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साक्षात्कार

मेरा साहित्य संसार के अनुराग से उपजता है

अशोक वाजपेयी से मनीषा कुलश्रेष्ठ की बातचीत


मनीषा कुलश्रेष्ठ का सवाल - महज एक शुरुआती सवाल, बस शुरुआत भर के लिए, आपने कविता पहले शुरू की या आलोचना । दोनों को एक साथ निभाया कैसे ? फिर आलोचना छोड़ क्यूं दी ।

अशोक वाजपेयी का जवाब - शुरू तो कविता से ही किया, उम्मीद है कि अन्त भी उसी से होगा । पहली कविता 9 बरस की उमर में, पहली आलोचना जब 17 बरस का था । अपने समय, अपनी दुनिया को समझने के लिए दोनों जरूरी हैं, उनमें सरोकारों, उत्सुकताओं और तनावों की साझेदारी रही है, सो निभाने में कोई बड़ी दिक्कत नहीं हुई । ऐसा भी हुआ है कि बरसों कविता नहीं लिखी, आलोचना लिखी, आलोचना नहीं लिखी, कविता ही लिखता रहा । छोड़ा कुछ नहीं क्योंकि संसार से अनुराग किसी विराग के लिए अब तक नहीं छोड़ा । आलोचना छोड़ी नहीं, ‘कभी–कभार’ जैसा पिछले 18 वर्षों से अबाध चल रहा, साप्ताहिक स्तम्भ आलोचना की ही एक अधिक लोकप्रिय विधा है ।

सवाल - बचपन में चलें, साहित्य की बारहखड़ी की शुरुआत कब और कैसे ? गद्य और कविता में कविता ने ज्यादा क्यों मोहा ? प्रथम साहित्यगुरु ?

जवाब - अपने माता–पिता की पहली सन्तान था । अकेला महसूस करता था । शब्दों से खेलना शुरू किया, सो कविता उसका अच्छा माध्यम लगी । यों तो बाद में पर्याप्त आलोचनात्मक गद्य लिखा या बोला पर शुरू में कविता की लयात्मक अभिव्यक्ति और संभावना ने ही मोहा । पहले साहित्यगुरु तो मेरे नवमी–दसवीं कक्षाओं के अध्यापक लक्ष्मीधर आचार्य थे, जिन्होंने पन्त, अज्ञेय आदि की कविता पढ़वायी । फिर अज्ञेय से बहुत सीखा ।

सवाल - युवावस्था में क्या मार्क्स ने मोहा ? हां तो क्यूं ? नहीं, तो क्यूं नहीं ?

जवाब - बहुत सारे मार्क्सवादी विचार जैसे समता, शोषण विहीनता, न्याय आदि ने तब मोहा था और मैं उन्हें आज भी बहुत मूल्यवान मानता हूं, लेकिन बाद में, इन विचारों के नाम पर जो नृशंस तानाशाहियों, हिंसा, नरसंहार आदि हुए और लेखक–संगठनों ने अत्याचार–अनाचार किए, उनसे मोहभंग भी होता रहा ।

सवाल - आप जब युवा थे, मुक्तिबोध दुनिया से जा रहे थे । किसी कवि के ऐसे संघर्ष और मृत्यु ने क्या असर डाला, विस्तार से बताएं, उस समय और कविता को लेकर ।

जवाब - मुक्तिबोध की स्थिति और मृत्यु दोनों ने गहरा प्रभाव डाला । 47 वर्ष का होने से पहले वे दिवंगत हुए और उनके जीते उनका एक कविता संग्रह तक प्रकाशित नहीं हो पाया । अपनी कविताओं में लम्बा–जटिल रूपाकार चुनकर वे अपने सत्य पर अटल रहे, मुक्तिबोध हमारे समय के एक बड़े सत्याग्रही थे । मैंने यथासमय, यथासम्भव बाद में कोशिश की । निजी स्तर पर ‘पहचान’ पत्रिका में 15 युवा कवियों के पहले संग्रह छापकर और सार्वजनिक स्तर पर मध्यप्रदेश में पुस्तक खरीद में कविता को वरीयता देकर । अपने यत्किंचित सच पर अड़ा रहकर मैं समवर्ती कविता का शायद लगभग प्रतिलोम बन गयाl

