मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

प्रेरणा श्रीमाली से कथक और वर्तमान परिदृश्य, कथक व कविता पर लिया गया साक्षात्कार - मनीषा कुलश्रेष्ठ

 एक कहावत है न कि 'जितने राजस्थान की पगड़ी में बल होते हैं उतने पेंचदार कथक की बन्दिशें होती हैं और वैसी ही उन बलदार बन्दिशों की निकासी'। इस कहावत पर आप थोड़ा-सा प्रकाश डालिये।

बिल्कुल। होते ही हैं। जैसा मैंने शुरू में कहा कि बहुत ही लमछड़ बंदिशें हम लोग नाचते थे, बहुत उलझी हुई परण.....बल्कि इसमें एक ऎसी परण भी थी जिसका नाम ही 'गोरखधन्धा' था। इसका एक बहुत अच्छा-सा उदाहरण यह बता सकती हूँ कि कैसे कितनी लम्बी परणें और कितनी लम्बी बन्दिशें थीं - जैसे आप कथक जानती हैं, आपको मालूम है - पहले चौसठ मात्रा नाचते थे। सोलह नहीं नाचते थे। सोलह तो धीरे-धीरे हो गया। तो चौसठ मात्रा नाचते थे और चौसठ के लिए आपको लम्बी बन्दिश चाहिए ही।
मैंने जैसे बताया कि मेरी जब कार्तिक राम जी से बात हुई तो उन्होंने भी बताया कि- बेटा! हम तो चौसठ मात्राएँ नाचते थे। तो यह मुझे बड़ा चुनौतीपूर्ण लगा था, बहुत लोग नाचते हैं, मुझे भी एक बार नाचकर देखना चाहिए और सच कहूँ तो सोलह में भी विलम्बित लय में लोगों को नाचना मुश्किल हो जाता है, तो चौसठ तो उसका और चारगुना हो गया। मैंने फिर एक चुनौती मान कर चौसठ मात्रा में नाचा, यहीं कमानी ऑडिटोरियम में, यहाँ जो दुर्गालाल जी की याद में एक समारोह होता है न, उसमें, सन 1990 की बात है, - चूँकि सारंगी बजा रहे थे मुराद अली, मैंने उनसे कहा कि नगमा तैयार करिये और ऐसा तैयार करिये मुझे यह पता लगना चाहिए कि यहाँ सम आ रहा है, तो एक तरह से चौसठ मात्रा मतलब एक तरीके की बन्दिश बन जायेगी, तो खूब रियाज़ वगैरह करके उसको किया और मुझे अच्छा लगा कि मेरे पास उस तरह की बन्दिशें थीं, जिन्हें मैं चौसठ मात्राओं में प्रस्तुत कर सकती थी। जैसे गणेश परण है तो वह तीन लय में अगर नाची जाए तो चौसठ में पूरी आ जाएगी। बहुत सारी ऐसी तिहाइयाँ इतनी लम्बी हैं कि वह हर हालत में 64 में आ जाती हैं। परण है, त्रिपल्लियाँ हैं। तो मुझे लगा कि- हाँ, यह सबक मुझे विरासत में अपने घराने से मिला है। जैसे आप कह रही हैं कि लम्बी पगड़ी है तो उसके पेंच भी हैं. बन्दिश भी है, यहाँ तक कि इसमें कुछ ऐसे कवित्त भी हैं - साहित्यिक दृष्टि से भी अगर आप देखें, तो जहाँ से जिस बोल से शुरू हो रहा है, उसी बोल पर आकर खत्म भी हो रहा है।
'सब ठाड़े रहे उन फोर ही डारी'
यहाँ से शुरू हुई है कवित्त और 'कभी ठाड़े रहियो उन फोरी डारी पर' पर ही खत्म हो रही है। तो यह जो खूबसूरती है, ये मुझे गुरुजी के सबक में मिली और मुझे लगता है कि इसी वजह से शायद ऐसा हो पाया ..... मुझे स्मरण है कि एक बार एक ‘फेस्टिवल’ हुआ करता था, 'शरद चन्द्रिका' सोलो नृत्य - कलाकार का तो उसमें युवाओं से लेकर वरिष्ठ कलाकार तक शिरकत करते थे। श्रीराम सेण्टर के कथक केन्द्र में होता था। एक बार कुछ ऐसी थीम रखी गई कि जो पापुलर ठुमरियाँ हैं उनको किया जाए। ये फ़ेमस ठुमरियाँ, जितनी हैं।

जैसे 'कौन गली गए श्याम'?

हाँ, यही सब ठुमरियाँ, जो बेगम अख्तर ने गायी हैं, शोभा गुरटू ने गायी हैं। हाँ। इस तरह की बहुत सारी पापुलर ठुमरियाँ। उसमें भी भीमसेन जोशी जी की एक ठुमरी थी 'पिया तो मानत नाहि'। मैंने वो ठुमरी चुनी। वह क्या था कि, क्योंकि जयपुर घराने में रहकर उलझन की चीज़ें पसन्द आने लग गयीं। 'पिया तो मानत नाहिं' जो ठुमरी है वह चौदह मात्रा में है। चौदह मात्रा में ठुमरियाँ ज्यादातर नहीं होतीं और चौदह का ही ठेका लग रहा है, ऐसा नहीं कि रूपक हो गया हो. तो उस ठुमरी को मेरे अलावा किसी ने नहीं चुना। पूरे फेस्टीवल में। ठुमरियों की जितनी बन्दिशें थीं, सबको वही दी गई थीं केन्द्र की तरफ से, कि आप इसमें से छाँट लीजिये। जो आपकी पसन्द की है और आपको अपने प्रस्तुति में एक-एक ठुमरी ज़रूर नाचनी है।
तो मैंने वह ठुमरी चुनी 'पिया तो मानत नाहि', जो कि मुश्किल थी और सब लोगों ने जैसा था वैसा ही, उसे कर लिया था। मैंने ठुमरी को, जो मेरे साथ गाती थीं हेमा दीदी, उनसे कहा, - धुन तो यही रहेगी लेकिन इसको आप अपनी तरह गाइए। तो वह इस तरह की एक आदत पड़ गयी, उलझन के साथ में काम करने की। यह मुझे लगता है कि यह जयपुर घराने की देन है और गुरुजी की भी देन है कि सीधी चीज़ें पसन्द ही नहीं आतीं।

इसी कड़ी में मेरा अगला सवाल, कोई ख़ास बन्दिश जिसे सीखते हुए बड़ा कष्ट हुआ हो और परिश्रम लगा हो और बाद में उसी सीखे हुए का आपको अच्छा परिणाम मिला हो?

