हिन्दी और उर्दू की बीच की दूरियां.....

खाड़ी क्षेत्र, दुबई में आयोजित दूसरे हिन्दी सम्मेलन में दिया गया श्रीमती जकिया जुबैरी का भाषण -

दुबई की दूसरी पहचान हमेशा से रही है सोना। भारत और पाकिस्तान में आम आदमी यही समझता है कि दुबई में सोना, आलू और प्याज़ की तरह बिकता है। कहा यह भी जाता है कि दुबई गल्फ़ का पेरिस है। यानि दुबई बहुत सी बातों के लिये जाना जाता है, लेकिन हिन्दी साहित्य की चर्चा दुबई में हो सकती है, और वो भी अपने ही जीवन में living legend बन चुके राजेन्द्र यादव जी की उपस्थिति में - यह तो सोच के दायरे से बाहर की बात है। ज़्यादा से ज़्यादा यह एक मरीचिका (mirage) हो सकती थी। लेकिन आज मैं इस सच्चाई को देख रही हूं, महसूस कर रही हूं और उसका एक हिस्सा भी बनी हुई हूं।  

मेरा जन्म आज़मगढ़ में हुआ और मेरी मातृभाषा हिन्दी है। मुझे अपार ख़ुशी का अहसास हो रहा है कि मेरी मातृभाषा विश्व भर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है।  

कथू यू.के. एवं यू.के. हिन्दी समिति ने लंदन में हिन्दी की अलख जगा रखी है। मुझे पूरी उम्मीद है कि अब दुबई भी हिन्दी का महत्वपूर्ण केन्द्र बन जायेगा। पूर्णिमा जी ने अभिव्यक्ति एवं अनुभूति के माध्यम से शारजाह को महत्वपूर्ण बना ही रखा है। आज इंटरनेट का ज़माना है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि उनकी अभिव्यक्ति ने मेरे परिचय तेजेन्द्र शर्मा की कहानी पासपोर्ट का रंग से करवाया और उसके बाद हिन्दी साहित्य से। 

मैं कान्ता भाटिया जी, भाई कृष्ण बिहारी जी और पूरी Organising Committee को बधाई देती हूं कि इतना ख़ूबसूरत सम्मेलन दुबई में आयोजित किया जा रहा है। मैं लंदन के हिन्दी और उर्दू जगत की ओर से आप सब का स्वागत करती हूं।  

अब क्योंकि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और उर्दू मेरी ससुराल की भाषा है तो मैं लंदन में इन दोनों भाषाओं के साहित्य के बीच बढ़ती दूरियों के बारे में सोचती हूं । अधिकतर अदीबों, साहित्यकारों की बड़ी बड़ी बातें सुनती हूं अजी साहब, हिन्दी और उर्दू कोई अलग अलग ज़बाने थोड़े ही हैं....यह तो सगी बहनें हैं। दोनों ज़बानों के 75 % शब्द तो एक से ही हैं। और फिर भाषा कोई VOCABULORY से थोड़े ही बनती है। दोनों ज़बानों की ग्रामर तो एक ही है। अजी स्क्रिप्ट से क्या होता है। चाहे दोनों ज़बानों के स्क्रिप्ट अलग अलग हैं, लेकिन उनका स्वाद, रंग तो एक ही है।

लेकिन मज़ेदार बात यह है कि दोनों ज़बानों के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। भारत के विभाजन के बाद से उर्दू ज़बान फ़ारसी और अरबी के नज़दीक जाती जा रही है और हिन्दी भी आहिस्ता आहिस्ता संस्कृत बनती जा रही है। वो पुरानी गंगा-जमुनी ज़बान जो कुछ दिनों तक गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतीक बनी हुई थी, अचानक ग़ायब होती जा रही है।  

वैसे सच्चाई अगर सामने दिखाई दे रही हो तो केवल आंखें मून्द लेने से कुछ बदलने वाला नहीं। हिन्दी और उर्दू तो सदा से ही भिन्न भिन्न लिपियों में लिखी जाती थीं, यहां तो पंजाबी को लेकर बहुत ही त्रासद स्थितियां बनती जा रही हैं। आज पंजाबी भाषा भी दो हिस्सों में बंट चुकी है। एक पंजाबी है वो जो भारत में बोली जाती है और गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। वहीं दूसरी पंजाबी बोली जाती है पाकिस्तान में, जो कि उर्दू लिपि में लिखी जाती है। उर्दू लिपि वाली पंजाबी पर अब उर्दू अपना शिकंजा कसती जा रही है जब कि गुरमुखी वाली हिन्दी की शब्दावली में हिन्दी शब्द घुसपैठ कर चुके हैं। बेचारी पंजाबी की स्थिति पंजाब से कोई अलग नहीं है। पहले पंजाब के दो टुकड़े हुए और फिर तीन और। यानि कि पांच पानी एक साथ होने के स्थान पर पांच पंजाब बन गये। ठीक उसी तरह पंजाबी भी पहले दो लिपियों में बंटी, अब सरायकी बोलने वालों की लड़ाई यह बनती जा रही है कि उनकी भाषा को पंजाबी न कहा जाए। सरायकी, वास्तव में  मूलरूप से पंजाबी साहित्य की मूल भाषा है।  

