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पद्मभूषण पं. किशन
महाराज के साथ यात्रा के कुछ क्षण' रेशमी टसर का कुर्ता, सफ़ेद पाजामा पहने, चेयर कार में सामने की सीट से उठकर दरवाजा खोलकर बाहर जाने वाले व्यक्ति के लम्बे, फहराते श्वेत धवल केशों पर दृष्टि पड़ी तो मैं व मेरे पति चौंक पड़े- ''किशन महाराज हैं क्या''? ''लगते तो किशन महाराज ही हैं, मैं देखकर आता हूं।''- अपनी सीट से उठते हुए मेरे पति बोले। इतने में वह सज्जन लौट कर अपनी सीट पर विराजमान हो गए। मेरे पति उधर से लौट कर आकर बोले- ''किशन महाराज तो तिलक लगाते हैं। इनके तिलक नहीं लगा है परन्तु वह हूबहू किशन महाराज की तरह लगते हैं।'' मैंने दृष्टि घुमाकर देखा। बोली- ''मुझे तो वह किशन महाराज ही लग रहे हैं।'' मेरे पति टिकिट चेकर के समीप गये और उन भद्र पुरुष का वास्तविक परिचय ज्ञात किया। यह निश्चित् हो जाने पर कि वह किशन महाराज ही हैं, मेरे पति उनसे मिलने के लिये उनकी ओर बढ़े परन्तु मन में शंकित थे कि इतने वर्ष के पश्चात् मिलने पर किशन महाराज पहचानेंगे कि नहीं। 14 जून 2001 को मेरे गीतों के कैसेट 'गुनगुना उठे अधर' का लोकार्पण पं0 किशन महाराज के करकमलों के द्वारा हुआ था। आज 7 मई 2005 को लख़नऊ से वाराणसी इन्टर सिटी एक्सप्रेस' में चेयरकार से यात्रा करते समय अचानक उनके दर्शन हो गए। मेरे पति महेशचन्द्र द्विवेदी जब पं0 किशन महाराज के समीप पहुंचे तो वह तपाक् से बोले-''द्विवेदी जी ! मैंने तो आपको स्टेशन पर ही देखकर पहचान लिया था, पर मुझे लगा कि आप मुझे नहीं पहचान रहे हैं।'' अचकचा कर मेरे पति ने उत्तर दिया-''मैं दुविधा में था। --आपके माथे पर तिलक न देखकर मैं समझा कि सम्भवत: आप नहीं हैं।'' किशन महाराज का सरल, मृदुल, आत्मीयतापूर्ण व्यवहार देखकर मेरे पति ने मुझे भी वहां पर बुला लिया। विनम्रतापूर्वक उन्हें नमस्कार कर मैं बोली-'' आप बहुत दुबले हो गए हैं अत: मैं शंका में थी कि आप नहीं हैं।'' किशन महाराज ठठाकर हंस पड़े और बोले-'' अरे द्विवेदी जी को तो मैंने स्टेशन पर देखते ही पहचान लिया था। मैं समझा कि वह मुझे नहीं पहचान रहे हैं।'' ''हमने तो अभी कुछ देर पहले ही आपको देखा था''- हम दोनों पति पत्नी एक साथ बोल पड़े। ''मैं डेढ़ माह बहुत बीमार रहा। पेट की तकलीफ़ थी। एलोपैथिक, होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक, सभी इलाज किये पर ठीक नहीं हुआ। हारकर सब दवायें छोड़ दीं तो अब ठीक हूं।''- कहकर पं0 किशन महाराज बच्चों की तरह खिलखिला उठे। ''नीरजा के पापा श्री राधेश्याम शर्मा बनारस में सी0 ओ0 सिटी -----'' मेरे पति ने बताना चाहा था कि बात बीच में ही काटकर किशन महाराज बोल पड़े- ''हां मैं जानता हूं। उनसे मेरा अच्छा परिचय था। बनारस के लोगों को ''दासूकान्ड'' अभी भी याद है। अभी परसों भी कहीं पर शर्मा जी की चर्चा हुई थी। अब वैसे पुलिस अधिकारी नहीं दिखते। वह उस समय आई0 जी0, डी0 आई0 जी0, यस0 पी0 तो थे नहीं केवल सी0 ओ0 सिटी थे पर उनका रौब इतना था कि उनकी कार जिधर निकल जाती, गुन्डे, बदमाश भाग जाते या छिप जाते।'' अभी तक हम लोग खड़े होकर बातें कर रहे थे। किशन महाराज भी खड़े थे। कोच के बाईं ओर की रिक्त सीट की ओर इंगित करते हुए वह मुझसे बोले- ''अरे आप आगे बैठ जाइये'' और वह स्वयं दाहिनी ओर की पहली सीट के हत्थे पर बैठकर बड़े स्नेह से बातें करने लगे। बोले- ''मैं कल रात को ए0सी0 फर्स्ट से वाराणसी वापस जा रहा था, परन्तु आरक्षण नहीं मिल पाया इस कारण आज इन्टर सिटी से जा रहा हूं। भातखन्डे में साक्षात्कार लेने हेतु लखनऊ आया था।'' उनके सौम्य व्यवहार को देखकर मेरा संकोच कुछ कम हुआ और मैं उनसे वर्षो पूर्व के अपने कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के विषय में पूछ बैठी- '' मेरे पापा सन् 1962 में इटावा में