बिल्कुल। ऐसी तो बहुत सारी हैं।

ऐसी कोई एक ख़ास, जिसे सीखने में मन न लगा हो और उसे सीखने में कष्ट दिया हो?

कष्ट दिया हो, यह तो सोचना पड़ेगा।

इस तरह से ले लीजिये कि चुनौतीपूर्ण लगा हो?

एक बन्दिश तो मुझे याद है। गुरुजी की आदत थी कि वे बन्दिश सिखाते थे और कहते थे कि पहली बात तो यह है कि ये पूरी याद हो जानी चाहिए पहले। वो 'त्रिपल्ली' थी, उसमें गत भी जुड़ी हुई थी। मतलब विलम्बित में गत है। वह गत से शुरू होती थी और 'त्रिपल्ली' में चली जाती थी। उस बीच में तिहाई भी आ रही है, तो एक पूरा कम्पोज़ीशन बन रहा था एक तरह से। उसमें गुरुजी ने कहा कि यह बन्दिश याद होनी चाहिए। याद किया उसको। याद करने के बाद में और फिर कहा कि सारी पहले पैर से निकालो। आज भी वो बन्दिश मेरे पैर से वैसे ही निकलती है। टचवुड। हाँ, उसे निकालने में कष्ट हुआ था, क्योंकि वो धीमी थी. उसके बोलों को पैरों से पहले निकालना है. अंग तो बाद में सिखाया, पैर पहले सिखाये। उन्होंने कहा कि -- पैर पहले निकलेंगे तब मैं सिखाऊँगा, नहीं तो नहीं सिखाऊँगा। तो वो एक ज़रूर लगा था कि कठिन है।
एक और चुनौतीपूर्ण कहना चाहिए, गुरुजी ने एक नक्कारे का छन्द तैयार किया था।

नक्कारे का छन्द !

उसकी बन्दिश बनायी थी उन्होंने। वह गुरुजी की आखिरी बन्दिश थी, उसके बाद उनकी मृत्यु हो गई। उसे वह अधूरा छोड़ गये। मतलब उसकी तिहाई नहीं बनी। वह मेरे घर आए थे। मैं यहाँ बंगाली मार्केट में कमरा लेकर रहती थी। मेरा कोर्स खत्म हो गया था। दिल्ली में रहने को कुछ नहीं था और आने के लिए भी कोई आकर्षण गुरुजी के अलावा कुछ नहीं था। गुरुजी ने कहा, तुम यहाँ आ जाओ। गुरुजी ने ही कह दिया था तो जाना था। तो वहाँ पर, गुरुजी ने एक बन्दिश बनायी थी। 'तड़ितदाम-तड़िदाम' ऐसा करके। 'तड़ तड़ तड़' वो जो ध्वनि आती थी नक्कारे की उसको सिखाया नहीं था, खाली उसका बोल था। हम उसे खोना भी नहीं चाहते थे।
मैं और राजू, जो गुरुजी के बेटे हैं, राजेन्द्रगंगानी हम दोनों ने बैठकर खूब दिमाग लगाया और दिमाग लगाकर उसे तैयार कर लिया,क्योंकि वह जिस स्तर की बनी हुई थी, उसी स्तर की उसकी तिहाई भी आनी चाहिए। वह तो एक तरह का ‘क्लाईमैक्स’( चरम) है। फिर उसका वह चरम् हम दोनों ने मिलकर बनाया। फिर हमने अपनी-अपनी तरह से उसका अंग निकाला। तो वह एक दूसरी चुनौती मुझको लगी जिसमें तकलीफ हुई। ऎसी ही दो-तीन चीज़ें और भी रही हैं.

यह चुनौती एक श्रध्दांजलि थी?

हाँ। मतलब उसे हम छोड़ना ही नहीं चाहते थे, क्योंकि वह अंतिम बोल था, मेरे गुरुजी का। गुरुजी ने आधा तैयार किया, फिर कहा.... उनका क्या होता था, कि जैसे अभी कुछ बोल बना रहे हैं, कुछ बोल दिया और उसके बाद फिर अगर मूड खत्म हो गया, चले गये। और उनसे कहेंगे दुबारा- गुरुजी! प्लीज़ ये ? तो कहेंगे- आग लगे तेरे को, छोड़ दे, “आगि बळ”। राजस्थानी में बोलते थे “आगि बळ'। गुरुजी मुझे कहते “बामणती अब देखा जाएगा बाद में।“ उसे पूरा करते नहीं थे। तो उसको पूरा करना भी एक तरह का चुनौती था। और सही बात है कि श्रद्धांजलि भी है। उसे मैं बहुत ही कम नाचती हूँ। बहुत कम नाचा है उसको।
गुरुजी हर ताल को अलग तरह से सिखाते थे। उनके हिसाब से हर ताल का प्रस्तुतिकरण भिन्न हो और पैर से निकले - ये मेरे दोनों गुरु कहते थे। पखावज मैंने सीखी है पुरुषोत्तामदास जी गुरुजी से, जो उस वक्त सबसे बड़े गुरु माने जाते थे। वे भी कहते थे कि ताल का अपना चरित्र होता है, हर ताल का।

जयपुर घराने में तो बड़ी क्लिष्ट तालें नाची जाती हैं, गज, पद्म, वसन्त ताल? लक्ष्मी ताल.

बहुत सारी इस तरह की विषम तालें। हर ताल को इस तरीके से नाचना चाहिए कि उस ताल का स्वरूप नज़र आए। जैसे मैंने अष्टमंगल उस तरीके से सीखा, उसमें उन्होंने सारी चीज़ें नयी सिखायीं, इस तरह की कुछ चीज़ें हैं, जो गुरुजी ने बतायीं और जब सीख रहे थे तो बहुत तकलीफ हो रही थी कि क्यों इतना मुश्किल सिखा रहे हैं।

आप शैलीगत बदलाव और प्रयोगों में अपने ही गुरु की तरह ही बिल्कुल मौलिक हैं और परिश्रमी हैं, तो शोध का कितना स्थान रहता है आपके नृत्य में, प्रस्तुति से पहले?

