प्रेमचन्द की प्रासंगिकता

आज प्रेमचन्द-साहित्य की प्रासंगिकता और उपादेयता तथा अन्य अनेक सन्दर्भों को लेकर प्रेमचन्द-साहित्य विवाद का विषय बना हुआ है. यदि प्रेमचन्द को प्रासंगिक मानने वालों की एक लम्बी सूची है, तो उन्हें अप्रासंगिक सिध्द करने वालों की भी कमी नहीं.

'' प्रेमचन्द मानव की मानवता का उद्धाटन करते हैं, उसकी जिन्दगी की हकीकतों से हमारा साक्षात्कार कराते हैं. समाज में बढ रहे उत्पीडन, अन्याय और शोषण के विरूध्द आवाज उठाते हैं उनकी समसामयिकता और प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लगाना बेमानी है.''

प्रेमचन्द के पूर्व की उपन्यास परम्परा में बालकृष्ण भट्ट, श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह, गोपालराम गहमरी,गौरी दत्त, किशोरीलाल गोस्वामी, देवकीनन्दन खत्री आदि रचनाकारों ने विविध विषयों पर उपन्यासों की रचना की. इन रचनाकारों में कोई तिलस्मी और ऐयारी गाथा लिखकर अपनी कल्पना शक्ति का परिचय देता था, तो कोई जासूसी और साहसिक उपन्यासों की रचना में मशगूल था और कोई रीतिकाल के प्रभाव में आकर प्रेम और रोमांस को अपनी कथावस्तु का विषय बनाकर पाठकों का सरस मनोरंजन करता था.

प्रेमचन्द के पूर्व उर्दू उपन्यासकारों में हैदरी, निहालचन्द लाहौरी, मज़हर अली खां, मिर्जा रजब, रतननाथ सरशार, शरर और मुहम्मद हादी रूसवा आदि उपन्यासकार हुए, जिनमें कोई कल्पना की उडान भरता था, तो कोई जमीन पर पैर रखकर चलता था. कोई किस्सा लैला-मजनूं और किस्सा हातिम ताई का बयां करता तो कोई इस्लाम और अरब की ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर मुसलमानों की सभ्यता और संस्कृति का विश्लेषण करता था. समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के पूर्व उपन्यास परम्परा में रचनाकार स्वप्न देखता था और मनमाना तिलस्म बांधता था. उसके कथा साहित्य का जीवन से कोई विशेष सरोकार न होकर मात्र मनोरंजन से था. ऐसी स्थिति में प्रेमचन्द ने साहित्य को जीवन से जोडा और उसे एक नई दिशा दी. उन्होंने उपन्यास को मनोरंजन के क्षेत्र से निकाल कर तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक समस्याओं से सम्बध्द किया.

प्रश्न यह है कि आज उनका साहित्य प्रासंगिक है या इसे इतिहास के पेट में डाल देना चाहिए अथवा वह काल और परिवेश की सीमा में बध्द होकर तारीखी और बासी हो गया है. हम यह मानते हैं कि साहित्य निश्चय ही प्रासंगिक है; लेकिन कल भी इतना ही प्रासंगिक रहेगा, यह नहीं कहा जा सकता. तुलसीदास आज अप्रासंगिक हैं, यह कहना कठिन है. लेकिन क्या प्रेमचन्द और तुलसीदास की प्रासंगिकता एक जैसी है? यदि नहीं, तो इसका कारण, काल और परिवेश है. तुलसीदास के समय की जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक समस्याएं थीं, उनमें बदलाव आ चुका है. लेकिन प्रेमचन्द के युग की जो समस्याएं थीं, वे आज बहुत नहीं बदलीं. सामाजिक व्यवस्था, उसकी विसंगतियां और अन्तर्विरोध आज भी ज्यों के त्यों अपने विकराल रूप में विद्यमान हैं. फिर प्रेमचन्द की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न कैसा?

