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नारीवादी आन्दोलन पर एक नारीवादी का अर्न्तमंथन कुछ देर ठहर कर अर्न्तमंथन करने का समय कब होता है? जब सारी विरोधी ताकतें हमारे खिलाफ खड़ी हो जाएं, जब हमारे सारे प्रयास विफल हो जाएं और हमें सारे रास्ते बंद दिखाई देने लगें तब, या फिर उस समय जब हमारा सफर बहुत लम्बा चला हो फिर भी हम अपने आप को उसी जगह खड़ा हुआ पाएं, जब हमारी पहल और मुहिम की प्रशंसा सब जगह हो रही हो पर कोई परिवर्तन साफ साफ न दिखाई दे, जब हम और हमारे संगठन पुरस्कृत और आदरणीय हो चुके हों पर हम खुद महसूस करें कि समाज अपने रास्ते चल रहा है और हमारा संगठन अपने रास्ते, और हमारा मन उद्विग्न हो कर पूछने लगे कि क्या हमारे सफर की मंजिल यही थी क्या हमारा हासिल यही था ? नारीवादी आन्दोलन के साथ पिछले बीस वर्षों से जुड़ कर काम करते हुए, विगत छ: सात सालों से मुझे यह महसूस हो रहा है कि वह समय अब आ गया है जब अपना और अपने काम का अर्न्तमंथन किया जाना चाहिए । यों तो अपने कार्यक्रमों और अपनी रणनीतियों के साथ-साथ अपनी नीतियों , मान्यताओं और आदर्शों पर भी विचार और पुनर्विचार करना एक सतत् प्रक्रिया है, परन्तु अपने पूरे सफर पर एक विहंगम दृष्टि डाल कर, विस्तृत और गहन रूप से अपने आपको और अपने काम को पूरी ईमानदारी से आलोचनात्मक दृष्टि से देखना इस प्रक्रिया से कहीं ज्यादा ज़रूरी है। ''नारी संगठित नहीं है। जहां पुरूषों के समूह हैं-मजदूर संगठन, मिल मालिकों की एसोसिएशन, किसान यूनियन, टेम्पो रिक्षा चालक यूनियन, पंडितों मठाधीशों के मठ, मुल्ला मौलवियों के पर्सनल लॉ बोर्ड, पान की दुकानों पर झुण्ड, काफी हाउस की बैठकवाजी, ढाबों के सामने पड़ी चारपाइयों पर पड़े रहने वालों की टोलियां, फुटबाल, वॉलीबाल खेलने वालों के समूह या हर बात पर हिंसात्मक प्रतिरोध करने वाले दिशाहीन युवकों के दल, वहीं औरत अकेली है। अपने घर, अपने आंगन, अपने चूल्हे चौके, अपनी चहार दीवारी के भीतर सीमित। एक एक आदमी के अधीन एक एक औरत। पुरूष के घर की रूढ़ परम्पराओं को चिन्तनहीन होकर बिना प्रश्न पूछे, आगे बढ़ाती हुई। मर्दों के तृष्टीकरण के लिए कन्या भ्रूण हत्या, दहेज के लिए बहू दहन जैसे जघन्य और घूंघट, परदा, रोकटोक जैसे तुच्छ लेकिन हिंसालू मर्दवादी अपराधों में सह अपराधिनी बनती हुई। ( मर्दों के वंष और संतति को आगे बढ़ाती हुई ) ''औरत का कोई समूह नहीं, कोई मंच कोई संगठन, कोई फोरम नहीं जहां पर विचार विनिमय हो, चिन्तन हो और वे दूसरी औरतों के साथ स्वतन्त्र तथा व्यक्तिगत रूप से जुड़ सके। परिवारों में होने वाले मुंडनों, कनछेदनों, सगाइयों, शादियों, कथा कीर्तनों, देवी मां के जागरणों और मजहबी अजुंमनों में फलाने की दुलहिन, और ढिमकाने की बहू बीवी बन कर जाने के अलावा ऐसी कोई जगह नहीं जहां वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सके। इसलिए उसका स्थान बनाया जाय, इसका समय निकाला जाय।'' इसी विचार को हम सब बारबार दोहराते रहे और इसी विचार के आधार पर औरतें आज वह सफर तय कर रही है जिसे हम नारीवादी आन्दोलन का सफर कह रहे हैं। इसमें अनेक सपने और उम्मीदें हैं, काफी उत्साह है और अनेक सफलताएं भी। इस सफर में भले ही बहुसंख्यक औरतें शामिल न हों, पर बहुत सारी औरतें इसमें शामिल हैं। और इस बात की थोड़ी बहुत चेतना और जानकारी उनमें भी है जो शामिल नहीं हुई, जो शामिल नहीं हो पाईं या जिन्होंने शामिल नहीं होना चाहा। हमारा यह अर्न्तमंथन इन छूटी हुई या शामिल न हो पाने वाली औरतों के बारे में नहीं है। हम समूह में, आन्दोलन में, संगठनों में शामिल औरतों की चर्चा करना चाहते हैं।