तो मैं कह रही थी कि किसी भी परेशानी से मुंह फेर लेने से कुछ हासिल नहीं होता। एक ज़माना वोह भी था जब कुछ लोग कहा करते थे कि वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को दो मुल्क नहीं मानते। चार चार लड़ाइयों ने हमारी आंखें खोल दीं और समझा दिया कि सच्चाई से नज़रें चुराने से कोई लाभ नहीं होता। लगभग यही स्थिति हिन्दी और उर्दू की भी बन चुकी है। हमें अब यह discuss नहीं करना है कि दोनों ज़बानें एक हैं या दो। हमें विचार इस बात पर करना है कि इन दोनों भाषाओं के साहित्य, साहित्यकारों एवं पाठकों के बीच जो खाई बढ़ती जा रही है, उसको पाटा कैसे जाये।  

बहुत आसान है कह देना कि हिन्दी वालों को उर्दू लिपि सीखनी चाहिये और उर्दू वालों को हिन्दी लिपि सीखनी चाहिये। क्या यह इतना ही आसान है ? हैं और भी ग़म ज़माने में ज़बान सीखने के अलावा। आज जब कि हिन्दी बेल्ट के लोग हिन्दी सीखने को तैयार नहीं हैं और उर्दू तो जैसे बेमौत मरती जा रही है, क्या यह आवश्यक नहीं कि हम कुछ तो ऐसा सोचें जिस से दोनों अदबों के पाठकों को एक दूसरे के क्षेत्र में लिखे जा रहे अदब का लुत्फ़ मिल सके।

 

इसके लिये ज़रूरी होगा कि nostalgia को छोड़ते हुए इन ज़बानों को दो अलग अलग ज़बान मान लिया जाये और इनके बीच की दरार को पाटने का प्रयास किया जाये।

 

जयपुर से एक पत्रिका निकलती है शेष। उस पत्रिका की विशेषता है कि उसमें केवल उर्दू साहित्य प्रकाशित होता है किन्तु देवनागरी लिपि में। हमें ऐसी और बहुत सी पत्रिकाएं निकालनी होंगी जिनमें या तो हिन्दी साहित्य उर्दू लिपि में छपता हो या फिर शेष की ही तरह उर्दू साहित्य देवनागरी में छपे। वैसे अगर दोनों साहित्य एक साथ भी छपें तो भी कोई समस्या नहीं है।  

कथा यू.के. लंदन में कथा गोष्ठियां करवाती है। जिसमें एक उर्दू, एक हिन्दी और एक पंजाबी का लेखक आ कर अपनी कहानियां पढ़ते हैं और कार्यक्रम में शिरकत करने वाले लोग उन कहानियों पर तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। पिछले सात सालों कथा यू.के. द्वारा शुरू की गयी यह गोष्ठियां लंदन में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। श्री तेजेन्द्र शर्मा का यह काम एक बहुत ही सकारात्मक यानि कि positive step है। कैसर तमक़ीन, सफ़िया सिद्दीकि, फ़हीम अख़तर, शाहिदा अहमद जैसे उर्दू लेखकों के अतिरिक्त उनमें हिन्दी के लगभग सभी लेखक भाग ले चुके हैं।

 

हम ने कल प्रेमचन्द की कहानी बड़े भाई साहब का मंचन देखा। ठीक इसी तरह तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों श्वेत श्याम एवं अभिशप्त का मंचन लंदन में किया जा चुका है। इन कार्यक्रमों में हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों के लेखक और पाठक उपस्थित थे। यह एक बहुत ही सफल तरीका है जिसमें कहानी और नाटक दोनों का मज़ा मिलता है और कहानी पढ़ाने के बजाए दिखाई जाती है।  

एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स ने पिछले वर्ष तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों का उर्दू में अनुवाद करवा कर पुस्तक का बड़े स्तर पर विमोचन किया जिसमें हिन्दी और उर्दू के करीब अढ़ाई सौ पाठकों एवं लेखकों ने शिरकत की। इस साल हम उर्दू के छ : लेखकों की 12 कहानियों का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद करवा कर पुस्तक प्रकाशित करवा रहे हैं। कथा यू.के. इसमें हमारी साझेदार है। यह गतिविधियां बड़े स्तर पर भारत और पाकिस्तान में होनी चाहियें। अधिक से अधिक पुस्तकों का अनुवाद होना चाहिये। हमें गुटबंदियों से ऊपर उठना होगा और सच्चे मन से यह काम करना होगा।  

जब ईंटों का जंगल तेजेन्द्र शर्मा के कहानी संग्रह का विमोचन हो रहा था तो बालूजी श्रीवास्तव, जो कि भारतीय संगीत के विशेषज्ञ हैं और जिनकी आंखें नहीं हैं, ने कहा कि ज़किया जी हम जैसे लोग यह कहानियां कैसे पढ़ पायेंगे, हम तो कोई भी भाषा नहीं पढ़ सकते। उनके जवाब में हमने उन कहानियों की एक ऑडियो सी.डी. बनवा दी है। अब लिपि की कोई समस्या नहीं है। बस कहानियां सुनिये और साहित्य का आनंद उठाइये।  

दूरियां मिटाई जा सकती हैं, समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं ज़रूरत है तो सिर्फ़ सच्चे मन से समस्य से निपटने की। मुझे पूरी उम्मीद है कि राजेन्द्र यादव जी की संस्था अक्षर प्रकाशन एव हंस पत्रिका इसमें बहुत बड़ी सहायता कर सकती है। शुरूआत तो इस बात से की जा सकती है कि हंस के हर अंक में उर्दू के किसी समकालीन कहानीकार की कहानी का अनुवाद छपे। भारत और पाकिस्तान में उर्दू के अच्छे कहानीकार मौजूद हैं।  

ऐसी उर्दू पत्रिकाएं ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं होगा जो हिन्दी कहानियों का अनुवाद अपने यहां छापेंगे। - धन्यवाद।

ज़किया ज़ुबैरी
फर
वरी 9, 2007

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