अनुवाद हमें राष्ट्रीय ही नहीं,अन्तर्राष्ट्रीय
भी बनाता है
अनुवाद-कर्म राष्ट्रसेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो दो संस्कृतियों,
राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच 'सेतु` का काम करता है। और तो और यह
अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहाद,र् सौमनस्य
एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्माकता एवं वैश्वीकरण की
भावनाओं से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक,
मध्यस्थ, संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी।
कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि
अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं- ''अनुवाद एक भाषा
का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी
दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए- - -।`` (साहित्यानुवाद:
संवाद और संवेदना, डा० आरसू पृ० ८५) भाषा के आविष्कार के बाद जब
मनुष्य-समाज का विकास -विस्तार होता चला गया और सम्पर्कों एवं आदान-प्रदान
की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, तो अनुवाद ने
जन्म लिया । प्रारम्भ में अनुवाद की परंपरा निश्चित रूप से मौखिक ही रही
होगी । इतिहास साक्षी है कि प्राचीनकाल में जब एक राजा दूसरे राजा पर
आक्रमण करने को निकलता था, तब अपने साथ ऐसे लोगों को भी साथ लेकर चलता था
जो दुभाषिए का काम करते थे । यह अनुवाद का आदिम रूप था ।
साहित्यिक-गतिविधि के रूप में अनुवाद को बहुत बाद में महत्त्व मिला । दरअसल,
अनुवाद के शलाका-पुरुष वे यात्री रहे हैं, जिन्होंने देशाटन के निमित्त
विभिन्न देशों की यात्राऍं कीं और जहां-जहां वे गये, वहां-वहांकी भाषाएं
सीखकर उन्होंने वहॉं के श्रेष्ठ ग्रंथों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद
किया । चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फाहियान नामक एक चीनी यात्री
ने २५ वर्षों तक भारत में रहकर संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य,
इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि का अध्ययन किया और अनेक ग्रंथों
की प्रतिलिपियां तैयार कीं । चीन लौटकर उसने इनमें से कई ग्रंथों का चीनी
में अनुवाद किया । कहा जाता है कि चीन में अनुवादकार्य को राज्य द्वारा
प्रश्रय दिया जाता था तथा पूर्ण धार्मिक विधि-विधान के साथ अनुवाद किया जाता
था । संस्कृत के चीनी अनुवाद जापान में छठी-सातवीं शताब्दी में पहुंचे और
जापानी में भी उनका अनुवाद हुआ ।
प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंजिलें तय की हैं । यह सच है कि
आधुनिककाल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है । मगर, यह भी उतना
ही सत्य है कि अनुवाद की आवश्यकता हर युग में, हर काल में तथा हर स्थान पर
अनुभव की जाती रही है। विश्व में द्रुतगति से हो रहे विज्ञान और तकनॉलजी तथा
साहित्य, धर्म-दर्शन, अर्थशास्त्र आदि ज्ञान-विज्ञानों में विकास ने अनुवाद
की आश्वयकता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है ।
आज देश के सामने यह प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है कि बहुभाषओं वाले इस देश की
साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर को कैसे अक्षुण्ण रखा जाए ? देशवासी एक-दूसरे
के निकट आकर आपसी मेलजोल और भाई-चारे की भावनाओं को कैसे आत्मसात् करें ?
वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि देशवासियों के बीच
सांमजस्य और सद्भाव की भावनाऍं विकसित हों ताकि प्रत्यक्ष विविधता के होते
हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक समानता एंव सौहार्दता के दर्शन कर अनकेता में
एकता की संकल्पना को मूर्त्त रूप प्रदान कर सकें । भाषायी सद्भावना इस दिशा
में एक महती भूमिका अदा कर सकती है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का
माहौल बने, वे एक-दूसरे से भावनात्मक स्तर पर जुड़ें और उनमें पारस्परिक
आदान-प्रदान का संकल्प दृढ़तर हो, यही भारत की भाषायी सद्भावना का मूलमंत्र
है। इस पुनीत एवं महान् कार्य के लिए सम्पर्क भाषा हिन्दी के विशेष योगदान
को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह भाषा है जो सम्पूर्ण देश को एकसूत्र में
जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को साकार कर सकती है। स्वामी
दयानन्द ने ठीक ही कहा था, ''हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एकसूत्र में
पिरोया जा सकता है।`` यहॉं पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी को ही
भाषायी सद्भावना की संवाहिका क्यों स्वीकार किया जाए ? कारण स्पष्ट है।
हिन्दी आज एक बहुत बड़े भू-भाग की भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या
अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की तुलना में सर्वाधिक है। लगभग ५० करोड़ व्यक्ति
यह भाषा बोलते हैं। इसके अलावा अभिव्यक्ति, रचना-कौशल, सरलता-सुगमता एंव
लोकप्रियता की दृष्टि से भी वह एक प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर चुकी है
और उत्तरोत्तर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। अत: देश की भाषायी
सद्भावना एवं एकात्माकता के लिए हिन्दी भाषा के बहुमूल्य महत्त्व को हमें
स्वीकार करना होगा।
भाषायी सद्भावना की जब हम बात करते हैं तो 'अनुवाद` की तरफ हमारा ध्यान जाना
स्वभाविक है। दरअसल, अनुवाद वह साधन है जो'भाषायी सद्भावना` की अवधारणा को
न केवल पुष्ट करता है अपितु भारतीय साहित्य एवं अस्मिता को गति प्रदान करने
वाला एक सशक्त और आधारभूत माध्यम है। यह एक ऐसा अभिनन्दनीय कार्य है जो
भारतीय साहित्य की अवधारणा से हमें परिचित कराता है तथा हमें सच्चे अर्थों
में भारतीय बना क्षेत्रीय संकीर्णताओं एंव परिसीमाओं से ऊपर उठाकर 'भारतीयता`
से साक्षात्कार कराता है। देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के दर्शन
अनुवाद से ही संभव हैं। आज यदि सुब्रह्मण्य भारती ,
महाश्वेता देवी, उमाशंकर जोशी , विजयदान देथा, कुमारन् आशान् , वल्लत्तोल,
ललद्यद, हब्बाखातून, सीताकान्त माहापात्र, टैगोर आदि भारतीय भाषाओं के इन
यशस्वी लेखकों की रचनाऍं अनुवाद के ज़रिए हम तक नहीं पहुंचती, तो भारतीय
साहित्य सम्बन्धी हमारा ज्ञान कितना सीमित,कितना क्षुद्र होता, इसका सहज ही
अनुमान लगाया जा सकता है।
पूर्व में कहा जा चुका है कि विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी
देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस
आवश्यकता की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद
वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि,
तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें
वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ० जी० गोपीनाथन लिखते
हैं- 'भारत जैसे बहुभाषा -भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है।
भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को
निखारने (दर्शन करने) के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह
अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को
ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।`
आने वाली शताब्दी अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी होगी और सम्प्रेषण के
नये-नये माध्यमों व आविष्कारों से वैश्वीकरण के नित्य नए क्षितिज उद्घाटित
हांेगे । इस सारी प्रक्रिया में अनुवाद की महती भूमिका होगी । इससे ''वसुधैव
कुटुम्बकम्`` की उपनिषदीय अवधारणा साकार होगी । इस दृष्टि से
सम्प्रेषण-व्यापार के उन्नायक के रूप में अनुवादक एवं अनुवाद की भूमिका
निर्विवाद रूप से अति महत्त्वूपर्ण सिद्ध होती है ।
डा० शिबन कृष्ण रैणा
अगस्त 15, 2006
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