'' अपने अकेलेपन और एकान्त से बाहर निकलो, आओ, समूह बनाओ-अपना समय, अपना स्थान।'' - कैसा सुखद सपना था जिसे लेकर समूह बन रहे थे। यह सत्तार और अस्सी का दशक था। फिर आया नब्बे का दशक और इक्कीसवीं शताब्दी, जिसमें प्रवेश करने का हम पिछली सदी से इन्तजार कर रहे थे। जो समूह अपने सुख , अपने दुख, अपने डर, अपनी ख्वाहिषें और अपनी आशंकाएं आपस में बांट कर एक सामूहिक श्क्ति लेकर रूढ़िवादी पित्तृसत्तात्मक, वर्गवादी, वर्णवादी व्यवस्था से भिड़ने की तैयारी कर रहा था, उसे इक्कीसवीं षताब्दी की नजर लग गई। ( आज वह समूह हर महीने दो-दो रूपए बचा कर, अगले महीने से दो प्रतिशत मासिक की ब्याज की दर से उसे कर्ज उठा कर, उसके तीन रूपए हो जाने का स्वप्न देख रहा है। ) इसी तरह हमने देखा कि संगठनों से जुड़ी औरतों की जो मुठ्ठियाँ वर्तमान परम्परावादी, रूढ़िवादी प्रतिगामी व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन के लिए हवा में लहरा रही थीं वही मुठ्ठियाँ, दलिये में मूंग की दाल मिला कर खिचड़ी पका कर आंगनवाड़ियों में बांट रही हैं। जो हाथ रैलियों में परचम उठाते थे, वही हाथ सिलाई की मशीन से, चुंगी के स्कूलों में जाने वाले बच्चों की यूनीफ़ॉर्म सी रहे हैं। नुक्कड़ नाटकों की जो टोलियाँ शोषक व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर उठाती थी, वे आज गली गली में सरकारी स्कूल में बच्चियों के दाखिले का अभियान चला रही हैं और युवाओं को एड्स की बीमारी से बचाने के लिये निरोध का इस्तेमाल करने की हिदायत दे रही हैं। यानी नुक्कड़ नाटक भी आज प्रतिरोध का नहीं बस , प्रचार का माध्यम बन कर रह गया है। नारी वादी संगठनों की जो आवाजों सड़क पर उठ रही थीं- दहेज माँग, दहेज हत्या जैसे अपराधों के विरूध्द कानून बनवाने के लिए और फिर पारिवारिक न्यायालयों और पुलिस थानों में हो रहे अन्याय और उदासीनता के खिलाफ, वही आवाजें आज फंडिंग एजेन्सियों के गिर्द, सरकारी दफ्तरों के इर्दगिर्द, सरकारी कार्यक्रमों को चलाने के लिए इम्प्लीमेंटेशन एजेंसी बनने के लिए मधुमक्खी की तरह भिनभिना रही है। नारीवादी संगठन सरकारी राज्य व तन्त्र पर निगरानी रखने वाले और उन्हेें बदलाव के लिए मजबूर करने वाले संगठनों से गिर कर सरकारी सेवा दाता बन गए। क्या यही वह मंजिल थी जिसे पाने के लिए हम संघर्ष कर रहे थे ? मेरे इस स्वर को उन अति वामपंथी दलों का स्वर समझने की भूल न करें, जो इस सम्पूर्ण व्यवस्था को पूँजीवादी व्यवस्था करार दे कर इसके पूर्णरूप से ध्वस्त हो जाने का इन्तजार कर रहे हैं, और नारीवादी विचारों को फ्रॉयडवादी तथा उनकी गतिविधियों को संशोधनात्मक बताकर पूरी तरह खारिज कर रहे हैं। मेरा स्वर नारीवादी समूह के बीच से उठने वाला स्वर है जो इन संशोधनात्मक गतिविधियों में संशोधन की बात उठा रहा है। हम सम्पूर्ण क्रांति से इस पूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त कर नई व्यवस्था बनाने के यूटोपिया में नहीं जी रहे । मेरी निजी समझ के केन्द्र बिन्दु में इन्सान है और उसकी निजी चाहतें, छोटी ख्वाहिषें और असीम सपने। हमारे पास एक ही जीवन है और हमें यकीन है कि इस जीवन को जीने का अवसर दोबारा नहीं मिलेगा। इसीलिए हम खूँरेज क्रान्ति की बात नहीं उठाते और इसी जीवन को मूल्यवान् समझते हुए इसे पूर्णता में जीने की ख्वाहिश रखते हैं। मैं यहाँ पर केवल अन्य सामाजिक कर्मियों और अन्य नारीवादी संगठनों की आलोचना नहीं कर रही , मेरी आलोचना में स्वयं अपनी और अपने संगठन की आलोचना भी शामिल है । मुझे अच्छी तरह याद है कि अपने कार्य की शुरुआत में जब मैंने एक गोष्ठी का संचालन किया, उस समय कॉलेज में पढ़ने वाली युवा छात्राओं के बीच हमारी चर्चा का विषय था-विवाह करने