जो प्रेमचन्द की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं, उनसे पूछा जा सकता है कि क्या आज कमलाचरण (वरदान) अपने धनवान बाप की सम्पत्ति का नाजायज उपयोग करता नहीं दीख पडता? क्या आज महन्त रामदास (सेवासदन) नहीं है, जो 'श्री बांके बिहारी' के नाम पर समाज का शोषण करता है, हत्या करवाता है, मन्दिरों में वेश्यावृत्ति करवाता है और रामनामी दुपट्टा ओढक़र वासनामयी दृष्टि से महिलाओं को देखता है? क्या आज ज्वालासिंह मजिस्ट्रेट (प्रेमाश्रम) के चपरासी गांव वालों से बेगार नहीं वसूल करते? क्या आज ज्ञानशंकर (प्रेमाश्रम) जीवित नहीं हैं, जो सम्पत्ति और जायदाद के लालच में विधवा गायत्री पर डोरे डालता है, भक्ति का छद्म वेष दिखलाता है, अपने भाई से इस कारण चिन्तित रहता है कि वह पिता की सारी सम्पत्तिा के आधे का हकदार है. वह अपनी स्वार्थ सिध्दि के लिए किसी को विष भी दे सकता है? क्या आज ईमानदार, सच्चरित्र और परोपकारी प्रेमशंकर (प्रेमाश्रम) जनसेवा करते हुए नहीं दिखाई पडता? क्या आज गौस खां (प्रेमाश्रम) नहीं है, जो किसानों पर जुल्म और कहर ढाता है? क्या आज प्रत्येक दरोगा दयाशंकर (प्रेमाश्रम) का प्रतिरूप नहीं है, जो धांधली मचाते हैं, झूठे मुकदमें और अभियोग बनाते हैं और किसानों, गरीबों तथा दलितों से नाजायज मुचलके लेते हैं? क्या आज नव­यौवना पत्नी का वृध्द पति तोताराम (निर्मला) अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए वस्त्र और आभूषण लाते हुए नहीं दीख पडता और प्रसन्न न कर पाने पर निर्मूल शंकाएं नहीं करता? क्या आज सूरदास (रंगभूमि) सडक़ पर भीख मांगते हुए नहीं दीख पडता, जिसकी भूमि पर उसके विरोध करने पर भी कारखाना खुल जाता है. यही नहीं अहिंसा का अनन्य उपासक सूरदास क्या हिंसा का शिकार नहीं होता? क्या आज जनसेवक (रंगभूमि) का अभाव है; जो अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार रहता है? क्या आज मध्यवर्गी युवक रमानाथ (गबन) बिल्कुल मर चुका है, जो मिथ्या प्रदर्शन के कारण गबन करता है? क्या आज देवीदीन खटिक (गबन) नहीं है, जो स्वदेश हित अपने दो पुत्रों को गवांकर भी देश-प्रेम से अभिभूत है? क्या आज सूदखोर, मुनाफाखोर और पाखण्डी समरकान्त (कर्मभूमि) लोगों से कर्ज वसूल करते नहीं मिल जाता? क्या आज आपके आसपास अनेक सामाजिक विसंगतियाें का शिकार होकर तिल-तिल कर मरता हुआ होरी (गोदान) नहीं दिखलाई पडता? क्या आज समाज में घीसू, माधव (कफन) और हलकू (पूस की रात) जहां-तहां नहीं दिखलाई देते?

क्या आज सुमन (सेवासदन) नहीं हैं, जिसे यह समाज वेश्या बना देता है, दालमण्डी पर बैठने के लिए विवश कर देता है? क्या आज दालमण्डी आबाद नहीं है? क्या आज दहेज का भयंकर रूप देखने को नहीं मिलता? क्या आज धनाभाव के कारण निर्मला (निर्मला) का विवाह चालीस वर्षीय तोताराम से नहीं होता? क्या आज रानी जाह्न्वी (रंगभूमि) का स्वाभिमान जाग्रत नहीं है, जो समाज-सेवा करते हुए अपने पुत्र की मृत्यु पर गर्व से फूल उठती है? क्या आज सोफिया (रंगभमि) अपने प्रेमी को खो देने पर विभिन्न सामाजिक कारणों से गंगा में प्राण विसर्जन करती नहीं दीख पडती? अंधेरे से अपना नंगापन ढकने वाली सकीना (कर्मभूमि) क्या आज यह सत्य मर चुका है? क्या आज बुधिया नहीं रह गई है, तो यह मानने में तनिक भी कठिनाई नहीं हो सकती कि प्रेमचन्द अप्रासंगिक हैं. लेकिन यदि ऐसे सैकडाें, हजारों, लाखों व्यक्ति हमारे इर्द-गिर्द घूम रहे हैं, तो यह कहना कितना तर्कसंगत होगा कि प्रेमचन्द अप्रासंगिक हैं?

