,
ननद और भावज बन निंद रहीं हैं,
बाबू क्यारी बना रहे हैं,
माँ धनिया बो रही है,
देवर-भाभी पानी पला रहे हैं,
काका सिला बिन रहे हैं,
काकी सरसों फटक रहीं है । और इधर देखिए -कोई गाय दुह रहा है,
कोई सानी बना रहा है,
कोई चारा काट रहा है ।
हमारा प्रत्येक अनुष्ठान जुताई,
बुवाई,
सिंचाई,
निंदाई,
कटाई,
रहाई और गहाई कृषि विज्ञान का मूल है । प्रकृति ही हमारी प्रयोग-शाला है
;
अनुभव ही शास्त्र है,
ज्ञान है। हमारे पास कोई उपग्रह नहीं तो क्या । हमें वनस्पतिशास्त्र के
सिध्दांतों की परख नहीं तो क्या?
हम मौसमविज्ञान की भाषा नहीं जानते तो भी क्या । हमने वर्षा की संभावना को
पढ़ने के लिए दिशा,
वायु,
तिथि,
वार,
नक्षत्र,
सूरज,
चाँद,
मेघ,
पशु-पक्षी,
कृमि-सरीसृप,
वृक्ष-वनस्पतियों की उस लिपि को सीखा है,
समझा है जो प्रकृति के सुनहरे फलक पर मुद्रित है । इस लिपि को पढ़ लीजिए बस
! प्रकृति का सत्य स्वत: अनावृत होने लगेगा। प्रकृति में सब कुछ अविच्छिन्न
है । सबका सबसे अन्यान्य संबंध है- सर्र्वं सवर्ेन भावितम्। ठंडी-ठंडी
पुरवा चले तो वर्षा अवश्य होगी । चैत में पछइयाँ बहने का मतलब भादो में
बारिश । तीतरपंखी बादल उड़ने से वर्षा सुनिश्चित । ईशान कोण का बादल गरजा,
समझो वर्षा । जेठ कृष्ण पंचमी को आधी रात बादल गड़गड़ाये यानी सूखा और अकाल ।
उदित अगस्त पंथ महि सोखा । गौरेया धूल में नहाये तो वर्षा,
पानी में नहाये तो अकाल की संभावना । चैत की चमक का सीधा संकेत आम बौरों का
अंत-
उत्तर चमके बीजुरी पूरब बहनो बाउ
घाघ कहें भड्डर से बरसा भीतर लाउ ।
चमके पश्चिम उत्तर ओर
तब जानो पानी है जोर
हमें किसी कृषिवैज्ञानिक ने नहीं सिखाया कि ज्येष्ठ में धान,
मूँग,
अरहर,
मक्का,
बाजरा बोओ ! हम किस कृषि-अधिकारी से पढ़े हैं कि उड़द,
ककड़ी,
खरबूज,
टिंडा,
तरोई,
कटहल,
आम आषाढ़ में फलने लगेगा । गेहँ,
चना,
जौ,
गाजर,
मूली,
सरसों,
धनिया,
आलू बोने का समय पुँ आर -कातिक ही है । हम निरक्षर होकर भी अपना काम बखूबी
जानते हैं । क्या हमारे बाप-दादाओं ने इसे आकाशवाणी या दूरदर्शन के चौपाल
से ही जाना था
?
नहीं ना !
खेत हमारे तीर्थ हैं और अन्न हमारे आराध्य । नीम,
महुआ,
चार,
इमली,
बबूल,
सरई,
ऑंवला हमारे जीवन-देवता हैं । अन्न हमारी जिनगानी के साधन हैं और साध्य भी
। शायद हम ही हैं,
जिसका कर्म ही धर्म है । हम भूमिपुत्रों का कर्म और धर्म को पृथक्-पृथक्
संज्ञा से पहचानना असंभव है । अन्न की अवमानना होते देख हमारा मन बिलख उठता
है । लगता है जैसे उतना ही लहू हमारा व्यर्थ बह गया । लगता है,
जैसे हमारी उतनी ही साधना अकारज हो गई । हमारे मन को दोयम मानने की नई
सभ्यता भले ही चारों ओर पाँव पसार रही हो । भले ही विश्व-बाजार के डंकल
जैसेर् धूत्त व्यापारी हमारे सर्वस्व को डकार जाने की कोशिश कर रहे हों ।
भले ही हमें फिर से होरी बना देने की कुटिल चालें चली जा रही हों । अन्न की
ऊर्जा जब तक हमारे अंग-प्रत्यंग में दौड़ती रहेगी,
ऐसी हर-हरकत नाकाम होंगी ।
बीते दिनों का वह दु:स्वप्न भूले नहीं भुलाता । बड़की नोनी के लिए बड़ी
मुश्किल से वर मिल सका था । धान और बचे-खुचे जेवर बेचने पर भी व्यवस्था
पूरी नहीं हो पा रही थी । जमींदार रुपयों की जुगाड़ के लिए राजी था,
पर जमीन वह गिरवी पर नहीं,
बल्कि खरीद लेने की कब से घात लगाये बैठा था । मरता क्या न करता ! घर का
बड़ा खेत औने-बोने में बिक गया । छोटे-मोटे खेत-खार से आखिर कितनी फसल आती ।
फसल कटते ही तकाबी वसूलने तहसील के नायब साहब पलटन के साथ गाँव आ धमके ।
किसान के रोने-धोने का असर भला सरकार पर कब पड़ता है । सब कुछ फोकला हो गया
। पाँच साल के बाद गाड़ी पटरी पर आ पाई थी,
पर दादा जी को खेत बिक जाने का जो सदमा लगा,
उससे वे उबर नहीं पाये,
कुछ ही मास बाद चल बसे । उनकी भरपाई कभी हो सकेगी
?
शायद नहीं ।
दिन भर की हाड़ -तोड़ मेहनत के बाद रात को सोने से पहले कभी-कभी मन पूछता है-
न भावना के खरोचों की दवा,
न प्रोत्साहन की खाद और न ही सहानुभूति का अनुदान । फिर भी हो कि बाप-दादा
क ी नाक के लिए खेत की कीचड़ में सड़े जा रहे हो। क्षणभर के लिए संकल्प से
भविष्य उजियार दीखने लगता है -सच ही तो है । क्यों न सब कुछ बेच-बाचकर शहर
में कोई नया धंधा डाल दिया जाय । जाने कब अंतर्द्वंद्व को परास्त कर नींद
अपने गोद में ले लेती है । अभी चौथा पहर आधी यात्रा पूर्ण नहीं कर सका है,
पर चिड़ियों की पाँखें खुजलाने की आवाज के साथ ही नींद खुल जाती है । समय
जानने के लिए अलसायी ऑंखें आसमान में टिमटिमाते शुकवा तारा ढूँढ़ने लगती हैं
। भोर होने ही वाला है । न जाने क्यों लगता है -खेत पुकार रहे हैं । धान की
बालियों के रंग अपनी ओर खींच रहे हैं । माटी की सोंधी-सोंधी गंध नथुने
महसूस रही हैं । पाँव खेत की ओर स्वयमेव बढ़ते चले जा रहे हैं ।
जयप्रकाश मानस
अगस्त 1, 2006
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