की अनिवार्यता और दबाव। यह वर्ष 1987 था। हमारे समूहों के विषय थे-विवाह या केरियर, विवाह तथा केरियर तथा विवाह को ही केरियर समझ लेना। इसके बाद भी बहुत पढ़े लिखे षहरी अंग्रेजी बोलने वाली लड़कियों औरतों और कुछ कम पढ़े लिखे देसी हिन्दी बोलने वाले समूहों के बीच इस चिन्तन को ले जाती रही कि विवाह एक संस्था है या सम्बन्ध। यानी हम विवाह संस्था पर प्रश्न उठा रहे थे जो आज भी जारी है। पलट कर देखें तो वर्ष 1997 में हमारे संगठन ने बाल विवाह विरोधी अभियान चलाया क्योंकि हमने पाया कि गांव में ही नहीं शहरों में भी लोग तेरह-चौदह साल की बेटियां ब्याह रहे थे। आज वर्ष 2007 में फिर मैंने स्वयं को ऐसा पत्र लिखते हुए पाया जिसमें मैंने अपने इन्हीं हाथों से लिख कर माँ - बाप से अनुरोध किया है कृपया आप अपनी बच्ची का विवाह अभी न करें, उसे बालिग हो जाने दें और यदि ब्याह कर ही दिया हो तो अभी गौना न करें। हम,जो विवाह संस्था पर सवाल खड़ा कर रहे थे, आज पुरातन पंथी रूढ़िग्रस्त समाज के आगे गिड़गिड़ा रहे हैं। पुलिस चुप है क्योंकि जब समाज इसे अपराध मानता ही नहीं तो शिकायत कौन लिखवाए। मैं इस समय इस मजबूरी पर विचार नहीं कर रही कि लोग बेटी की सुरक्षा, और बड़ी हो जाने पर अधिक दहेज देने के दबाव से बचने के लिए बाल-विवाह कर रहे हैं। मैं पूछ रही हूं, ऐसे में हम नारीवादी क्या कर रहे हैं ? महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा निवारण विधेयक बनाने की प्रक्रिया में अन्य संगठनों के साथ हमारे संगठन ने भी शिरकत की। सन् 2000 के अगस्त माह में हमारे द्वारा लखनऊ में आयोजित कन्सल्टेशन में इस विधेयक से जुड़ी प्रख्यात वकील इन्दिरा जयसिंह के अलावा हमारे बीच उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा तत्कालीन पुलिस महानिदेशक भी उपस्थित थे। न्यायाधीश महोदय ने कहा कि परिवार में एक ही मुखिया हो सकता है, औरतों को चाहिये कि वे पुरूष को मुखिया मानें , नहीं तो परिवार टूट जाएगा। पुलिस महानिदेशक ने कहा कि इस विधेयक द्वारा तो आप घर में पुलिस को घुसने दे रही हैं, पुलिस बेडरूम में घुस गई तो परिवार का क्या होगा। सो यह नए नियम ठीक नहीं। गोष्ठी में उपस्थित सारे बुध्दिजीवी क्रोधित हो गए। नारीवादी समूह चीख-चीख कर प्रतिरोध करने लगे। उनकी चीखें दूरदर्शन ने प्रसारित की और उनका प्रतिरोध अगले दिन अखबारों में प्रमुखता से छपा। 2005 में यह एक्ट बन गया और 2006 में लागू हो गया। आज इस एक्ट के तहत वही जज न्याय करेगा, विधवा तथा वृध्दावस्था पेंशन आदि को अति भ्रष्ट तरीके से बाँटने वाला परिवीक्षा अधिकारी सुरक्षा अधिकारी बनेगा और इस विधेयक को लिख कर तैयार करने वाले, इसके पक्ष में रैली निकालने वाले, इसको लागू करने के लिए आन्दोलन करने वाले एन0जी0ओ0 ''सेवादाता'' बनेंगे। जो समूह अन्यायपूर्ण उदासीन सरकार को झकझोरने के लिए प्रखर स्वर में निनाद कर रहे थे , वे समूह सरकारी विभाग के बड़े बाबू के अर्जीनवीस बनने के लिए मिमियाने लगे। उनकी अपनी अर्जियां विचार के लिए महिला कल्याण विभाग में पड़ी हैं और वे इन्तजार कर रहे हैं, अपने सेवादाता चुने जाने का। आन्दोलन कारियों का क्या यही हश्र होना था ? मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि मैं औरतों के सिलाई, कढ़ाई, खाना पकाने, पढ़ाने, लिखाने, मजदूरी करने, यानि जीविका के लिए परिश्रम करने का विरोध कदापि नहीं कर रही हूं। बल्कि मेरा मानना है कि आर्थिक स्वावलम्बन तो स्वायत्तता की दिशा में एक जरूरी कदम है। मैं यहां कह रही हूं कि आन्दोलन तथा महिला संगठनों का उद्देश्य विचारों, मानसिकता तथा ढांचागत विषमताओं पर प्रश्न करना तथा व्यवस्था बदलने का