मीडिया के लिए हॉट केक - बिहार

बढ़ती बाजारवादी संस्कृति में मीडिया के लिए बिहार खास खबर बन गया है। प्रदेश से लोगों के पलायन और अपराध की घटनाओं में बढोत्तरी ने राष्ट्रीय मीडिया को मसाला दिया। और मीडिया ने भी इसे बेचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही वजह है कि पिछले दो दशकों से देशभर में राज्य की छवि नकारात्मक रूप से ही सामने उभरी है। बिहार की इमेज को राष्ट्रीय मीडिया ने हॉट केक की तरह प्रयोग करते हुए अराजकता और लालू को खूब बेचा, बल्कि बेचने का सिलसिला जारी है। ऐसा नहीं है कि जो बिहार में होता है वह दूसरे राज्यों में नहीं होता हो। रंगदारी बिहार, मुंबई, पूर्वोत्तर के करीब हर राज्यों और अन्य राज्य में भी मांगी जाती है, नहीं देने पर हत्याएं भी होती हंै। लेकिन मीडिया खासतौर से टीवी चैनलें, बिहार पर विशेष मेहरबान हैं तभी तो यहंा की छोटी सी छोटी खबर को सनसनी, चटपटी और मसालेदार बना कर बेचने तथा बदनाम करने का काम कर रही हैं। जाहिर है इस बाजारवादी संस्कृति में जो बिकता है वही चलता है। बिहार की नकारात्मक छवि बिक रही है।
बिहार में बढते अपराध, हत्या, अपहरण आदि से जुडी खबरों को तरजीह देते हुए मीडिया बढ़-चढ़ कर प्रकाशित और प्रसारित करती हैं। नकारात्मक छवि को जिस तरह से दिखाया जाता है, उसी तरह से य
हां के सकारात्मकता को दिखाने या छापने की वे जहमत नहीं करते है। बिहार की जो वास्तविक तस्वीर है वह मीडिया में ठीक से नहीं आ रही है। और जो खबरें आ रही है उसमें बाजारवाद की बू आती है। यहां अनाज, सब्जी और दूध आदि का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है। मधुबनी पेंटिंग व भागलपुरी सिल्क आदि विश्वविख्यात हैं। यहंा के युवाओं ने देश भर में अपने बल-बूते पर इंजीनियरिंग, मेडिकल, अध्यापन, पत्रकारिता और सरकारी-निजी नौकरियों जैसे हर क्षेत्र में जगह बनायी है। जहंा तक अपराध की बात है तो शायद ही कोई ऐसा राज्य हो जहंा अपराध नहीं होता हो ? महिलाओं को लेकर दिल्ली कितनी सुरक्षित है ? यह सब जानते हैं। बिहार में दिल्ली की तरह महिलाओं के साथ कुछ नहीं होता वैसे अपराध और अपराधी किसी राज्य ,जाति और जगह के नहीं होते। अपराध और अपराधी से देश के अन्य लोग ही नहीं बल्कि बिहार में रहने वाला हर व्यक्ति भी प्रभावित होता है।
मीडिया बिहार की नकारात्मक तस्वीर को इतने विभत्स ढंग से प्रोजेक्ट कर चुका है कि उसे ठीक करने में दशक लग जायेगे। लेकिन इसका खामियाजा आम बिहारी को झेलना पड़ता हैै। खास कर बिहार से बाहर, दिल्ली आदि जगहों में ' बिहारी ` शब्द गाली बन गयी है। जिसे किस मानसिकता के साथ प्रचारित किया गया है, कहा नहीं जा सकता। दबे कुचले मेहनतकश मजदूरों को देख ओए बिहारी कहने वाले शायद यह नहीं जानते कि उनके राज्य में भी मजदूर ऐसे ही रहते है ? एक बार मेरे मित्र की पत्नी बस से जेएनयू जा रही थी बस में कई मजदूर भी सवार थे जब बस सरोजनी नगर पहुंची कंडक्टर ने चिल्ला कर कहा सभी बिहारी उतर जा । मित्र की पत्नी कंडक्टर के पास गई और कहीं भैया पैसे वापस करना ? कंडक्टर ने कहा आप तो आगे जाओगे। उन्होने कहा अभी तो आपने कहा बिहारी सब उतर जा। मैं भी बिहारी हूं। कंडक्टर ने कहा आप बिहारी कैसे हो सकती है ? बाद में बस वाले ने माफी मांगी। यह दंश हर बिहारी को झेलना पड़ता है।