सवाल - आप मुक्तिबोध के निकट रहे, विनोद कुमार शुक्ल के आप अनन्य प्रशंसक हैं। आपने स्वयं कवि होते हुए, इन दो सर्वहारा कवियों पर बहुत लिखा है और उन्हें हाईलाइट किया । इसके पीछे क्या प्रेरणा रही ? लोग कहते हैं कि मुक्तिबोध को मिथ बनाकर पेश किया गया ।

जवाब - अब तो इन दोनों कवियों के प्रशंसकों और उन पर गम्भीरता से लिखने वालों की बड़ी संख्या हो गई है लेकिन इन पर गम्भीरता से आलोचना पहले लिखने वालों में मैं था प्रेरणा थी दो जटिल कवियों को आलोचना के द्वारा थोड़ा सम्प्रेष्य बनाने का उपक्रम । हालांकि मैंने अपने पहले निबन्ध ‘भयानक खबर की कविता’ में मिथ बनने के प्रति आगाह किया था, मुक्तिबोध कई कारणों से मिथ बनकर रहे । कई और लेखक थोड़ी देर के लिए मिथ बने हैं पर मुक्तिबोध और अज्ञेय अभी तक मिथ बने हुए हैं तो यह उनके कालजयी सत्व का ही साक्ष्य है ।

सवाल - आप स्वयं को कितना सफल कहेंगे एक कवि के तौर पर ? कलाविद् के तौर पर आलोचक के तौर पर ?

जवाब - अपनी सफलता का आकलन मैं नहीं कर सकता, वह करना अनैतिक होगा पर मेरा आग्रह सफलता पर नहीं, सार्थकता पर रहा है और उसका निर्णय भी दूसरे ही कर सकते हैं । मैं बुनियादी रूप से कवि हूं और आलोचना, कलाप्रेम आदि सब उसका ही विस्तार या रूपान्तर रहे हैं ।

सवाल - आपकी आलोचकीय दृष्टि ने कथा साहित्य से दूरी बरती, गद्य से अरुचि की वजह ? हालांकि निर्मल वर्मा और वैद साहब के लेखन के आप मुरीद रहे हैं।

जवाब - गद्य से मेरी कोई दूरी या उसमें कोई अरुचि नहीं है, मैंने बहुत सारा कथा साहित्य पढ़ा है । विदेशी भी लेकिन मुझे लगा कि आलोचना में कुछ सार्थक शायद कविता और कलाओं के बारे में ही कर सकता हूं । एकाध बार सोचा था कि कभी हिम्मत जुटा पाऊं तो निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद और कृष्णा सोबती के कथासाहित्य के बारे में कुछ लिखूं । तीनों में मुझे कथा में गहरी कविता दिखाई देती रही है और तीनों ने अपने–अपने ढंग से कथाभाषा और शिल्प का निर्भीकता से स्थापत्य बदला है पर हिम्मत नहीं जुटा पाया ।

सवाल - आपका सरोकार हालांकि कलाओं के समस्त स्वरूपों के प्रति सघन रहा है । कला और बाजार के बीच भी आपने खुद को पाया है । लोगों ने आपके दिए प्रा्राइस टैग भी लिए हैं लेकिन कला के प्रति इतना करके भी आप हिन्दी में कोई दूसरे आर्ट क्रिटिक नहीं बना सके जो कला और साहित्य के बीच सामंजस्य बिठा सकें । हिन्दी पत्रकारिता तो उस स्तर पर खरी ही नहीं उतरती ।

जवाब - यह कहना अधिक सही होगा कि शास्त्रीय संगीत और नृत्य, ललित कलाएं मेरे ध्यान और अनुराग में प्रमुखता से रही है । बाजार तो ललित कलाओं में ही, वह भी लगभग डेढ़ दशक पहले आया है । उसने कलालोचना को निश्चय ही प्रभावित किया है पर वह उसे भ्रष्ट या विपथगामी नहीं कर पाया है । ऐसे आलोचक बनाना मेरा कर्तव्य तो नहीं था । फिर भी उदयन वाजपेयी, यतीन्द्र मिश्र आदि ने इसी क्षेत्र में सार्थक काम किया है ।

सवाल - आप एक पूर्णकालिक आलोचक और रचनाकार अंशकालिक आलोचक में से किसे बेहतर मानते हैं? क्या एक रचनाकार सुघड़ आलोचना लिखकर, लीक से बंधी बंधाई आलोचना को खारिज कर रहा होता है ? ‘रचनात्मक समीक्षा’ की परिभाषा आखिर क्या हो ?