समाज में आज भी दहेज प्रथा के कुपरिणाम देखने को मिलते हैं, अनमेल विवाह होते हैं, पाखण्डियों के जत्थे के जत्थे घूम रहे हैं, दालमण्डी आबाद है, सच्चरित्र व्यक्तियों की दुर्गति समाज के हाथों होती है, पुलिस का जुर्म, अत्याचार और अन्याय किसी से छिपा नहीं है, रिश्वत का बाजार गर्म है, मिथ्याभाषी नेताओं की तादात प्रतिदिन बढ रही है. तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द ने जो समस्याएं उठाई थीं या जो विकृतियां उस समय समाज में थीं, वे आज भी उसी रूप में, बल्कि उससे भी अधिक विकराल रूप में दिखलाई पडती है. अर्थात् प्रेमचन्द आज और भी प्रासंगिक हैं.

प्रेमचन्द का साहित्य अपने समय, समाज और ऐतिहासिक स्थितियों से गहरे जुडा है. उसकी प्रासंगिक प्रयोजनीयता की उपेक्षा करके हम उसे अप्रासंगिक नहीं कह सकते. वे अपने काल और परिवेश से जुडे हुए लेखक हैं, इसलिए उनके साहित्य में जिस युग-बोध का आभास हमें होता है, वह आज भी परिलक्षित होता है. प्रेमचन्द ने जिस रचनात्मक चेतना से सृजन किया है, उस रचनात्मक चेतना से पाठक की चेतना भी जागृत होती है वह कुछ सोचने विचारने के लिए बाध्य हो जाता है. क्या यह प्रेमचन्द की प्रासंगिकता नहीं है?

प्रेमचन्द उन रचनाधर्मियों में है; जिन्होंने सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया. वे हिन्दी साहित्य के इतिहास में जनवादी और यथार्थवादी परम्परा तथा प्रगतिशील परंपरा के जनक भी हैं. प्रेमचन्द में चली आती हुई रूढिग़त परंपराओं से मुक्ति पाने की छटपटाहट भी एकदम स्पष्ट है, जो आज की सर्वाधिक प्रासंगिकता है. इतिहास सापेक्ष रचना ही सार्थक होती है, जिसमें अतीत-वर्तमान का द्वंद्वात्मक सम्बंध होता है. क्या ऐसा प्रेमचन्द में नहीं है?

प्रेमचन्द किसी वाद या सम्प्रदाय से बंधकर नहीं चले. प्रगतिशील चिंतक होने के कारण वे सामंतवाद विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी, शोषण विरोधी और सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष के साहित्यकार है. 'कफन' कहानी में कृषकों और जमींदारों का संघर्ष है, जो वस्तुतः परिस्थितिजन्य ही नहीं, बल्कि पंरपरागत भी है. रंगभूमि से औद्योगीकरण की समस्या को उठाया गया है. औद्योगीकरण ही नहीं बल्कि प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में वर्तमान समाज के सब स्वरों को उधेडक़र सामने रख दिया है. वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद की झूठी आदर्शोन्मुखता का ही पर्दा नहीं उठाते, वरन् पूंजीपति, उद्योग संचालक, जमींदार असहाय जनता के होने वाले संघर्ष का यथार्थ रूप भी दिखलाते हैं. ग्रामीण और सामंतशाही का संघर्ष कायाकल्प में भी देखा जा सकता हे. इसी प्रकार कर्मभूमि में राजनीतिक जीवन के आन्दोलनों के चित्रण के साथ ही सामाजिक रूढियों और परंपराओं के विरोध के संघर्ष का भी चित्रण किया गया है.गोदान केवल कृषक जीवन का महाकाव्य ही नहीं है; अपितु सामाजिक शोषण का भी अद्वितीय दस्तावेज है. साम्प्रदायिक सद्भाव पंच परमेश्वरकी रचना की प्रमुख समस्या है. मंत्र कहानी भी इसी साम्प्रदायिक समस्या का परिणाम है. गरीबी और शोषण का जीवंत चित्रण सवा सेर गेहूंऔर पूस की रातआदि कहानियों में किया गया है. इस प्रकार आज भी पूंजीवाद, जातिवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता आदि अनेक समस्याएं यथावत् विद्यमान हैं. प्रेमचन्द जिस सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति के अग्रदूत थे, वह क्रान्ति अभी अधूरी है, क्योंकि समाज आज भी उन समस्याओं से जूझ रहा है, जिनसे प्रेमचन्द का समाज जूझा करता था, उनसे उबर नहीं सका है.