गौरतलब है कि बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित राष्ट््रीय और स्थानीय सभी अखबारों में सबसे ज्यादा अपराध, सेक्स और राजनैजिक खबरें ही प्रकाशित होती हैं। एक अखबार एक दिन में अपराध की औसतन २२ खबरें छापता है। साथ ही सेक्स की खबरों को तरजीह दी जाती है। कई राष्ट्रीय पत्रिकाएं बिहार पर परिशिष्ट निकालती हैं उनमें भी यह सब देखने को मिलता है। हाल ही में दिल्ली में बिहार की कुूछ महिलाओं को सेक्स रैकेट के तहत गिरफ्तार किया गया था। दिल्ली ही नहीं पटना के तमाम पत्रों ने इसे फोटो सहित प्रमुखता से प्रथम पेज पर छापा, जबकि अन्य जगहों पर आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं को अंदर के पेज पर छापा जाता है।
राष्ट्रीय मीडिया की तर्ज पर अपराध, अराजकता और लालू को स्थानीय मीडिया ने खूब बेचा, बल्कि यह सिलसिला जारी है। केवल नकारात्मक खबरों को प्रकाशित व प्रसारित कर बिहार को आइटम बना कर बेचा जा रहा है। अन्य राज्यों में घटने वाली आम और छोटी- मोटी खबरों को खासकर अपराध से जुड़ी खबरों को, राष्ट््रीय मीडिया में खास तरजीह नहीं दी जाती, लेकिन बिहार में घटने वाली छोटी से छोटी खबर को इस तरह प्रोजेक्ट किया जाता है, जैसे घटना से पूरा प्रदेश ही नहीं, देश हिल गया हो !
दुर्भाग्य की बात यह है कि बिहारी मीडिया, अपराधी से छुटभैया नेता बनने वाले या फिर एक अपराधी के मरने या गिरफ्तार होने की खबर को प्रमुखता के साथ ऐसे प्रोजेक्ट करते हैं, जैसे कोई महान नेता हो ! एकाध अखबार ही अपराधी की सही तस्वीर पाठकों के सामने लाने की हिम्मत जुटा पाता है। यह काम अंग्रजी अखबार ज्यादा करते हैं, हालांकि उनका भी नजरिया बदला है और जो खबर अंदर के पेजों पर छपते थे वे आज मुख्य पृष्ठ पर छपने लगे हैं। आपराधिक छवि वाले नेताओ की हत्या और उससे जुड़ी खबरों को बिहार के अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से छापा जाता है और मरने वाले नेता-अपराधी का जमकर गुणगान होता है।
बिहार को व्यंग्य के रूप में पेश करने वाली मीडिया को यह नहीं दिखता है कि बिहार में एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय, केंद्रीय
अस्पताल, आईआईटी और कल-कारखना नहीं है। विकास का नहीं होना, पुलिस की नाक के नीचे अपराध करने वाले अपराधियों का गठजोड़ उन्हें नहीं दिखता है। बिहार बंटवारे के बाद तो य
हां कहावत ही बन गयी कि बिहार को आलू, लालू और बालू के भरोसे छोड़ दिया गया। जिस राज्य की राजनीति से देश की राजनैतिक घूरी घूमे, केंद्र सरकार में कई मंत्री हो, वहां विकास न हो और उस पर व्यग्ंय हो तो यह बहुत बड़ी विडंबना है। लेकिन मीडिया को इससे क्या लेना देना उसे तो बस जेल में नेता-अपराधी के पास से मोबाइल फोन मिलने, हत्या और बलात्कार की खबर को नेशनल हुकप पर मसालेदार ढंग से देने में मजा आता है। टी वी चैनल वाले तो सभी हदों को पार कर देते है, अपराधी और बलात्कारी की तस्वीर को बार बार दिखा कर उन्हें हीरो बना देते है। राज्य स्तरीय खबर को राष्ट्रीय स्तर पर दिखाने की जबरिया कोशिश की जाती हैं। हालंाकि इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है कि खबर तो खबर है। लेकिन नेता-अपराधी मरते है तो खबर बनती है वहीं गांव में कालाजार से लोग मरते है तो खबर नहीं बन पाती है। बल्कि ऐसी खबरें कई दिनों के बाद नजर आती है।