जवाब – पूर्णकालिकता और अंशकालिकता अपने आपमें कई बार शुद्ध भौतिक कारणों से होती है यानी रुचिवश नहीं, विवशता की तरह । उनमें अगर कुछ सार्थकता हो पाए तो उसकी सीमा का अतिक्रमण हो जाता है । रचनाकार जब आलोचना लिखता है तो वह अक्सर लीक से बंधी आलोचना की सीमाएं लांघ रहा होता है । यह साहस उसे रचना से मिलता है । हमारे यहां अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, मलयज आदि इसके उजले उदाहरण हैं ।

सवाल - आज का युवा पाठक अशोक जी के आलोचकीय स्वरूप से नावाकिफ है, कभी–कभार के बहाने जरूर वह उस बौद्धिक और कलाविद् दृष्टि से एक वैश्विक कला और साहित्यिक खिड़की से झांक लेते हैं। क्या कविता पर आगे कोई आलोचकीय किताब पाइप लाइन में है ?

जवाब - अपने प्रिय तीन बड़े कवियों अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, पर अब तक मैंने जो लिखा है, उसके साथ–साथ तीन नये निबन्धों को शामिल कर एक नयी पुस्तक ‘कविता के तीन दरवाजे’ जनवरी, 2016 के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित होने जा रही है ।

सवाल - मेरे सवाल एक आलोचक या कवि से ही नहीं, बल्कि हिन्दी के समकालीन परिदृश्य पर एक सतत दृष्टि रखनेवाले आकलनकर्ता से भी हैं। आपने हाल ही में युवा कवियों पर कुछ विवादास्पद कहा जिससे सारे युवा कवि निराश हैं। एक समकालीन युवा कविता से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?

जवाब - अगर मैं ज्यादातर युवा कविता से निराश हूं जैसा कि अपने समय और पीढ़ी की भी कविता से रहा हूं तो उनका मन बहलाने के लिए तो कुछ नहीं कह सकता । मैंने सिर्फ एक पुरस्कार के सिलसिले में उसकी निर्धारित अवधि के दौरान निर्धारित आयु सीमा में किसी पत्रिका में प्रकाशित कविता को उसके योग्य नहीं पाया था । वह समूची युवा कविता पर निर्णय नहीं था । मेरी अपेक्षा साहस, कल्पनाशीलता, शिल्प और भाषा में प्रयोगशीलता की है - अगर वह नहीं है जैसा कि मुझे सिर्फ युवा ही नहीं, प्रौढ़ कविता में भी लगता है तो अपनी निराशा या हताशा को छुपाना मुझे अनावश्यक लगता है । अलबत्ता हो सकता है कि मेरी समझ गलत ही हो ।

सवाल - आपने अकसर बल्कि शुरू ही से अपनी कविताओं में, भाषणों में त्वरित प्रज्ञा से नये अनूठे, सटीक शब्द हिन्दी जगत को दिए हैं, लोगों ने चाव से इस्तेमाल किया है । इसकी पारंपरिकता में अपने से पहले आप किसको पाते हैं। संस्कृत में ही कोई हो ।

जवाब - मुझे भले इस कारण कुछ प्रसिद्धि मिल गयी हो लेकिन अनेक नये और सटीक शब्द और पद अज्ञेय, मुक्तिबोध, मलयज, रमेशचन्द्र शाह, मदन सोनी, वागीश शुक्ल आदि ने भी दिए हैं । संस्कृत जानने से शब्द–निर्माण का कौशल स्वायत्त करने में बड़ी मदद मिलती है ।

सवाल - आपने पुरस्कार लौटाया, लोगों ने आरोप लगाया यह कांग्रेस रुझान है, बिहार चुनाव से पहले परिणाम प्रभावित करने की कवायद या सच ही आप स्वयं खुद को इस माहौल में सफोकेटेट महसूस कर रहे हैं।