प्रयास करना है, स्वयं उसी व्यवस्था का हिस्सा बन कर मजदूरी करना नहीं। नारीवादी तथा अन्य महिला संगठन भी धीरे-धीरे धनदाता फांउडेशनों तथा सरकारी तंत्र के कार्यक्रम लागू करने वाली इम्प्लीमेंटेशन एजेंसी बनते जा रहे हैं। इन समूहों में ऐसे लोग शामिल हो रहें हैं जो विचारों से जुड कर नहीं, बल्कि एन0 जी0 ओ0 में नौकरी करने के लिए भरती हो रहे है। संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच विचारों की समझ का अभाव इस समय हमारी सबसे बडी चुनौती है। इसलिए इनसे जुडे व्यक्तियों के बीच वैचारिक स्पष्टता के लिए निरन्तर चिन्तन की आवश्कता है और स्वयं को इस बात का विश्वास दिलाते रहने की जरूरत है कि प्रयास से परिवर्तन सम्भव है। इस बीच ऐसा हुआ कि स्त्री स्वातंत्र्य को लेकर जितने संगठन पहले पन्द्रह सालों में बने थे विगत दस सालों में उनसे दस गुना अधिक संगठन स्वयं सहायता समूहो के नाम से खडे कर दिए गये। ये समूह लघु बचत के गिर्द बनाए गये थे। बैंकों तथा निगमों द्वारा प्रोत्साहित समूहों में भी इस बात का ध्यान रखा गया कि समूह समान सामाजिक शैक्षिक वर्गों से हों, महिला समूहों में पुरूष न हों आदि। भारत का एक बहुत बड़ा शोषित वर्ग ऐसा है जो अर्थव्यवस्था के क्षेत्र से बाहर है। विकास दर बढ़े या घटे इसे कोई लाभ नहीं होता। स्त्रियां इसी वर्ग में आती हैं। ऐसे में उन्हें भी अर्थव्यवस्था के परिक्षेत्र में लाने के विचार से ये समूह खड़े किए गए। इस विचार को अच्छा विचार कहा जा सकता है। ऐसे समूहों के साथ बातचीत और उनके काम के आकलन और पुनरावलोकन के दौरान बहुत सारी मिली जुली बातें सामने आईं। बचत वाले इन स्वयं सहायता समूहों ने भी औरतों में आत्मविश्वास बढ़ाया है, उनकी बचत ने महाजन पर उनकी निर्भरता घटाई है तथा औरतों की इज्जत उसके परिवार तथा समाज में बढ़ाई है। वे बाहर निकलती हैं, मिलती जुलती हैं, बैंकों में खाते खोलने के लिए हस्ताक्षर करती हैं। जो परदा प्रथा, औरत को चाहरदीवारी के भीतर कैद रखने की प्रथा, सुधारवादियों के सैकड़ों लेखों-निबन्धों और नारों से दूर नहीं हुई थी, उन प्रथाओं को बचत समूहों ने सहज ही तोड़ दिया। आर्थिक स्वावलम्बन के लिए बने समूहों ने औरत के मुंह में जबान दे दी, आत्मविश्वास और कुछ हद तक निर्भीकता भी- ''इन्सान जब तक चुप है तभी तक कमजोर है, एक बार बोल पड़ा तो फिर क्या कमजोरी'' एक महिला ने कहा। परदे, घूंघट बुरके की बंदिष को तोड़ने में समूहों ने जो मदद की वह कोई छोटी उपलब्धि नहीं। पर अर्थतन्त्र से इनके रिष्ते पर भी तो विचार कर लें। भारत ने पूंजीवादी खुले बाजार की अर्थव्यवस्था पर सहमति दे दी है। इस खुले बाजार में जहां सरकार ने हथकरघों, शिल्पों लघु उद्योग के लिए आरक्षण करना तो दूर उनको छोटा मोटा प्रोत्साहन देने के कार्यक्रम तक रद्द कर दिए हैं, वहां पर इन महिला समूहों को बीस-बीस औरतों के समूह में बीस रूपया बचाकर बीसी चला कर आत्मनिर्भर बनाने का सपना दिखाना कितना उचित है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि ये औरतें अपना अतिरिक्त पैसा जमा नहीं कर रहीं, ये औरतें चार रोटी की जगह केवल दो रोटी खाकर, दो रोटी के लायक पैसा बचाकर अपनी गांठ में बंधी अठन्नी और रूपया इस बीसी में जमा कर रही हैं। ये ''सरप्लस सेविंग '' नहीं है यह अधपेट रह कर भविष्य के लिए बचाए गए पैसे हैं। दूसरी ओर खुले बाजार में इकॉनॉमी आफ स्केल हैं। जितनी बड़ी पूंजी उतना अधिक मुनाफा। एक एक कम्पनी जितने लाख करोड़ रूपए की पूंजी से व्यापार शुरु कर रही है, उसे लिखने के लिए एक के आगे कितने शून्य लगाये जायेंगे, साधारण औरत इतना भी नहीं जानती। उस खुले बाजार की व्यवस्था में औरत के आंचल