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रोमानिया में हिन्दी

डॉं.सियाराम तिवारी की रोमानिया यात्रा पर हुई बातचीत पर आधारित



हिन्दी भाषा को लेकर देश के अंदर कई तरह की भ्रांतियों भरी हुई बातें सुनने को मिलती हैं। विरोध की लहर जहां हिचकोले मारती है, वहीं गले लगाने वालों की कमी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज सम्पर्क भाषा के तौर पर हिन्दी तेजी से अग्रसर है। मीडिया ने खासकर चैनलों ने इसे एक मुकाम दिलाया है और इसके विरोधी भी इसे अपनाने पर मजबूर हंै। जितना विरोध देश के अंदर देखने को मिलता है उससे ज्यादा प्यार विदेशों में हिन्दी को मिल रहा है। अब रोमानिया को ही ले वहां के लोगों में हिन्दी के प्रति खास झुकाव है। और सबसे अहम् बात यह है कि जो भी भारत आना चाहता है उसकी कोशिश रहती है कि वह हिन्दी सीखकर आये।

आलोचना और अनुसंधान के क्षेत्र में चर्चित नाम है डा. सियाराम तिवारी का। जो हाल ही में रोमानिया की यात्रा पर गये। विभिन्न आयामों पर दर्जन भर से अधिक पुस्तकें लिख चुके डॉ. तिवारी की प्रमुख कृतियों में 'हिन्दी के मध्यकालीन खंडकाव्य`, 'काव्यभाषा`, 'साहित्यशास्त्र और काव्यभाषा`, तुलसीदास का आचार्यत्व`, पाठातुसंधान` आदि शामिल हैं। मूलत: अध्यापन क्षेत्र से जुडे डॉ. तिवारी ने रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती, शांतिनिकेतन में करीब २५ वर्ष तक अध्यापन कार्य किया। बाद में उन्हें पांच साल के लिये पुनर्नियोजन प्राप्त हुआ। वर्ष २००० में केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद ने भी उन्हें अतिथि-आचार्य नियुक्त किया। डॉ. तिवारी ने अपने रोमानिया प्रवास के दौरान पाया कि हिन्दी के प्रति वहां के लोगों के अंदर एक अलग तरह का रूझान था जो बिना रंग-भाषा भेद के था। अपनी रोमानिया में हिन्दी को लेकर उनसे बातचीत हुई। डॉ. तिवारी ने रोमानिया में हिन्दी को फलते-फूलते देखा ,चलिये हम भी रूबरू होते हैं।
'सपिएंत्सियां` यानी 'भारती` के नाम से चर्चित, रोमानिया के टै्रंसिलवेनिया क्षेत्र में म्येर्कुर्याचुक् शहर में स्थित हंगेरियन युनिवर्सिटी ऑफ टै्रंसिलवेनिया के निमंत्रण पर डॉ. तिवारी तुलसी साहित्य के विभिन्न पक्षों पर व्याख्यान देने वहां गये। डा. तिवारी बताते हैं कि उनके व्याख्यानों को सुनने के लिए विश्वविद्यालय के बाहर के लोग भी आते थे एवं पूरे तन्मयता से सुनते और हिन्दी के शब्दों पर ध्यान केंद्रित कर अपने को उसमें डूबा लेते थे। 'रामचरितमानस` और 'विनयपत्रिका` के समय छात्र और अध्यापक दोनो की सहभागिता देखते ही बनती थी।

हिन्दी सीखने की रोमानियावासियों की ललक पर डा. तिवारी बताते हैं कि विद्यार्थियों में हिन्दी सीखने का उत्साह देखते ही बनता है। वे इसे काफी गम्भीरता से लेते हैं। विश्वविद्यालय में हिन्दी सीखने के लिए दो तरह की क्लास चलती है, एक 'एडवांस` और दूसरा 'लोअर`। 'एडवांस` सीखने वाले धीरे धीरे सीखते हैं तो लोअर वाले थोड़ा तेज। कुल मिला कर हिन्दी सीखने की प्रगति ठीक ठाक रहती है। विश्वविद्यालय में एक विभाग है संेटर फॉर ओरियंटल स्टडीज जिसके अध्यक्ष हैं डा. इमरै बंघा। वे बुडापेस्ट यूनिवर्सिटी, हंगरी से हिन्दी और संस्कृत में एम.ए. हैं। साथ ही विश्वभारती, शांतिनिकेतन से हिन्दी में पी.एच.डी. किया हैं। उन्होंने घनानंद के काव्य पर शोध किया और तुलसी साहित्य में गहरी रूचि रखते हुए काम भी किया। डा. इमरै बंघा अकेले हिन्दी पढ़ाते हैं। वहां के लोगों में तुलसी को लेकर खास रूचि देखी गई। वहीं पर बुकारेस्ट विश्वविद्यालय में हिन्दी का स्वतंत्र विभाग है। हिन्दी पढाने के लिए दो वर्ग बनाये गये हैं- 'मेजर` और 'माइनर`। मेजर के तहत चीनी, अरबी, फे्रंच, इटालियन, रूसी और इंग्लिश भाषाएं शामिल हैं। वहीं पर माइनर के तहत हिन्दी, फारसी, कोरियन आदि भाषाएं शामिल हैं। मेजर भाषाओं के लिए प्रति सप्ताह पंद्रह और माइनर के लिए दस घंटे निर्धारित है। हिन्दी के दो ही अध्यापक हैं प्रो. थेबान और सबीना।

जहां तक रोमानिया में हिन्दी के प्रति लोगों की रूचि का सवाल है तो डा. तिवारी बताते हैं कि हिन्दी के प्रति वहां लोगों में एक खास तरह का जजबा देखा और उन्हें हिन्दी सीखने के प्रति लालायित होते भी देखा, जो बिना किसी दबाव के था। और जो भारत आना चाहते हैं वे चाहते है कि हिन्दी सीखकर ही आये। डॉ. तिवारी का मानना है कि वहां के छात्रों और अध्यापकों को तुलसीदास के साहित्य में विशेष रूचि है। वे ऐसा समझते हैं कि तुलसीदास के साहित्य को पढ़कर भारतीय जन-जीवन को समझ सकेंगे।

रोमानियावासी भारत में खास दिलचस्पी लेते हैं और भारत आ चुके लोग बार-बार आना चाहते हैं। किसी भारतीय के रोमानिया में मिलने पर उनका जोरदार स्वागत करते हुए भारत, राजकपूर की फिल्मों और हिन्दी पर वे चर्चा करते हैं।

संजय कुमार
 अक्टूबर 1, 2006
 

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