मैं प्रस्तुति से पहले तो नहीं कहूँगी, जहाँ तक मैं समझती हूँ कि मेरा दिमाग हर वक्त शोध में चलता रहे, ऎसा नहीं है, ख़ासतौर से मैं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाना नहीं चाहती।

नहीं, मैं शास्त्रीय शोध की बात न करूँ तो जैसे कि आप कोई कविता लें? उस पर शोध, कवि पर, कविता पर..

मैं उसी बात पर आ रही हूँ. मैं उसमें नहीं जाती हूँ, पर उसके अलावा मैं जो भी प्रस्तुति करती हूँ, उसमें हरेक में मेरा अपना शोध शामिल है। क्योंकि मुझे दोहराव से चिढ़ है। मुझे दोहराव से निजी तौर पर, नर्तकी के तौर पर, दोनों ही तरह से चिढ़ है और यह बहुत विरोधाभासी बात है कि शास्त्रीय कलाओं में दोहराव के बिना तो गति बनती ही नहीं है। जैसे आप अपने आप में दोहरायेंगे नहीं चीज़ों को तो आपकी पकड़ तो आएगी ही नहीं। वो वहाँ दोहराव ठीक है। क्योंकि वहाँ करते-करते नया निकल आता है पर जहाँ तक मेरी प्रस्तुति की बात है, मुझे दोहराना पसन्द नहीं। मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लगता। और कमाल की बात यह है कि फिर भी कैसे धीरे धीरे यह ‘नृत्य भाषा’ आपके करीब आती जाती है न, क्योंकि कथक तो मेरी भाषा है। मैं हर दिन रियाज़ करती हूँ, वह हर दिन थोड़ी और मेरे पास आ जाती है, ऐसा मुझे लगता है। मुझे और कुछ दिखने लगता है उसमें। सिखाते-सिखाते ऐसा कितनी बार होता है कि - कई बार सिखाते-सिखाते, मुझे लगता है कि मैं मूल कारण की गहराई में चली जाऊँ, जैसे अगर किसी शिष्य का पैर नहीं उठ रहा है तो इसके पीछे क्या कारण हो सकता है। तो मैं उसे सतही तौर पर नहीं बता कर मैं उसके मूल में जाने की कोशिश करूँगी। कई बार उसमें मैंने खुद भी बहुत सीखा है। क्योंकि अब मैं इस तरह परिभाषित कर पाती हूँ। कहीं कुछ चीज़ों की ऐसी परिभाषा निकल आती है जो आपको ऐसे सामान्यत: नहीं दिखाई देती देती है।
जहाँ तक मैं अपनी प्रस्तुति की बात करती हूँ तो मुझे, जो प्रचलित ठुमरियाँ हैं कथक में, कथक की अपनी, मुझे उनको नाचने में कतई मज़ा नहीं आता। मैंने सीखी तो हैं, पर मैंने बहुत ही मुश्किल से -और शुरूआत में मैंने कभी नाची होंगी वह चीज़ें। आज मैं जब भी नाचती हूँ, वो सब वह है जिसे मैंने खुद चुना है। क्योंकि कुछ तो, कविता में मेरी अपनी दिलचस्पी बहुत है, कुछ मुझे दोहराव से चिढ़ है.

मैं उसी सवाल पर आ रही थी कि आपने कालिदास, मीरा, केशव, अमरूक् ग़ालिब की कविताओं पर नृत्य प्रस्तुत किये, बल्कि यहाँ तक कि किसी फ्रांसीसी कवि की कविताएँ चुन कर उन पर भी नृत्य प्रस्तुत किये। उसके बारे में बताएँ?

वैसे यह एक रहस्य है कि मैं कवि होना चाहती थी एक ज़माने में, हालाँकि अब लोग कहते हैं कि आप कविता ही तो करती हैं नृत्य में। पर कहते हैं न कि, ‘दिल बहलाने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है।‘

आप यूँ भी बहुत अच्छा लिखती हैं, क्योंकि वह जो आपने लेख की भूमिका में लिखा है न कि ‘पत्तियों का पेड़ पर नाचना.’ वह मुझे बहुत सुन्दर और काव्यात्मक लगा।

हाँ, क्योंकि मुझे कविता बहुत प्रिय है और बचपन में हर आदमी कविता लिखता है। कोई भी मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई होगा, जिसने बचपन में कविता नहीं लिखी होगी।

जैसे ही प्रेम जीवन में आता है, कविता लिखवाता है।

वह तो होता ही है, वह तो सहज चीज़ है। मुझे कविता बहुत प्रिय थी और कुछ घर में माहौल भी था, मेरे पिता कविता लिखते थे और उनकी कविताओं में ओजस्वी चीज़ें होती थीं क्योंकि वह स्वतंत्रता आन्दोलन के समय की बात है. हालाँकि बाद में वो फिर इतना सीधे जुड़े नहीं रहे कविता से पर उनके साहित्यकार मित्र वगैरह काफी थे सारे राजस्थान में, अकसर हम लोगों के घर साहित्यकारों का जमावड़ा होता था। तो मेरा भाषा के स्तर पर एक अच्छा रुझान पैदा हुआ। कहना चाहिए कि ऐसा रुझान हो गया कि मुझे समझ में आने लगा और मैंने पढ़ा भी काफी। अंग्रेजी साहित्य पढ़ा, हिन्दी साहित्य पढ़ा, हांलाकि तब महादेवी, निराला को हम पढ़ते थे, मगर अज्ञेय जी को पढ़ कर मैं कविता की तरफ इतनी ज्यादा आकृष्ट हो गई कि मुझे लगा कि कम शब्दों में कितनी ज्यादा बात कही जा सकती है।
मैं कॉलेज में थी,शायद फर्स्ट ईयर में, लाइब्रेरी में कुछ किताबें ढूँढ़ रही थी, तो उनकी कविताओं की एक किताब मिल गई। उसका कवर बहुत सुन्दर था तो उसको मैंने निकाला, देखा और मैंने पलटा। जैसे ही मैंने खोला तो वह लाइन सामने आई कि- 'साँप तुम शहर तो गये नहीं जहर कहाँ से पाया' – और खत्म हो गई कविता।

जी अज्ञेय ने बहुत सी कविताएँ हाइकू अन्दाज़ में लिखी हैं.