जवाब - पुरस्कार लौटाने वाले, विरोध करने वाले लगभग एक हजार लोग हैं । लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, इतिहासकार, समाजशास्त्री, फिल्मकार आदि । उनमें से अनेक एक–दूसरे की वैचारिक दृष्टि से विरोधी रहे हैं । उनमें वामपन्थी, वामविरोधी, स्वतंत्रचेता अनेक तरह के लोग शामिल हुए हैं । जो कुछ हुआ, यह नोट करना चाहिए, स्वत-स्फूर्त ढंग से हुआ । अभी कुछ दिनों पहले जब हम कुछ लोग राष्ट्रपति जी से मिले तो उन्होंने स्वयं कहा कि पुरस्कार–वापसी विरोध का एक ढंग है और सब कुछ स्वत-स्फूर्त ढंग से हुआ है । उन्होंने यह भी कहा कि इस विरोध के कारण असहिष्णुता राष्ट्रीय एजेंडे पर आ गई है और उस पर व्यापक बहस हो रही है । हमारा आकलन है कि असहमति की जगह कम हो रही है, आप क्या खाएं, कहें, सोचें, इस पर तरह–तरह से प्रतिबन्ध लग रहे हैं, धर्म, विश्वास और अभिमत तथा विचार की अल्पसंख्यकता को देशद्रोही करार दिया जा रहा है, बहलता को एकात्मकता से दबोचने की कोशिश हो रही है आदि, यह सब बेहद बेचैन करने वाला है ।

सवाल - आप एक सहिष्णु समाज की कैसी आदर्श कल्पना करते हैं? क्या पिछली सरकारों को आप बरी कर सकते हैं, दाभोलकर और सफदर की हत्याएं किस असहिष्णुता के तहत हुर्इं ?

जवाब - ऐसे समाज सहिष्णु कहलाएगा जो हर तरह की दृष्टि को जगह देगा, असहमति का सम्मान करेगा, स्वतंत्रता, समता, न्यास के मूल्यों को सक्रिय और सशक्त करेगा अभिव्यक्ति और आचरण दोनों में । 1 नवम्बर, 2015 को हुए अपने आयोजन में हमने जो वक्तव्य खुले अधिवेशन में सर्वसम्मति से पारित किया, उसमें साफ कहा गया था, ‘हम सभी राजनीतिक दलों, केन्द्र और राज्य सरकारों से मांग करते हैं कि वे अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करें और ऐसे तत्त्वों को प्रोत्साहित या कर्म करने और उन्हें संरक्षण देने से बाज आएं । वे ऐसी संस्थाओं, समूहों और व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करें जो अभी नफरत, हिंसा का माहौल बनाकर भारत की संवैधानिक आत्मा को जख्मी कर रहे हैं । हम उन्हें याद दिलाना चाहते हैं कि राजनीतिक दल और सरकारें भारतीय संविधान से ही अपनी वैधता पाती हैं और इसलिए उनकी जिम्मेदारी है कि वे संविधान के मूल सिधान्तों और दृष्टि को दरकिनार या नष्ट न करें ।

सवाल - संस्कृत को आजकल एक अंग्रेजीदां वर्ग के पूर्वाग्रह के तहत हिन्दुत्व से जोड़क़र देखा जा रहा है । आगे क्या ऐसी भय जगाने वाली सम्भावना तो नहीं कि हिन्दी इस श्रेणी में आ जाए । क्या वैदिकता और वैदिक संस्कृति को आप भी कट्टरता से जोड़ते हैं? क्या इसे हम हैरिटेज मानकर सहेज सकते हैं? निरपेक्ष होकर, इसका सुंदर–स्वस्थ स्वरूप लेकर, बुरी चीजों को हटाकर ।

जवाब - इस समय परम्परा की दुर्व्याख्या का एक अभियान ही चला हुआ है । जो परम्परा हजारों वर्षों से बहुलता, संवाद और विवाद को प्रश्रय देती आई है, उसे एकात्म बनाने की चेष्टा की जा रही है । संस्कृत एक महान भाषा है - हमारा बहुत उजला उत्तराधिकार है । जैसे हमारी परम्परा में वैसे ही संस्कृत । ऐसा भी बहुत है जो आज हमारे काम का नहीं है । उसे तजना ही होगा पर संस्कृत, अपने श्रेष्ठ रूप में, हमें निर्भय, विनयशील और प्रश्नवाची, बनाती है पर अलग उसके सिर्फ कर्मकांडी रूप लादे जाएंगे तो उसे लेकर गलतफहमियां जागेंगी, बढेंगी । यही हिन्दी के साथ भी हो सकता है ।