की कोर में बंधा रूपया छीन कर उसे बाजार में लगा डालना कितना बड़ा जोखिम है ? क्या स्वयं सहायता समूह की योजना बनाने वाले नीति निर्माता और ऐसे समूह चलाने वाले संगठन इस विषय से जरा भी चिन्तित हैं ? या ये विचार उनके वैचारिक स्तर से इतना नीचे और गैरज़रुरी लगतें हैं कि उस पर सोचने का विचार ही नहीं आया। स्वयं सहायता समूहों की जटिलता यहीं समाप्त नहीं होती। इसके और भी कई आयाम हैं। समूह क्या होते हैं और आन्दोलनों में समूहों की क्या भूमिका होती है ? मुझे लगता है कि यह जरूरी है कि समूह के सदस्य समाज में व्याप्त गैर बराबरी के कारकों की शिनाख्त कर सकें, यह समझ सकें कि कैसे कोई वर्ग समृध्द हो जाता है और दूसरा वर्ग अपवंचित और हर सदस्य को अपनी वंचना का अहसास हो जाय। यह वंचना का अहसास ही उन्हें विद्रोही बनाता है। यह विद्रोह ही समाज के ढांचे को चुनौती देता है और बदलने पर मजबूर करता है। बचत के गिर्द बने समूहों के बीच क्या यह समझ, यह अहसास और यह विद्रोह है? समूहों के कार्य के पुनरावलोकन तथा आकलन की एक कार्यशाला में भाग लेते हुए यह पाया गया कि केवल बचत के गिर्द बने हुए समूहों में ऐसे विचार अनुपस्थित थे। पर इसके बरअक्स बीसियों साल से जो समूह, हिंसा, शोषण, गैर बराबरी और अधिकारों जैसे सामाजिक मुद्दों पर कार्य कर रहे थे उन्होंने अपनी प्रस्तुति में बताया कि ''काम के बीस साल के बाद भी हमने पाया कि हमारे पास विचार थे-सिर्फ विचार। हम पैसों के लिए आज भी अपने मर्द साथी के आगे हाथ फैलाते थे'' उन्होंने कहा। इसीलिए काम के बीस साल के बाद उन्होने बीसी और बचत की बात सोची। यानी वैचारिक स्वतंत्रता को आर्थिक स्वतंत्रता से जोड़ कर देखना जरूरी हो गया । इन सारे पहलुओं और जटिलताओं को देखते हुए नारीवादी संगठन क्या बचत समूहों को केवल इसलिए हतोत्साहित करेंगें, क्योंकि केन्द्रीय बैंक नाबार्ड तथा व्यवसायिक बैंक पूंजीवादी अर्थतन्त्र का हिस्सा है या फिर यह प्रयास करेंगे कि केवल बचत के गिर्द बने समूहों में विचार जोड़े जायें और केवल विचार वाले समूहों में पैसा। साम्यवादी और पूंजीवादी व्यवस्थाओं के बीच झूलती मिश्रित अर्थव्यवस्था के बीच नारीवाद कौन सी राह चलेगा। यह समय वामपंथी और दक्षिणपंथी पुरूषवादी समूहों के हाथों की कठपुतली बनने का नहीं है। यह समय इस बदलती व्यवस्था में चतुराई से अपनी रणनीति बनाने का है क्योंकि हमारा अन्तिम लक्ष्य तो स्त्री मुक्ति ही है न! स्त्री मुक्ति से जुड़ा सबसे अहम् प्रश्न तो यह है कि स्त्री पराधीन क्यों हुई ? आर्थिक पराधीनता से या यौन शुचिता और नैतिकता के दोहरे मानदण्डों के कारण उपजी शारीरिक पराधीनता से क्या अर्थतन्त्र में बराबर की भागीदारी और संसाधनों पर हक मिलने से पूर्ण मुक्ति मिल जाएगी या जब तक यौन शुचिता और नैतिकता के दोहरे मानदण्ड नहीं बदलेंगे तब तक पराधीनता बनी ही रहेगी। महिला उत्पादन में बराबर की साझेदार है केवल संतति का प्रजनन करने की मशीन नहीं। अपने श्रम पर हक, अपने धन पर हक, अपने शरीर पर हक और अपने सम्बन्धों के विषय में आत्मनिर्णय करने का हक यानी ये समानता और समकक्षता के सवाल हैं। हम इसे ही अपने शरीर पर हक बता रहे थे। लेकिन इसका एक भ्रामक अर्थ खूब तेज़ी से चला और पनपा कि महिला अपने देह पर हक समझकर उस देह का मनमाना इस्तेमाल कर सकती है । इसी बीच सोवियत रूस के ध्वंस के बाद, अमरीका और अन्य पूँजीवादी देशों की ओर से भारत में एड्स के नाम पर धन फेंका जाने लगा। रातों रात हजारों संगठन खड़े हो गए, यह कहते हुए कि हम महिला और स्वास्थ्य पर काम कर रहे हैं। चोर, लुटेरों के इन गिरोहों की नीयत पर चर्चा करके मैं अपनी ऊर्जा व्यर्थ करना नहीं चाहती, पर जब