भूमण्डलीयकरण और उदारवाद के बढ़ते दौर में पत्र व पत्रकारिता का व्यवसायिक नजरिया और टें्रड दोनों ही बदल गया है। झोला और दाढ़ी छाप वाले पत्रकारों की जगह आधुनिक सुविधा से लैस पत्रकारों ने ले ली है। वहीं अखबारें भी बढती व्यवसायिक स्पर्द्धा के कारण पाठकों को रिझाने के लिए चटपटी और मसालेदार खबरों को तरजीह दे रही हैं। यही वजह है कि राष्ट्रीय और बिहार के अखबारों में अपराध, सेक्स आदि की खबरें अधिक मात्रा में छप रही है। जहंा तक विकासमूलक खबर की बात है तो उससे अखबारों को कोई लेना देना नहीं रह गया है। बिहार की जो तस्वीर है वह मीडिया में ठीक से नहीं आ रही है। और जो खबरें आ रही है उसमें बाजारवाद की बू आती है।


जेपी आंदोलन से जुडे रहे चर्चित कवि बाबूलाल मधुकर कहते हैं कि पत्रकारिता जगत में आज संजय की निष्पक्ष भूमिका गौण हो चुकी है। इसके लिए वे पत्रकारिता को भी दोषी ठहराते हुए कहते हैं कि आज पत्रकार सुविधाभोगी और यशस्वी बनना चाहता है। उनके अंदर का संघर्ष और चिंतनशीलता खत्म हो चुकी है। चर्चित साहित्कार परेश सिन्हा कहते है आज बाजारवाद के दौर में अपराध बिक रहा है, विकास नहीं। अत: अखबार विकास की कम और अपराध की खबरें ज्यादा छापते हैं। बदहाल बिहार के विकास के नाम पर सभी ने अपनी-अपनी रोटियां ही सेंकी हैं।
वहीं भ्रष्ट व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी है कि विकास से जुड़ी कोई भी योजना सही ढंग से आम और सुदूर गा्रमीण क्षेत्रों में, अंतिम कतार में खड़े लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। और लोकतंत्र का चौथा खम्भा यानी मीडिया अपनी वॉच डॉग की भूमिका पूरी ईमानदारी से नहीं निभा पा रही है। बिहार की पत्रकारिता में राज्य की समस्याओं का गहराई से विश्लेषण या फिर उन्हें मुद्दा बनाने का तेवर नहीं के बराबर दिखता है। साथ ही इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि बिहार का नाम आते ही लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं, जैसे कोई महामारी हो। आंकडे बताते है कि अन्य राज्यों के मुकाबले में यह कई मामलों में फिसड्डी है। समय समय पर देश का प्रमुख मीडिया घराना भी आंकड़ों के मायाजाल में उलक्षा कर बिहार को बेचने का प्रयास करता रहता है। मजेदार बात यह है इस पर विवाद दिल्ली में किया जाता है बिहार में नहीं। जबकि बिहार की प्रखरता को वह जानते है मकसद साफ रहता है, बिहार को बेचना ।
बिहार को लेकर जो नजरिया बनता या दिखाया जा रहा है उससे साफ जाहिर है कि बाहरी लोग इतनी जल्दी अपनी धारणा को बदल नहीं सकते। लेकिन इस पर गहन चिंतन तो कर सकते है ? आखिर क्या वजह है कि इसकी दिशा व दशा बदलने में कोई आगे नहीं आता। खुद मीडिया य
हां के नकारात्मक हालात को तो दिखाता है लेकिन सकारात्मक बातों को गोल कर जाता है।
पिछड़ापन तो मीडिया को दिखता है लेकिन अन्य राज्यों की तुलना में बिहार को दी जाने वाली केंद्रीय राशि के आवंटन / सहायता नहीं दिखती है। समय-समय पर देश की जानी मानी संस्थाएं राज्यों की स्थिति का जायजा अपने रिर्पोटों में लेती रहती हैं। बिहार के एक अखबार ने बिहार विशेषांक के माध्यम से यहंा की बदहाल तस्वीर को एक सर्वे संस्था की मदद से उजागर कर, बिहार की तकदीर को बदलने का दंभ भरने वाले तमाम राजनेताओं, राजनैतिक पार्टियों, समाजिक संगठनों और अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने रखा, ताकि इसे देख बिहार के हालात को बदलने के लिए कुछ कारगर पहल कर सकें।