मेरी ये समझ में नहीं आया कि मुझे ये कविता कैसे समझ आ गई ? इस तरह कविता से मेरा जुड़ाव बना. इसलिए मैं अपने नृत्य के लिए कविता ढूँढ़ती हूँ और मुझे कविता मिल भी जाती हैं। मैंने जितने भी अपने ‘प्रोडक्शन्स’ किए हैं या मैंने अपने ही लिए जो किया है, उन सबमें गीत – संगीत और कविता का चयन मेरा अपना होता है। तो शोध जहाँ तक आप कहें, फिर मैं गति को लेकर बहुत ज्यादा शोध करती हूँ। मतलब मुझे शरीर के साथ में प्रयोग करना बहुत पसन्द है नर्तकी की तरह - कि कौन सा हस्तक कहाँ निकल आए या कितना,क्योंकि मुझे हाथों से बड़ा आकर्षण है। मुझे लगता है कि हाथ बहुत कुछ करने में समर्थ हैं।
जैसे एक बार रज़ा साहब की पेंटिंग के साथ काम किया था। तो उनकी पेंटिंग सामने रहती थी तो मुझे गति सूझने लगते थे कि क्या करूँगी कि इस पेंटिंग के करीब पहुँच जाऊँगी। इसी तरह एक बार मैं कबीर कर रही थी, कबीर करना मुश्किल है, पर मैंने किया था, और अच्छा भी हो गया। अभी भी मैंने अपनी नृत्य प्रस्तुति में वही नाचा था। कबीर जुलाहा थे, कबीर के लिए चाहिए था कि जुलाहे जैसे कपड़े बनाता है, वैसी गति और अंगसंचालन आए, अंगसंचालन तो ठीक है, उस गति को भी मैंने कर लिया जिसमें तबले के साथ पैर से हथकरघे की आवाज़ आए, “तागे दिघ तागे दिग”. तो इस तरह के प्रयोग, अविष्कार मैं करती रहती हूँ, तो अगर आप इसे शोध मानें तो वह तत्व मेरे नृत्य में रहता है।

जी यह बिल्कुल विशुद्ध शोध है।

यहाँ तक तो शोध है मेरे नृत्य में, यह शोध मेरे नृत्य का हिस्सा है। और बहुत अच्छी बात यह है कि जब आपको एक भाषा पूरी आती है तो आप जो भी करते है, वह उस भाषा का अंग लगने लगता है। जुलाहे का यह गति कहीं कथक में नहीं है, मगर मैंने खोज कर के इसे किया. क्योंकि अगर आप कथक नृत्यांगना हैं और आप इसका सम्पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान रखते हैं तो जिस भी कविता को आप कथक के ढंग से रचते हैं, तो वह कथक का हिस्सा हो जाएगा. किसी भाषा पर पकड़ आपकी कितनी है, यह इससे साबित होता है।

जी बिलकुल यह तो न केवल शोध है बल्कि यह कथक को आगे ले जाने की तरफ एक नया कदम है, इस तरह आप नये हस्तक दे रही हैं. यह जुलाहे वाली गति और अंग संचालन आपकी तरफ से कथक को एक देन है।

शायद। और हम यह भी तो एक सम्भावना पैदा कर रहे हैं कि जहाँ तक भी संभव है कथक में जा सकता है। इस बहाने परिधियों को थोड़ा-सा और खिसकाया जा रहा है। ऐसा तो है।

आपने सूफ़ी संगीत पर भी नृत्य बैले किये हैं?

सूफ़ी संगीत पर नहीं, मैंने सूफ़ी कविता पर किये हैं।

अमीर खुसरो?

हाँ, अमीर खुसरो पर किया है मैंने। क्योंकि सूफ़ी जो है, मुझे तो लगता है कि कथक अपने आपमें सूफ़ी है। उसका नृत्त ख़ासतौर से।

चक्कर ख़ासतौर से?

हाँ, सब कुछ। पूरे बोल भी।

दीवानगी भी?


हाँ, वो बोल भी, वो नाच भी। क्योंकि मुझे इस ‘टर्म’ से बहुत चिढ़ है, जिसे लोग कहते हैं ‘सूफी कथक’ सूफ़ी कथक कुछ नहीं होता। सूफ़ी कविता पर कथक संभव हो सकता है। सूफ़ी कथक क्या होता है। यह गलत शब्द है। इस शब्द को बिल्कुल खारिज कर देना चाहिए। क्योंकि कथक अपनी जगह है और सूफ़ी अपनी जगह है। चीज़ें सूफ़ियाना हो सकती हैं, पर आप कथक को सूफ़ी नहीं बना सकते। सूफ़ी तो है ही वो वैसे भी । आप दीवाने नहीं होंगे तो आप नाचेंगे ही नहीं।

इसी सवाल पर आ रही थी मैं। हम बिल्कुल ऐसे लयबद्ध चल रहे हैं कि आप जो बोल रही हैं, उसका अगला सवाल वो ही मैंने लिखा हुआ है। भारतीय दर्शन में सदा भक्ति नृत्य में रूपायित होती है। भक्ति प्रेम है, दीवानगी है। भक्ति, प्रेम और दीवानगी के बीच की जो बारीक फाँक है, उसे आप नृत्य में कैसे ढालती है और उसको कैसे अलग करके दिखाती हैं?

आपके सवाल के हिसाब से भक्ति प्रमुख है?