प्रजनन और शरीर पर हक के नाम पर कुछ समूह वेश्यावृत्ति को यौन कर्म का व्यवसाय बता कर न्यायोचित ठहराने लगें तो यह चिन्तन का विषय है। ऐसे ही किसी संगठन से सम्बन्धित तथाकथित नारीवादी ने मुझसे कहा कि जब मजदूर अपना श्रम बेच सकता है, गायिका अपनी आवाज बेच सकती है तो यौन कर्मी क्यों नहीं। मेरा प्रश्न है कि क्या यह एक मानवीय सम्बन्ध नहीं है ? क्या यह केवल कर्म या क्रिया है ? व्यवसाय है ? क्या वेश्यावृत्ति एक केरियर है? क्या हम और हमारी बेटियां डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, शिक्षण की ही तरह सेक्सवर्क यानी यौन कर्म को केरियर की तरह शौक से चुनेंगी ? या फिर वेश्यावृत्ति को व्यवसाय के रूप में स्वीकृत और प्रतिष्ठित करना इसलिए जरूरी है ताकि विभिन्न विदेशी फांउडेशनों द्वारा पोशित संगठनों को एड्स के जोखिम से लबरेज एक बना बनाया बाजार मिल सके, जहां पर एन0जी0ओ0 के माध्यम से जागरूकता बेची जा सके और उसके बाद अमरीकी दवा कम्पनियों द्वारा बनाई गई दवाइयों का परीक्षण करने के लिए बेपैसे के गिनी पिग्स मिल जाएं जिनके शरीरों पर प्रतिरोधी टीकों का परीक्षण किया जा सके । और या फिर वामपंथी कहलाने वाले दलों को यौनकर्म करने वाले मजदूरों का दल मिल जाय जिसे गरीब मजदूरों की गिल्ड के रूप में पार्टी का कार्ड होल्डर बना लिया जाय। यह नहीं कहती कि भारत के पाखंडी समाज में एच आई वी एड्स की बीमारी का खतरा नहीं है, या वेश्याएं इस बीमारी का सर्वाधिक जोखिम भरा समूह नहीं है या इस समूह के साथ खास तौर पर काम नहीं किया जाना चाहिए। मैं यह कहना चाहती हूं कि क्या वेश्यावृत्ति को उसके मूल में छिपी गरीबी, बदहाली और स्त्री की निम्न स्थिति से जोड़ कर देखा जाना ज्यादा जरूरी नहीं ? गरीब परिवार में पैदा होने वाला लड़का बाल श्रमिक बनता है और लड़की यौन श्रमिक। कहीं पर यह उनके गरीब माता पिता की सहमति से होता है, कहीं पर अपहरण तथा ट्रैफिकिंग के रूप में । पैसे फेंक कर स्त्रीदेह खरीदना शोषणात्मक और अपमानजनक है इसमें संदेह नहीं होना चाहिए। इसीलिए सरकार द्वारा और समाज द्वारा कहीं वेश्यावृत्ति उन्मूलन के रूप में और कहीं ''पतिता'' उध्दार के रूप में, इस अपमानित जीवन में से औरतों को उबारने के लिए प्रयास निरन्तर जारी ही रहे हैं कहीं कानूनी दृष्टि से कहीं पर दया दृष्टि से। ऐसे में भारत के गरीब परिवारों से और आस-पास के गरीब देशों के गृहयुध्दों से विस्थापित हो कर आने वाली औरतों को वेष्या बना देने वाली परिस्थितियों को बदलने की बजाय औरतों को व्यवसायिक (प्रोफेशनल) यौनकर्मी के रूप में स्थापित करना तथा प्रतिष्ठा देना ताकि वे पुरूषों को आनन्दित करने का व्यवसाय करें और पुरूष निरोध से लैस हो कर आनन्द उठाएं, यह कितना उचित है। स्त्री का अपने शरीर पर अपने हक का क्या यही अर्थ था ? क्या यही स्त्री पुरूष समानता और समकक्षता का स्वप्न था जो कि हम देख रहे थे ? एचआईवी के विषय में जागरूक करने वाले समूह के प्रशिक्षण के दौरान उस समूह के एक सदस्य ने मुझसे कहा कि वेश्याएं समाज की नाली हैं। वे न हों तो गंदगी हमारे घर की औरतों तक आ पहुंचेगी, क्योंकि पुरूष तो अपनी प्रवृत्ति छोड़ेगें नहीं, और हमारे घर की लड़कियां औरतें खतरे में पड़ जाएंगी। आश्चर्य की बात है कि वेश्याओं के बीच काम करने वाले लगभग ढाई सौ समूहों के सदस्यों से प्रशिक्षणों के दौरान मिलने का मौका मिला और मैंने पाया कि उनमें से अनेक लोगों के यही विचार थे। मुझे लगता है कि एक्टिविस्ट यानी सामाजिक कार्यकर्ताओं में वैचारिक स्पष्टता लाने की सख्त जरूरत है। प्राचीन काल से चला आ रहा विलासी, व्याभिचारी पुरूष वर्चस्व वादी स्वर भी तो यही रहा है कि