सवाल - विभिन्न कलाओं के आपसी सामंजस्य के लिए आपने कई समारोहों, संस्थाओं, पत्रिकाओं की नींव डाली । मसलन भारत भवन, खजुराहो महोत्सव, कलावार्ता लेकिन इन्हीं से आपने कालांतर में स्वयं को निर्वासित पाया । इसकी वजहें क्या थीं ? आपका अपना मोहभंग या बदलती सरकारें। अब ये संस्थाएं विनिष्टप्राय- हैं, अपनी जायी इन संस्थाओं की अकालमृत्यु या विचलन का दुख तो होता होगा ?

जवाब - यह सही है कि मैंने एक हजार से अधिक आयोजन किए, बीसियों संस्थाएं बनार्इं जिनमें से अधिकांश कलाओं से संबंधित हैं । उनमें से अनेक ने व्यापक प्रतिष्ठा अर्जित की लेकिन इनमें से अधिकांश सरकारी पहल और पोषण पर आधारित थीं क्योंकि एक सिविल सेवक के रूप में ऐसी पहल कर सकने का मुझे अवसर मिलता रहा और मैं उनका भरपूर उपयोग करता रहा । कालान्तर में सिविल सेवा की पद्धति से मेरा तबादला आदि हुआ । भाजपा सरकार ने 1990 में मुझे भारत भवन से हटाकर उसे हथियाया और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति और प्रतिष्ठा प्राप्त एक संस्था को नष्ट कर दिया, आज उसका स्तर लगभग स्थानीय हो गया है । अपने किए को इस तरह नष्ट या अवमूल्यित किए जाते देखना मेरे जीवन के उत्तरकाल का सबसे दुखद–त्रासद मुकाम है । मैं रिटायर होकर इसलिए भी भोपाल नहीं गया जहां यह सत्यानाश सबसे अधिक हुआ है ।

सवाल - रजा और अपनी दोस्ती के बारे में बताएं । रजा की कला पर आपकी पुस्तक के बारे में भी कि वह किस आयाम को रेखांकित करती है ?
रजा फाउंडेशन बहुत उल्लेखनीय काम कर रही है कला के माध्यम से । आर्ट मैटर और बहुत से कला, साहित्य, सिनेमा को लेकर संवादपरक कार्यक्रम । रजा फाउंडेशन के माध्यम से और आप क्या करना चाहते हैं?

जवाब - रजा साहब से दोस्ती हुए लगभग चार दशक होने को आए । उनसे अधिक उदारचरित व्यक्ति मुझे जीवन में कोई और नहीं मिला । कलाकर्म के प्रति उनकी निष्ठा भी गहरी, अटल और अनूठी है । उनकी रुचि हिन्दी कविता में गहरी रही है और उन्होंने कई कवियों की, जिनमें मैं तक शामिल हूं, पक्तियों का अंकन अपने चित्रों में किया है । स्वयं शुरू में कठिन जीवन संघर्ष करते हुए भी उनकी दूसरे की, खासकर युवाओं की मदद करने की अचूक प्रवृत्ति रही है । मैंने उनके 85 वर्ष पूरे होने पर अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी - ‘रजा ए लाइफ इन आर्ट’ उनके साथ मिलकर आत्मवृत्तात्मक एक पुस्तक हिन्दी और अंग्रेजी में लिखी, ‘आत्मा का ताप’ । दोनों उनकी कला–साधना और जीवनसंघर्ष की गाथाएं हैं ।
रजा फाउंडेशन रजा साहब द्वारा दूसरों के लिए एकाग्र संस्थान है । उससे तीन पत्रिका भी निकलती है - ‘समास’, ‘स्वरमुद्रा’ और अंग्रेजी में ‘अरुप’ । हम बहुत सारी संस्थाओं को वित्तीय सहायता भी देते हैं । जिनमें खोज, सहमत, दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, पुनश्च आदि शामिल हैं । कई प्रयोगधर्मी आयोजनों की भी हमने सहायता की है । कई पुस्तकों के प्रकाशन में हमने पेंगुइन इंडिया, बोधना, मुंशी मनोहर लाल आदि की मदद की है । संवाद के कार्यक्रम हम कोलकाता, बेंगलुरु में भी आयोजित कर रहे हैं । मुम्बई, चेन्नई, गोवा आदि में भी जल्दी ही शुरू होंगे ।