नहीं, भक्ति प्रमुख नहीं है। भक्ति प्रेम भी है, दीवानगी भी है। तो ये तीन, जैसे दीवानगी से शुरू होकर प्रेम और प्रेम भक्ति की तरफ बढ़ा है, तो इसको आप कैसे अलग-अलग कर पाती हैं नृत्य में? जैसे आपने अमरूक शतक पर भी काम किया है, वहाँ पर देह और काम की अभिव्यक्ति होती है। तो वहाँ पर काम की जो सूक्ष्मता है, दुरूहता है उसकी प्रस्तुति की जैसे देह में काम जागता है, तो वह थरथराहट है - उन सब चीज़ों में ये जो बारीक-बारीक फाँकें हैं, उनको आप कैसे अलग करती हैं?

मुझे लगता है कि ये मैं सोचकर नहीं करती हूँ। मुझे मालूम ही है। क्योंकि देखा जाए, तो हम तो चरम से ही शुरू करते हैं न। यदि आपने पढ़ा है तो मैंने अपने लेख के अंत में या बीच में कहीं लिखा है कि ‘भक्ति का चरम नृत्य है।‘ यह शास्त्रोक्त है कि भक्ति का चरम नृत्य है।
यदि कोई मुझे कहेगा- क्यों नृत्य कर रही हो? मैं नृत्य के लिए नृत्य कर रही हूँ, बस। मुझे उसमें आत्मिक आनन्द मिलता है। हम तो चरम ही से शुरू करते हैं। देखा जाए तो हम नृत्य में हर तरह की भावनाओं को जी लेते हैं। कहा जाता है कि अभिनय जो है, वह आपके अनुभव पर भी निर्भर करता है। तो यह कला जो है, वह एक तरह की ऐसी निकासी बन जाए कि आप सब कुछ उसके माध्यम से अभिव्यक्त करने के लिए राजी हों और तैयार हों। उसमें साहस भी चाहिए और उसमें आपकी कला के अन्दर आपकी गति भी चाहिए। हर व्यक्ति कला से अपने आपको जाहिर नहीं कर पाता है। और यह सवाल भी पैदा हो जाता है कि होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। शेक्सपीयर का वो है न, 'टु बी और नॉट टु बी'। कितना दिखायें और कितना न दिखाये, कितना छुपा लें। यह सारी साहस की बात भी है, क्योंकि नृत्य एक ऐसी विधा है जो एकदम पारदर्शी है।

आप जो कह रही हैं, मैं आपसे ज्यादा सहमत हूँ। मैंने दूसरी नृत्यविधा की एक नृत्यांगना के इन्टरव्यू में पढ़ा था कि, अभिसार या चुम्बन ...ऎसा अभिनय हम उस शिष्या से नहीं करवाते हैं जो विवाहिता नहीं है तो मेरे ख्याल में ऐसा नहीं है। अनुभूति होती है, दिवास्वप्न होते हैं, परकाया प्रवेश होता है। जब मैं विवाहिता नहीं थी , तब भी अभिसार या अभिसारिका के अभिनय को मैं अभिव्यक्त कर सकती थी, माँ न होने पर भी आप माँ का अभिनय सहज कर लेंगी.

बिल्कुल कर सकती हूँ। दूसरी बात यह भी है कि समाज के जितने नियम हैं, वे बदले हैं. समाज भी तो धीरे-धीरे बदलता है। आज किसी भी स्त्री से आप यह उम्मीद कैसे करते हैं कि वो एक खास उम्र पर आने के बाद भी उसे यह अनुभव नहीं हुआ होगा। क्योंकि वो जकड़न तो अभी नहीं है उतनी. समाज के और समाज के जो आपसी पारस्परिक सम्बन्ध हैं, वो अब काफी खुले हैं पहले के मुकाबले में। इसलिए यह कहना ही गलत है. मेरे गुरु एक बार ग़ज़ल तैयार करवा रहे थे, उन्होंने मुझे बाहर भेज दिया, जाओ तुम, तुम्हारे काम की चीज़ नहीं है।

बहुत खराब लगा होगा?

हाँ, बहुत खराब लगा। क्योंकि उस समय न तो समझ में आता था, ग़ज़ल क्या चीज़ होती है, मालूम नहीं था कि उसमें इमोशन क्या होता है. एक बार जब मैं कॉलेज में थी तो 'गीत गोविन्द' करवाया गया तो मैं आपको बताऊँ कि मैं फर्स्ट ईयर में ही थी या सेकेण्ड ईयर में। शायद सेकेण्ड ईयर में। कोरियोग्राफ़र और संस्कृत की जो लेक्चरर थीं, और प्रिंसीपल - इन तीनों के लिए मुझे यह समझाना कि 'कुरु यदुनन्दन में क्या हो रहा है।‘ मुश्किल हो गया था क्योंकि उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि वे मुझे कैसे समझाएँ, क्योंकि मैं बहुत छोटी थी। पर यह बात मैं सत्तर के दशक की कर रही हूँ।

हाँ, आज तो?

आज तो चीज़ें बहुत बदल गयीं।

वर्जिनिटी के मायने बदल गये?

बहुत बदल गये। बिल्कुल बदल गये और बेहतर हैं...... बिल्कुल बेहतर हैं। हर व्यक्ति को अपनी तरह से अनुभव लेने का जीवन में अधिकार है और उसके जीवन पर उसका पूरा अधिकार है। मैं इसे नहीं मानती कि आप ने जो अनुभव न लिया हो उसका अभिनय आप नहीं कर सकते और भाव और भावना तो ऐसी चीज़ हैं, जो महसूस किये जा सकते हैं।

बिल्कुल, जिसे परकाया प्रवेश कहते हैं?