वेश्यावृत्ति विश्व का प्राचीनतम व्यवसाय है, कुछ औरतें यह व्यवसाय करें ताकि परिवारों की पवित्रता सुरक्षित रहे। यौन कर्म के पक्षधर संगठनों का स्वर इस स्वर से किस प्रकार भिन्न है ? इस तरह तो पुरूष एक प्रकार के होंगे, जो वेश्यागामी हो कर भी सद्गृहस्थ रहेंगें और औरतें दो प्रकार की होंगी-केवल अपने पति के लिए यौन कर्म करने वाली सती गृहस्थिनें और अन्य सभी के पतियों के लिए यौनकर्म करने वाली प्रोफेशनल्स! क्या नारीवादी इस विभाजन से सहमत हैं ? यदि नहीं हैं , तो भी और यदि हैं तो भी उन्हें अपने विचार स्पष्टता से रखने होंगे। स्त्री देह के अश्लील निरूपण के खिलाफ भारत में कानून हैं। स्त्री संगठन भी प्रारम्भ से ही स्त्री के ऑब्जेक्टिफिकेशन यानी उसे उपभोक्ता सामग्री के रूप में पेश किये जाने के विरूध्द रहे हैं। फिल्में, टी0वी0 और विज्ञापन इस आलोचना के केन्द्र बिन्दु में रहे हैं। बीच-बीच में ऐसे कई प्रकरण सामने आए कि टी0वी0 कार्यक्रमों, फिल्मों और मंच प्रदर्शनों में औरतों को न्यूनतम वस्त्रों में अभद्रता की सारी सीमाएं लांघते हुए प्रदर्शित किया गया। ये अन्तर्वस्त्रों के विज्ञापन के रूप में हुआ हो, फैशन शो में रैम्प पर चलते हुए कपड़े फटने और उतरने के रूप में हुआ हो, बार में नाचने वाली लड़कियों पर प्रस्तुत रिपोर्ट के रूप में हुआ हो या फिल्मी अभिनेता अभिनेत्री द्वारा मंच पर किये गये प्रेम प्रदर्शन के रूप में। हर बार ऐसे मुद्दे कट्टर पंथी धार्मिक समूहों ने उठाए और विरोध प्रदर्शन किया। नारीवादी समूह इन मुद्दों पर चुप्पी साध गए। ऐसे में यदि हम आवाज उठाते तो हमारा स्वर चुटिया तिलक वाले हिन्दू कठमुल्लों और दाढ़ी अचकन वाले मुस्लिम कठमुल्लों के स्वर से मिलता जुलता प्रतीत होता। इस बात से हम डर गए। क्या यह सही था ? या बेहतर यह होता कि हम भी विरोधी स्वर उठाते और स्पष्टता से कहते कि हमारा मंतव्य कट्टरपंथियों के मंतव्य से भिन्न है, परन्तु हमें भी स्त्री देह को केवल आकर्षक वस्तु के रूप में प्रदर्शित करने पर एतराज है। हमें अपनी चुप्पी का अफसोस है, पर उससे भी ज्यादा अफसोस उन स्यूडो नारीवादियों के आचरण पर है जो मंचों पर प्रदर्शित स्त्री देह की नग्नता की हिमायत करने लगी क्योंकि विपक्ष में खड़े कट्टर पंथियों को शास्त्रार्थ में पराजित करने का यही सही मौका था, वह भी टी0वी0 पर। (मंच पर चढकर एक विदेशी अभिनेता द्वारा देसी अभिनेत्री का सार्वजनिक रूप से आलिंगन चुम्बन करने के द्वारा एड्स की बीमारी को किस तरह दूर भगाया जा सकता है, इस विषय पर मेरा ज्ञान अति सीमित है, अत: इस पर अलग से शोध होना चाहिए) पोर्नोग्राफी, स्त्री देह के वस्तुकरण तथा स्त्री के प्रति हिंसा के मध्य गहरा तथा प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, इस तथ्य को स्थापित करते हुए अनेक शोध तथा अध्ययन प्रकाशित हो चुके हैं। कभी कला की अभिव्यक्ति तो कभी मनोरंजन के नाम पर क्या पोर्नोग्राफी को भी स्वीकृत कर लिया जायेगा ? क्या स्त्री शरीर के अश्लील निरूपण के विरूध्द उठने वाली हर आवाज को मॉरल पोलिसिंग बता कर खारिज किया जाना उचित है, या उनके तथा अपने मंतव्यों की सूक्ष्म तथा स्पष्ट विवेचना करके अपना पक्ष रखना? हमें स्पष्ट करना चाहिए कि अश्लीलता, पोर्नोग्राफी और नारी देह निरूपण के सम्बन्ध में कट्टरपंथी रूढ़िवादी और नारीवादी के दृष्टिकोण में आकाश-पाताल का अन्तर है। कट्टरपंथी समूह नारीदेह प्रदर्शन को इसलिए वर्जनीय मानते हैं क्योंकि वे ''अपनी औरतों'' को पराए मर्द की नजर से बचा कर रखना चाहते हैं। औरतों का हुस्न या सौन्दर्य केवल उसके मालिक या स्वामी के लिए है। औरत मर्द की सम्पत्ति है, गैर मर्द की नजर पड़ जाने से ''अमानत में खयानत'' हो जाएगी, इसलिए अपनी औरत की चौकीदारी करो। घूंघट, परदा, बुरका, घर की दहलीज लांघने की आज्ञा न देना, परम्पराएं इसी मानसिकता से प्रेरित हैं। इसके विपरीत नारीवादी दृष्टिकोण से अपनी देह पर अपना नियन्त्रण स्त्री की स्वायत्ताता का प्रश्न है। नारी क्या पहने, किससे बोले बात करे, किससे सम्बन्ध रखे तथा किस सीमा तक रखे , यह उसके अपने निर्णय होने चाहिएं। नारी वादी स्त्री देह के अश्लील प्रदर्शन का इस दृष्टि से विरोध करते हैं क्योंकि पोर्नोग्राफी में स्त्री को एक व्यक्ति न मान कर उसकी देह को केवल आनन्द और उपभोग की वस्तु के रूप में निरूपित किया जाता है, यह उनकी स्वायत्ताता का हनन है। इस प्रकार रूढ़िवादियों के लिए यह अपनी सम्पत्ति की रक्षा का प्रश्न है और नारीवादियों के लिए यह अपनी स्वायत्ताता का । नारीवादी आन्दोलन ने काफी लम्बा सफर तय कर लिया है। अब यह तो तय ही हो चुका है कि आदमी को रिझाने के लिए औरतें न तो लजाएंगी और न ही घबराएंगी । पर इस व्यवस्था से अपनी असहमति दर्ज करने के लिए क्या वे धीमे धीमे स्वर में केवल भुनभुनाएंगी या इस विषम व्यवस्था के आमने सामने खड़ी हो कर विद्रोही स्वर में इसे ललकारेंगी। मैं यहां पर नारीवादी आन्दोलन की त्रासद नाकामियों की सूची बनाने नहीं बैठी, पर मैं इस सूची में उन नाकामियों को भी दर्ज जरूर कराना चाहती हूं जिनमें मैं तथा हमारा संगठन भी शरीक रहा है। आन्दोलन और संगठनों के कार्यकर्ताओं और कर्ताधर्ताओं के लिए ये चिन्तन के मुद्दे हैं। विवाह एकनिष्ठ प्रेम का प्रतीक है या पुरूष प्रधान समाज द्वारा पितृसत्ता को चलाते रहने के लिए बनाई गई कठोर व्यवस्था? विवाह संस्था है या सम्बन्ध ? शरीर पर अपने हक का क्या अर्थ है ? स्त्री अकेली कैसे छूट जाती है और सामूहिकता उसे क्या दे सकती है ? आर्थिक आत्म निर्भरता और स्वायत्ताता के बीच क्या सम्बन्ध है? ऐसे न जाने कितने प्रश्न हैं। यह इन सारे सवालों के जवाब देने की चष्टा नहीं है, यह सारे सवालों के जवाब जानने का दम्भ भी नहीं है, यह एक बार फिर से मूल प्रश्नों की ओर लौट चलने का आहवान है।
स्त्री मुक्ति से जुड़े जिन प्रश्नों को नारीवादियों ने प्रारंभ में उठाया था, वे प्रश्न आज भी अनुत्तारित हैं। प्रश्नों का अनुत्तारित रह जाना चिन्ता का विषय नहीं है। चिन्ता का विषय है प्रश्नों का अनुपस्थित होते चले जाना। हमारी सफलताएं भी कम नहीं हैं। हमने भारत की सांस्कृतिक जड़ता और प्रस्तरीकृत रूढ़ियों के बीच, अन्धकार पूर्ण समय और बेहद शत्रुतापूर्ण माहौल में मुक्ति की आवाज उठाने का साहस किया। आने वाली सदियां इन आवाजों पर नाज करेंगी, पर वे हमसे हमारी खामोशियों का हिसाब भी तो मांगेंगी। इससे पूर्व कि स्वयं-भू बुध्दिजीवी विमर्शकार, जिनके पास सब प्रकार के विमर्षों का ठेका है जैसे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श आदि, वे हमारे इस नारीवादी आंदोलन के क्षरण विघटन और अवसान पर विमर्शात्मक टीका लिख कर इसे किसी सुनसान में दफना दें और नारीवाद का फातिहा पढ़ डालें, हमें खुद इन बीज प्रश्नों को पुनर्जीवित करना होगा। यह भूलों की पुनरावृत्ति किए बगैर अपने सपनों के पुनर्जागरण और पुनर्निमाण का समय है। अच्छा हो हम इस लम्बे सफर के लिए जहाज के षहतीर मस्तूल पाल पतवार की मरम्मत कर अपने बेड़े तैयार कर लें। यह निर्णायक समय है, जब हमें बड़े और कडे निर्णय लेने होंगे। हम हारने के लिए अपने घरों से नहीं चले थे। हमें नई ऊर्जा के साथ फिर से उस हरावल दस्ते में शामिल होना है, जो सदियों पुरानी पित्तृसत्ता से लड़ने चला था।
शालिनी
माथुर |
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