सवाल - आप उस समय के बारे में बताएं, जब कविता और कथा साहित्य में आज सी फांक नहीं थी । आप निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद आदि के साथ संवादरत थे । अब यह समय ऐसा क्यों हो चला है ?

जवाब - वह बहुत अच्छा समय था । कथाकार और कवि एक–दूसरे को पढ़ते, समझते और सराहते थे । मेरी ‘कल्पना’ में कुछ कविताएं 1958 में छपी थीं तो सबसे अधिक प्रशंसा निर्मल वर्मा से मिली थी । कृष्ण बलदेव वैद भारत भवन में अपने युवा लेखक शिविरों में कवियों को जरूर बुलाते थे । उन्होंने अर्जेण्टीना के एक कवि के हिन्दी अनुवाद किए थे । तब यह समझ थी कि साहित्य एक साझा उपक्रम है । कहानी की बल्कि कथा की बढ़ती लोकप्रियता ने शायद कविता को हाशिये की विधा मानने की वृत्ति उकसाई जिसे, दुर्भाग्य से, राजेन्द्र यादव जैसे संपादक– आलोचक ने एक अभियान सा बना दिया ।

सवाल - आपके बच्चों में किसका रुझान नृत्य और कविता के प्रति है ? नहीं है तो क्या है उनके विकर्षण की वजह ?

जवाब - यों तो किसी का नहीं पर बेटा वास्तुकार है और बेटी सामाजिक कार्यकर्ता । दोनों ही कलाओं में सुरुचि रखते हैं । कबीर तो इधर कविता भी लिखने लगा है और दूर्वा कमजोर वर्ग के बच्चों को रंगमंच में लाने का उपक्रम करती है ।

सवाल - आप स्वयं को प्रेम का कवि कहलवाने में रोमांच महसूस करते हैं। प्रेम में देह की सजग उपस्थिति को आप जरूरी मानते हैं। स्त्री देह का निर्वसन स्वरूप आपकी कविता में कलात्मक सघनता के साथ उपस्थित है । आप स्त्री देह को क्या मानते हैं? उसके अस्तित्व का हिस्सा या एक पुरुष के होने को पूरूरक करता दूसरा अवयव ?

जवाब – कई बार कह चुका हूं कि कम से कम मेरा साहित्य संसार के अनुराग से उपजता है और मैं उसकी अनेक विडम्बनाओं के साथ उसका गुणगान ही करता रहा हूं । रति, श्रृंगार, देह आदि पर रचने की भारत में लम्बी और प्राचीन परम्परा है, मैंने अपने समय में उसे पुनरायत करने की कुछ चेष्टा की है । आधुनिकता ने हमारे यहां अक्सर और इन दिनों तो अधिक ही पुरुष में विद्यमान स्त्री और स्त्री में समाए पुरुष को दबाने–धकियाने की कोशिश की है । दोनों स्वतंत्र हैं और पूरक भी । एक दूसरे के बिना अधूरा है ।

सवाल – संस्कृतिकर्मी एवं थियेटर के पुरुरोधा नेमीचंद्र जैन जी आपके श्वसुर रहे हैं। उनके बारे में कुछ बताएं, कोई संस्मरण । उनके सान्निध्य से कोई आयाम जुड़ा हो आपकी बहुआयामितता में ?