प्रेमचन्द ने रूढियों और अंधविश्वासों का चिट्ठा भी हमारे सामने खोला है. उन्होंने कर्मभूमि में धार्मिक पाखण्ड का रहस्योद्धाटन किया है. एक आलोचक के शब्दों में- गोदान खुद एक अंधविश्वास है. गरीब की हाय और बलिदान आदि कहानियों में भूतों का अद्भुत चित्रण किया गया है. प्रेमचन्द साहित्य सामाजिक रूढियों और परंपराओं, अंधविश्वासों तथा टोना-टोटकों पर गहरा प्रहार करता है. यद्यपि शुरू-शुरू में प्रेमचन्द परंपराओं के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति रखते थे; लेकिन प्रतिभा और प्रौढता के विकास ने उन्हें विरोध करना सिखाया. समाज में व्याप्त विधवा विवाह के विरोध, दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, बहु विवाह, जातिवाद, छुआछूत आदि अनेक समाज को जराजीर्ण कर देने वाली परंपराओं का उन्होंने खुलकर विरोध किया. यही नहीं, विरोध के परिणाम स्वरूप उन्होंने स्वयं अपना विवाह एक बाल विधवा से ही किया.

राजनैतिक विकृतियों को लेकर लिखा गया प्रेमचन्द का कथा साहित्य आज भी बासी नहीं पडा है. सत्याग्रह कहानी में मोटेराम शास्त्री को रूपया देकर सत्याग्रह के लिए तैयार किया जाता है. वे इमरती और रसगुल्ला खाकर अनशन पर बैठते हैं, पर शाम होते ही भूख सताने लगती है. आहुति में छात्र अपने साथियों के साथ आन्दोलन में शामिल हो जाता है.कुत्सा में उन लोगों का चित्रण किया गया है जो चन्दे के रूपयों से ऐश फरमाते हैं. क्या आज ऐसा नहीं होता? फिर प्रेमचन्द को तारीखी और बासी कहना उचित नहीं प्रतीत होता.

विचारणीय प्रश्न है कि जब संयुक्त परिवार नहीं रहेंगे, विधवा समस्या हल हो जायेगी, दहेज प्रथा की संक्रामक बीमारी से छुटकारा मिल जाएगा, जातिवाद और छुआछूत का बिलकुल अन्त हो जाएगा, रूढियां, अंधविश्वास और सडी-ग़ली परंपराएं नहीं होंगी, गरीबों और दलितों का शोषण समाप्त हो जाएगा, धार्मिक पाखण्ड लुप्त हो जाएंगे, आडम्बरी साधु वस्तुतः साधु हो जाएंगे, घूसखोर अधिकारी नहीं होंगे, मिथ्याभाषी नेता द्वापर के धर्मराज बन जाएंगे और साम्प्रदायिकता समाप्त हो जाएगी, स्वार्थ और लोलुपता का अन्त हो जाएगा, दाल मण्डी उजड ज़ाएगी, अनमेल विवाह नहीं होंगे, जुल्मजोर और अत्याचार समाप्त हो जाएंगे. क्या तब भी प्रेमचन्द प्रासंगिक रहेंगे? हम थोडी देर के लिए मान लेते हैं कि जब इन समस्याओं और विकृतियों का अन्त हो जाएगा, प्रेमचन्द भी मर जाएंगे. इतने बडे सामाजिक परिमार्जन की वेदी पर तो कोई भी व्यक्ति प्रेमचन्द क्या विश्व के किसी साहित्यकार को अप्रासंगिक और निरर्थक मानने के लिए तैयार हो सकता है. किन्तु कब नौ मन तेल होगा और कब राधा नाचेगी.' साथ ही क्या प्रेमचन्द साहित्य में मात्र उपर्युक्त समस्याओं को ही उठाया गया है? क्या उसमें मानव के शाश्वत मनोभावों और मनोवृाियों- प्रेम, क्रोध,र् ईष्या, घृणा, स्वार्थ, मानव-मानव के बीच जुडने और टूटने वाले सहज सम्बंध आदि का विश्लेशण नहीं किया गया है? क्या ये मानव-मनोभाव और मनोवृत्तियां मरने वाली हैं? क्या दस-बीस वर्ष बाद इन सबका रूप बदल जाएगा? यदि नहीं तो प्रेमचन्द सदैव प्रासंगिक रहेंगे. हां, यह अलग बात है कि उनकी प्रासंगिकता और उपादेयता का सन्दर्भ बदल सकता है.

वस्तुतः मानवतावादी लेखक प्रेमचन्द का सारा कथा साहित्य यथार्थ की ठोस भूमि पर आधारित है, जो तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवेश में रचित होने के बावजूद काल और परिवेशबध्द नहीं, अपितु काल और परिवेश का अतिक्रमण कर सर्वकालिक बन गया है. आज पुनः प्रेमचन्द की आवश्यकता है.

 -डॉ0 राजकुमार सिंह
जुलाई 15 , 2005