हम यह भूल जाते हैं कि हमारे समाज में अभी भी जब लड़कियों को बड़ा किया जाता है, तो उनको अनजाने में बहुत कुछ बता दिया जाता है, या वह जान जाती हैं कि उन्हें तो परायेघर जाना है और विवाह के बाद उन्हें तो यह करना है, वो करना है। उनको यह चीज़ें समझ में आ जाती हैं बिना बताये। इसलिए वो अनभिज्ञ नहीं होती हैं, बाद में वो बड़ी होकर अपना क्या निर्णय करती हैं, वह अलग बात है। वह इतनी सजग तो होती हैं, हर हालत में।
जैसे बहुत ही पुराना उदाहरण, मीरा का उदाहरण मैं आपको दूँ कि मीरा ऐसी कवियत्री है जिसके लिए आपको इतिहास देखने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उन्होंने काव्य में इतिहास लिख दिया। काव्य में ऐसी अकेली कवियत्री हैं, जिन्होंने अपने बारे में इतना कविता में लिखा है, ज़्यादातर सिर्फ अपने ही बारे में। किसी और के बारे में नहीं है। चाहे भक्तिकाल से आधुनिककाल तक आ जाइए, सबने भगवान के लिए या दूसरों के लिए लिखा, या निर्गुण लिखा है। मीरा ने सिर्फ़ अपने लिए लिखा है। और वह भी कविता में - क्योंकि जब मैंने मीरा पर काम किया - ' और दूसरो न कोई'( प्रेरणा जी का प्रोडक्शन)। मैंने मीरा की वो सात स्टेजेज़ लीं। क्योंकि मुझे मीरा की वह दुर्लभ कविताएँ मिली थीं, जिनमें मीरा श्रृंगार कर रही हैं और कह रही हैं 'आज तो रंगीली रैन प्रीतम पांवणा हो राज'/ अंजन सारूँ धन वारूँ/ सेज सजाऊँ तन-मन वारूँ' - सब कुछ एक साथ कह रही है, तो यह कोई मजाक नहीं है। फिर आप खाली भक्तिमति मीरा से तानपुरा क्यों बजवा रहे हैं? तम्बूरा क्यों बजवा रहे हैं? यह तो एक पूरी औरत की तैयारी है अपने प्रियतम को बिस्तर तक लाने की और इसमें कोई बुराई नहीं है। क्योंकि संयोग श्रृंगार, सम्भोग श्रृंगार सभी हमारे यहाँ है। फिर वो उलाहना करती है- 'आज तो पेंच पाग के नीके, राणा कौन बनाए दे/ कान्हा कौन बनाए दे/ ऐंदी-बेंदी चाल कहाँ सीखे वो/ प्यारे राते नैनन ये।' क्यों कह रही है? कौन कह रही है? यह मीरां कह रही है। किसलिए कह रही है? राधा कहती तो बात अलग थी? पर मीरा ही कह रही है और उसके बाद अन्त में कहती है कि जैसे भी हो तुम मेरे हो। मुझे तुम जैसे भी हो मंजूर है। यहाँ समर्पण आ जाता है। वह श्रृंगार से होते हुए समर्पण तक पहुँच गया। श्रृंगार से होते हुए भक्ति पर. हाँ। कहने का मतलब मीरा का जो चरित्र है या मीरा का जो व्यक्तित्व है, मेरा पूरा प्रोग्राम इसी पर था कि “मीरा इज द वूमन फर्स्ट, देन अ सेंट पोएटेस” क्योंकि एक स्त्री से आहिस्ता से उसका सेंटलीहुड (संत होना) तक बढ़ना हो रहा है, जिसके लिए पहले आपको व्यक्ति तो होना ही पड़ेगा, तब आप संत बन सकेंगे।

कबीर के साथ भी तो ऎसा ही तो है. अभी डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी की किताब आई है 'अकथ कहानी प्रेम की, उसमें भी, लेखक ने ज़ोर देकर कहा है कि कबीर संत होने के पहले वह कवि है, कवि होने से पहले एक सजग बुद्धिमान, देशज आधुनिकतायुक्त, तार्किक व्यक्ति हैं ।

हाँ, सुना है, बड़ी ही अच्छी किताब है। अब पढूँगी. हाँ, बिल्कुल कबीर एक कवि हैं। उनकी कविता पर ही बात करो? व्यक्ति हैं। मीरा व्यक्ति है और उसके बाद वह व्यक्ति औरत होते हुए संत हो जाता है।

हम प्रेम और भक्ति की ही बात करते हुए उस पराकाष्ठा की बात कर रहे थे, जहाँ आप इन्हें नृत्य में विभाजित करती हैं.

मुझे लगता है कि मैं अपने नृत्य में ये सब विभक्त कैसे करती हूँ, ये नहीं बता सकती, क्योंकि यह अपने आप भीतर से आता है। मैं बहुत संवेदनशील हूँ शब्दों के लिए, तो मुझे शब्द भी राह दिखा देते हैं - अगर मैं किसी काव्य को लेकर काम कर रही हूँ। संगीत से मैं मुख्यत: निर्देशित होती हूँ तो मेरा नृत्य संगीत के पीछे ज़्यादा भागता भी है तो उससे भी चीज़ें परिभाषित होती हैं।
कई बार मुझे लगता है कि भक्ति, प्रेम, श्रृंगार, समर्पण - इन सबके बीच में बहुत अन्तर है ही नहीं। इनके बीच की जो फाँक है इतनी गहरी नहीं है, बहुत हल्की है। हाँ, बहुत ही हल्की है - कहाँ प्रेम भक्ति हो गया, कहाँ प्रेम समर्पण हो गया - आपको पता भी नहीं लगेगा, वो अनजाने में होता है . अचानक,आपको पता लगता है- “अच्छा! यहाँ से होकर गुज़र गये हम।“

आप कथक के अमूर्तन पर शोध कर रही हैं । इस विषय के बारे में जानना चाहूँगी। क्योंकि 'अमूर्तन' शब्द कथक में - परम्परा से आया है या ये कोई नया प्रयोग है?

नया प्रयोग तो कतई नहीं है। कथक में सदा से मौजूद है अमूर्तन। जैसे हम अभी सूफी की बात कर रहे थे। कथक का जो नृत्य है - क्योंकि मैं कथक को भाषा मानती हूँ पूरी तरह से, इसलिए कि वो भाषा ही की तरह अपने आपमें इतना समृद्ध है, क्योंकि इतना सारा व्याकरण जो हमें विरासत में मिला है. जो भी कथक सीखता है, उसे मालूम है कि क्यों वे वर्षों तक तोड़े - टुकड़े और परने ही सीखते रहते हैं।

हाँ, हम लोग ऐसे ही सीखें हैं, बरसों – बरस व्याकरण बस, अलग अलग तालों पर तिहाईयाँ, तोड़े - टुकड़े और परण, गत और गतनिकास.