लगभग सवा आठ करोड़ आबादी वाले बिहार में लगभग ८० प्रतिशत जनता गांवों में रहती है। खेती से उत्पादन साधारणतया सिंचाई की उपलब्धता और बारिश पर आधारित है। प्रत्येक साल बिहार में बाढ़-सुखाढ़ से किसानों की कमर टूट जाती है। यही नहीं य
हां काम नहीं पाने वालों की संख्या पूरे देश की तुलना में सर्वाधिक है। तुलनात्मक अध्ययन से साफ होता है कि बिहार में ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है जिन्हें पूर्ण रोजगार मिला हो। यही वजह है कि यहां के लोगों पर दबाव ज्यादा है।
उड़ीसा और झारखंड़ में बिहार के मुकाबले ज्यादा गरीबी है। फिर भी बिहार का अखिल भारतीय औसत काफी ज्यादा हैं। बिहार में हर पांच व्यक्तियों में से दो व्यक्ति अपनी बुनियादी जरूरत को पूरा कर पाने में असक्षम है। हालांकि चौंकाने वाला तथ्य यह है कि बिहार में दो जून का खाना नसीब नहीं होने वाले परिवारों की संख्या अपेक्षाकृत झारखंड़, उड़ीसा, प ब़ंगाल, छत्तीसगढ़ से कम है। वही
बिहार में साक्षरता दर अपेक्षाकृत बहुत कम है। फिर भी य
हां लोगों में खबरों को लेकर जानने की जागरूकता अन्य राज्यों से ज्यादा है। शायद इसकी वजह यहां की राजनैतिक प्रखरता है जो हर छोटी से छोटी खबर पर अपनी नजर गडाये रहता है।
हां तक बिहार में कृषि का सवाल है तो यहां स्थित ठीक ठाक है। यहंा मानसून की अच्छी वर्षा लगभग हो ही जाती है।अगर यहां सिंचाई को पंजाब की तरह कर दिया जाये तो कृषि के क्षेत्र में बिहार सभी राज्यों को पीछे छोड़ देगा। दूसरी ओर बिहार को बदनामी के शिखर पर पहुंचाने में कानून व्यवस्था की बड़ी भूमिका रही है। फिर भी कुल संज्ञेय अपराधों में हत्या और महिलाओं के साथ यौन शोषण के मामलों में बिहार का प्रतिशत अन्य राज्यों से कम है। हालांकि बिहार में कुल अपराध आमतौर पर देश के अन्य राज्यों की तुलना में औसतन ज्यादा है।
बिहार में शिशु मृत्यु दर अखिल भारतीय औसत के मुकाबले काफी कम है। बिहार में गरीबी और शौचालय की खराब व्यवस्था होने के बावजूद शिशु मृत्यु दर कम होना जाहिर करता है कि लोगों में इसे लेकर काफी जागरूकता है। इससे स्पष्ट है कि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में शिशुओं की बेहतर देखभाल के लिए बेहतर तरीके का इस्तेमाल होता है। स्थानीय स्तर पर प्रदेश भर के ब्लॉकों में इंदिरा आवास योजना, ग्रामीण विकास योजना , स्वास्थ्य से जुड़ी योजना और अन्य योजना कार्यो में घोटालों की कमी नहीं रहती है, फिर भी स्थानीय और राज्य की राजधानी से प्रकाशित होने वाले अखबारों में इन्हें स्थान दिया भी जाता है तो अंदर के पृष्ठों पर, वह भी सीमित मात्रा में। देश को प्रथम राष्ट््रपति देने वाले राज्य की इतनी उपेक्षा की गई है जिसका अंदाजा खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के दौरे के क्रम में ही पता चल पाता है। जहां जन सुविधाएं यहां हर स्तर पर नदारत मिलती है।
बिहार के मामले में संवेदना और मानवीय मूल्यों से छेड़-छाड़ राष्ट्रीय और बिहार के पत्रों की नियति बनती जा रही है। आज महसूस की जा रही है कि बिहार में पुराने दौर की पत्रकारिता पुन: लौटे यानी रविवार, दिनमान, जनमत, नवभारत टाइम्स, पाटलिपुत्र टाइम्स आदि की जो बिहार की संवेदना और यहंा की पीड़ा को समझे और बिहार की सही तस्वीर पेश करें।

संजय कुमार
अगस्त 1, 2006

 

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