जवाब - स्वगीर्य नेमिचन्द्र जैन बुनियादी रूप से तो कवि–आलोचक थे पर उनकी रंगकर्म में गहरी दिलचस्पी और विशेषज्ञता थी । वे संगीत और नृत्य के भी अच्छे जानकार थे । वे सम्यक बुद्धि थे और रचनात्मक या आलोचनात्मक काम बहुत जिम्मेदारी से करते थे । किसी तरह के अतिवाद से दूर रहते थे । उनकी और रेखा जी की जीवनशैली और पद्धति में कलाएं बहुत घुली–मिली थीं । उनकी प्रतिक्रियाएं कई बार तीव्र और सघन होती थीं पर कभी भी उग्र नहीं । उनमें अपार धीरज था और वे कई बार सहजता से अपने से अलग दृष्टि या विचार को समझ पाते थे । उनसे कई बातें सीखीं और कई नहीं भी सीख पाया ।

सवाल - आपकी लेखनी प्रवाहमयी है, आने वाले साल में क्या लिखने वाले हैं ? कविता या गद्य ? आजकल सिरहाने कौन–सी पुस्तक है ? या कई पुस्तकों का पठन एकसाथ चल रहा है ? जवाब - जनवरी, 2016 में एक नया कविता संग्रह, संख्या में पन्द्रहवां, ‘नक्षत्रहीन समय में’ और अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध पर तीन नये निबन्धों के साथ उन पर अब तक लिखे को संचयित करते हुए एक आलोचना पुस्तक भी आ रही हैं - ‘कविता के तीन दरवाजे’ । फिर सोचता हूं बहुविलंबित कबीर और गालिब पर अपनी पुस्तक अगले वर्ष पूरी कर लूं ।

सवाल - आजकल हर छोटा–बड़ा शहर अपने स्तर पर लगभग असाहित्यिक मिडियाकर सैलिब्रिटीज और कुछेक लेखकों का मजमा लगाकर ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ का नाम दे रहा है, जिनमें कईयों में आप नजर आते हैं। कहीं कष्ट होता है आपको शैलेष लोढ़ा़ के बरक्स अशोक वाजपेयी की या चेतन भगत के बरक्स किसी विनोद कुमार शुक्ल की कमतर लोकप्रियता देखकर ? होता है तो क्या उनका बहिष्कार का ख्याल मन में आता है ? या यह लगता है कि ‘ससुरी हिन्दी’ की वर्तमान स्थिति में कुछ तो धक्का लगा ही रहे हैं ये फेस्टिवल ?

जवाब - इसलिए जाता हूं कि अंग्रेजी के वर्चस्व और चकाचौंध में हिन्दी बुद्धि और जटिलता की आवाज भी सुनी जाए । हर जगह नये श्रोता होते हैं और उनकी प्रतिक्रिया जानकर उत्साह बढ़ता है । हम अपने साथी ऐसे आयोजनों में अक्सर नहीं चुन सकते । अपनी बात दृढ़ता से कहें, इतना ही आपके बस में होता है ।

सवाल - इन ‘लिटरेचर फेस्टिवलों के बरक्स आपने एक बार मुझसे बड़े पैमाने पर एक अलग ढंग से ‘हिन्दी उत्सव’ की सम्भावना पर बात की थी । आपके सांकृतिक सरोकार अब भी सजग हैं, आपके एजेंडा में नया क्या है साहित्य को लेकर ?

जवाब - हिन्दी उत्सव करने का इरादा छोड़ा नहीं है लेकिन उसके लिए आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए बहुत भाग–दौड़ करने की जरूरत है, खासकर जब हम किसी सरकार से कुछ मदद नहीं लेना चाहते । उसके लिए फुरसत निकाल पाना कठिन होता जाता है ।

सवाल - अंत में, 16 जनवरी, 2016 को आप 75 वर्ष पूरे करेंगंगे । अपने जीवन के इन 75 वर्ष को आप किस रूप में देखते हैं?

जवाब – यों तो यह एक अंक है–आयु का अनिवार्य अंक । अपनी सक्रियता और कल्पना में कोई धीमापन महसूस नहीं होता । लगता है कि साहित्य और कलाओं को लेकर पढ़ने, सपने छोड़ने का मुकाम नहीं आया है । अब भी कुछ न कुछ किया जा सकता है । अपने लिए उतना नहीं, जितना दूसरों के लिए । इसका भी ख्याल रहता है कि एक मर्गे–नागहानी और है । सो जब होगी तब होगी, उसकी चिंता या प्रतीक्षा क्यों/क्या करना!

 

प्रस्तुति-  मनीषा कुलश्रेष्ठ    

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