कई लोगों के लिए कथक बस यही है. होता यह है कि अगर कोई कलाकार नृत्य कर रहा है, तोड़े-टुकड़े खत्म करके अगर उसने कहा कि मैं अभिनय करने जा रहा हूँ या जा रही हूँ, तो पीछे से कोई कहेगा- “:अच्छा! कथक खत्म हो गया।“ यह मैंने सुना है जयपुर में, दर्शक दीर्घा में से, क्योंकि उनके हिसाब से कथक वही है जो तोड़े-टुकड़े, बोल हैं। अभिनय नृत्त में भी है, नृत्य में भी अभिनय अलग से आता है, मूर्त अभिव्यक्ति की तरह. भजन, ठुमरी, तराने में.

लयकारी है?

हाँ, यह जो लयकारी और ये जो बोल हैं, यही कथक का सबसे बड़ा अमूर्तन है। क्योंकि न तो इन बोलों का कोई अर्थ है - अपने आपमें ये निरर्थक बोल हैं। जो 'नृत्त' है खाली। यह 'नृत्य' की बात नहीं है। 'तक तक तिगदा दिग दिग थई” का कोई अर्थ नहीं है, दर्शक इसमें स्वयं अर्थ भरते हैं, या जैसा है वैसे उसका आनन्द लेते हैं। अमूर्तन में क्या करते हैं? जब आप पेंटिंग देखते हैं, एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग देखते हैं, तो यह एब्स्ट्रेक्ट क्या है? जो जैसा जहाँ है, उसे वैसा स्वीकार कर लीजिए - वह अमूर्तन है। एक ही चीज़ को हम दोनों देख रहे हैं - आप कुछ और देख रही हैं, मैं कुछ और देख रही हूँ, इसलिए मैं इस बात के सख्त विरोध में हूँ कि आप बोलों को खुद कोई जामा पहना दें - मतलब आप बहुत सारे उदाहरण देखेंगे कि कई प्रोफेशनल नर्तक खामखाँ में नृत्त के अमूर्त बोलों को कोई न कोई जामा पहना देंगे. युवा नृत्य - कलाकार भी करने लगे कि ये देखिए, इस एक तिहाई में आपको चिड़िया सुनायी देगी।

ये गिमिक्स हैं नृत्य के।

हाँ, गिमिक्स हैं, क्योंकि नाचते हुए नर्तक को और दर्शक को वह लय ही सुनाई देती है। लय का अपना मज़ा होता है। मेरे हिसाब से कथक का जो नृत्त पक्ष है, वो कथक का अमूर्तन है , उसमें इतना विस्तार है, वो अपने आपमें कथक को पूरा कर देता है। जैसे आपने कहा, हम तो यही सीखते थे...बरसों तोड़े, तिहाई, गत और परण और वही सीखा सालों - साल और कथक की शिक्षा पूरी ! अब आगे आप का काम इसे ले जाना, नया सीखना और सिखाना, शोध करना.
पं.दुर्गालाल जी जब नृत्य करते थे, नृत्त में ही दो घण्टे का, तीन घण्टे की प्रस्तुति समाप्त हो जाती और दर्शक को यह नहीं लगता था कि कुछ कमी रह गयी। क्योंकि वे ‘ब्रिलियेन्ट परफॉर्मर’ थे। नृत्य का अमूर्तन अपने आपमें पूर्ण होता है, वह पूरी मूर्ति बना रहा है। कैसे बना रहा है? ख़ासतौर से मैंने जो सीखा है नृत्त में। विलम्बित में हम 'गत' करते हैं तो अभिनय की गुंजाइश आ जाती है। 'थाट्' करते हैं तो एक खामोशी, एक अंतराल नृत्य में स्वत: कई अर्थ व कलात्मक अभिव्यक्ति की तरह आ जाते हैं - जो कि शास्त्रीय नृत्य में ज़रूरी है।

एक स्थिरता?

एक स्थिरता, एक शान्त खामोशी। एक स्थिर अन्दाज़? वो अन्दाज़ वहाँ आता है थाट् में। आप कवित्त पढ़ते हैं, वह कथक का नृत्त - भाग है.

कवित्त कथक का नृत्त - भाग है यह मुझे अभी अभी पता चला।

हाँ, कवित्त जो है वो नृत्य में नहीं आता है, नृत्त में आता है. कथक का जो कवित्त पक्ष है, वह नृत्य नहीं है। वो बोल है। बिल्कुल वैसे ही बहुत सारी परनें ऐसी हैं जिसमें शुरू में या तो नृत्त के बोल हैं या तबले के बोल है, बाद में एक पुछल्ले जैसा कविता का बोल जुड़ गया जैसे-- 'मोर-मोर बोले राधा'।
गुरुजी ने एक 'गणेश' परण बनायी थी, जिसके शुरू में ज़्यादातर नृत्त के बोल हैं, बीच में कहीं ‘विघ्नहरण’ आ गया, और अंत में 'नाचे गणपति' आ गया, बाकी सारे बोल नृत्त के ही दुहराए जा रहे हैं। इस परण में पूरा नृत्य अमूर्त है, खाली आपको बोल ही मिल रहे हैं। ये अमूर्त गणेश परन है। दूसरी तरफ है 'गण-गण गणपति गज मुखमण्डल', ये पूरी की पूरी मूर्त गणेश परण है। यह जो है न फरक कथक में, यही है अमूर्तन और मूर्त का फरक है कथक में ।
अब आप द्रुत लय में आ जाइए तो आप 'गत' करते हैं - गत भाव। ये सब भी नृत्त का हिस्सा है। इसमें भी अभिनय है मगर ये नृत्य का हिस्सा नहीं है, ये नृत्त का हिस्सा है - थाट् से लेकर गत, ये सारा नृत्त का हिस्सा है। इसमें कवित्त भी आ गया,तो आपको कथक के इस अमूर्तन में वो सारे हिस्से मिल गये, जिसमें आपको अभिनय अलग से करने की ज़रूरत ही नहीं है। तो यह कथक का अमूर्तन है। और फिर ये अमूर्तन मैं क्यों कहती हूँ कथक में?
मेरा एक बड़ा प्रिय बहस का मुद्दा बना हुआ है, जिसे मैं सब जगह दोहराती रहती हूँ। आपको भी कह देती हूँ कि नाटयशास्त्र में कहा गया है कि संगीत में गायन, वादन, नृत्य। नृत्य तीसरे नम्बर पर आता है। इसके बहुत सारे कारण हैं। पर एक कारण इनके इस क्रम में यह भी है कि गायन में आपको सबसे कम संगत चाहिए। गला ही आपका इंस्ट्रूमेण्ट है। वादन में फिर आपको एक चीज़ लेनी पड़ती है, कोई इंस्ट्रूमेण्ट होना चाहिए- सारंगी या सितार या सरोद। नृत्य में आपको दो और साधन भी चाहिए। तो संगत के आधार पर भी ये एक डिवीज़न है कि सबसे कम संगत जिसके पास है वही सर्वोपरि है या सर्वोत्तम कह दीजिए, कला के रूप में। सर्वोत्तम तो नहीं मानेंगे? सर्वोपरि कहना चाहिए। वो सुविधा की वजह से है।
सुविधा की वजह से इसलिए क्योंकि आज अगर मुझे रियाज़ करना होगा तो मुझे प्रॉपर जगह चाहिए। इतना तो कम से कम एक जगह चाहिए जहाँ मैं नृत्य करूँ। सीमा शर्मा एक गायिका हैं, जो बॉम्बे में रहती हैं। वह मेरे साथ हॉस्टल में रहती थी। हम रात में घूमते थे, तो वह अपना रियाज़ करती, चलते-चलते। मैंने कहा- क्या अच्छी बात है भई! तुम तो रियाज़ कर रही हो, हम तो नहीं कर पा रहे हैं। हमें तो एक खुली जगह चाहिए, दुपट्टा चाहिए, घुँघरू चाहिए। वाद्य वाला भी कहीं भी बैठ सकता है, पर उसमें तो एक वाद्य चाहिए ही चाहिए और हमें सब कुछ, तबला, हारमोनियम, पखावज की संगत और हमें जगह पूरी चाहिए करने के लिए।
अब अगर मैं सिर्फ़ नृत्य की बात करूँ, तो कथक ऐसा नृत्य है जिसमें सबसे कम संगत चाहिए। क्योंकि आप अगर ऐसी ताल लगाते रहोगे, मैं दो घण्टा नाचूँगी। आप मुझे खाली 'बीट' दीजिए, तो मैं पूरा नाच जाऊँगी। मुझे न नगमा चाहिए, न तबला चाहिए। क्योंकि कथक का जो नर्तक या नर्तकी है, वह ताल को समाहित करके ताल को ही नाच देता है, ताल का स्वरूप ही नाच लेता हैं। हम कह रहे हैं कि ‘धमार’ देखिए, तीन ताल देखिए। हम नहीं कहते कि हम ‘धमार’ में नाच रहे हैं। आपने कभी नहीं सुना होगा कि मैं इस ताल में नाच रही हूँ। जैसे मैं अष्टमंगल प्रस्तुत कर रही हूँ, मैं धमार प्रस्तुत कर रही हूँ, मैं तीन ताल प्रस्तुत कर रही हूँ - हमेशा ऐसे कहते हैं। इसका मतलब आप ताल के स्वरूप को ही नाच लेते हैं। तो वह ताल का स्वरूप आपके दिमाग में, आपकी देह में समा गया अन्दर। ताल आपके पैरों में है,तबला के बिना भी आप नाच लेंगे. खाली आपको ताल चाहिए।
उस अमूर्तन का वह पूरा कलात्मक एहसास आप दिला सकते हैं। मैंने इसको प्रस्तुत् किया था और ये करने के लिए ही कि कैसे आप एक सम्पूर्ण प्रस्तुति बिना किसी काव्य या बिना किसी और सहायता के कर सकते हैं। केवल बीट के साथ और दूसरे किसी और साहित्य की मदद के बिना।
आज अगर आप भरतनाटयम में या किसी और देखेंगे, तुलनात्मक रूप तो देखना पड़ता है, तभी आपकी समझ में आता है कि वहाँ 'अलारिपु' है, उसके बाद 'जतिस्वरम्' आता है। 'जतिस्वरम्' जो है, वह उनका नृत्त का हिस्सा है। 'जतिस्वरम्' पर मैंने एक वरिष्ठ नृत्यांगना से बैठकर बात की थी, जब मैं नृत्य के तुलनात्मक अध्ययन पर काम कर रही थी, मैंने पूछा- आप कितनी देर नाचते हैं? मैंने लीला सैमुअल से भी बात की, उन्होंने कहा कि- पन्द्रह-बीस मिनट, पच्चीस मिनट। मैंने कहा- कभी दो घण्टे नाचते हैं? उन्होंने आश्चर्य किया तो मैंने बताया, रुक्मिणी देवी जी नाचती थीं, पर आज कोई नहीं चाहता, वह नाचती थीं एक ज़माने में, पर आज वह परम्परा तो रही ही नहीं, हमने तो नहीं देखा।
आज आप किसी भी नृत्य फोर्म में नृत्त को इतना लम्बा नहीं देखेंगे, क्योंकि उसके बाद ‘पदम परनम्’ आ जाता है कि आपने दूसरे साहित्य को अपने साथ ले लिया है। कथक में मैं अगर नृत्त नाच रही हूँ तो बाहर से कोई मदद नहीं ले रही हूँ। मैं कथक का अपना ही साहित्य-कवित्त नाच रही हूँ, मैं कथक की अपनी गतें, अपनी गतिका, थाट्, उठान, परन नाच रही हूँ जो कथक का अपना है - और उसमें कहीं बाहर से कोई मदद नहीं है। यह इतना बड़ा अमूर्तन है, जिसमें मैं सिर्फ़ अपने अर्थ भर रही हूँ। जो मुझे कहना है, वह अपनी देह के द्वारा मैं कह रही हूँ, तो उसमें उन बोलों को अर्थ मिल रहा है। अब उसी बोल को आप चाहेंगी तो आपको कुछ और अर्थ मिल जाएगा। तो यह साबित होता है कि कथक में नृत्त स्वयं कितना बड़ा और सम्पूर्ण अमूर्तन है - जिसे हम उपेक्षित नहीं कर सकते।

- आगे पढ़ें

Top
 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com