पुलिस अधीक्षक थे। उस समय इटावा की नुमाइश में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ था जिसमे स्व0 गोपीकृष्ण जी का नृत्य हुआ था और तबले पर संगत पं0 किशन महाराज ने की थी। उस नृत्य एवं तबले की अद्वितीय संगत पर दर्शकगण मन्त्रमुग्ध हो गये थे। जब तत्कार के पश्चात् नृत्य और तबले की थाप एकदम से थमी तो वह रोमांचकारी अनुभूति अभी भी मेरी किशोरावस्था की संजोई हुई स्मृतियों में अवशिष्ट है। कार्यक्रम के मध्य किशन महाराज ने पापा को देखकर हाथ हिलाया था और आत्मीयता से मुस्कराये थे और बाद में स्टेज से नीचे उतरने के उपरान्त पापा से बातें की थीं। सन् 63 में देखे किशन महाराज की छवि में, और फिर 2001 में देखी छवि में और अब इस समय आपको देखकर आपकी अबकी छवि में मैं साम्य नहीं कर पाती हूं। मेरे मन मे यह जिज्ञासा है कि इटावा के कार्यक्रम में जिन किशन महाराज ने गोपीकृष्ण जी के साथ संगत की थी क्या आप वही हैं ? क्या आप ही पापा से मिलने के लिये स्टेज से उतरकर नीचे आये थे ? ''हां। मेरा शर्मा जी से अच्छा परिचय था। मैं एटा, इटावा, अलीगढ़ में कार्यक्रम देने के लिये अक्सर जाया करता था।''- उन्होंने मृदु स्वर में उत्तर दिया। ''आपके पिताजी का क्या नाम था''? मैंने उनसे व्यक्तिगत प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया। ''कंठे महाराज। वह देश के सुप्रसिध्द तबलावादक थे।'' ''आपके परिवार में कौन कौन है ? मैंने उत्सुकतावश प्रश्न पूछा। ''मेरी पत्नी साथ रहती हैं। मेरी तीन बेटियां हैं। मेरा बेटा विदेश में है। दो बेटियों का विवाह कलकत्ता में हुआ है। तीसरी बेटी का विवाह बनारस में हुआ है। कुछ रुककर वह सहास बोले-''मेरी बड़ी बेटी का जब पहला बेटा हुआ तो वह बोली-'पापा! आप अकेले रहते हैं आप इसको रख लीजिये।' जब दूसरी बेटी के बेटी हुई तो वह बोली-'जब दीदी का बेटा आपके पास है तो मैं भी अपनी बेटी आपके पास छोड़ जाऊँगी।' अब तीसरी छोटी बेटी बोली-' जब दोनों दीदी के बच्चे आपके पास हैं तो मेरा भी आप ही पालिये' और यह अपने पति और बच्चे सहित मेरे पास आकर रहने लगी।''-कहते हुए किशन महाराज की मुखमुद्रा पर वात्सल्यमय अनुराग छलक उठा। ''तब तो आपको बड़ा आनन्द आता होगा''- मेरे पति हंसकर बोले। ''क्यों नहीं ? मैं बच्चों की पंचायत करता रहता हूं।- यह कहकर वह जोर से खिलखिलाकर हंस पड़े और बोले- ''अब तो अमेरिका से काम छोड़कर मेरा बेटा भी आ गया है अत: घर भर गया है।'' ''क्या आपके यहां किसी बच्चे को संगीत का शौक है''? मैंने जानकारी चाही। ''हां, मेरी बड़ी बेटी का बेटा यश सत्रह वर्ष का है। उसे तबला बजाने का शौक है। इस छोटी सी आयु में ही वह बहुत अच्छा तबलावादक बन गया है। छोटी बेटी का बेटा चित्र बहुत सुन्दर बनाता है। ''- किशन महाराज को बड़ी सहजता से उत्तर देते देखकर मैंने पुन: प्रश्न किया-'' आपने किस आयु में तबला बजाना प्रारम्भ किया।'' ''बचपन से।'' उत्तर मिला। ''आपको तबले की शिक्षा देते समय क्या आपके पिताजी आपको मारते थे ?'' मैं पूछने की धृष्टता कर बैठी। ''नहीं, पिताजी बड़े गम्भीर एवं शान्त प्रकृति के थे। एक बार गलती करने पर उन्होंने मेरा कान इतनी जोर से मल दिया था कि कान की खाल छुट गई थी। वह मारते नहीं थे पर रियाज़ जमकर कराते थे।'' वह अत्यंत सहजता से बता रहे थे। कुछ क्षण रुककर वह पुन: बोल उठे-'' पिताजी मुझे नहीं मारते थे पर मैं गलती करने पर मार देता हूं।'' ''आप जब विदेश में कार्यक्रम करते हैं तो वहां पर क्या भारतीयों के अतिरिक्त विदेशी दर्शक भी आते हैं ? उनपर उसका क्या प्रभाव होता है ? क्या वे तबला समझ पाते हैं यानि उसका आनन्द ले पाते हैं।''- मैंने उत्सुकता से प्रश्न किया। '' हां विदेशी दर्शक तबले का बहुत आनन्द लेते हैं। विशेष रूप से थाप देने की शैली व तत्कार पर वे बहुत आनन्दित होते हैं। एक बार मैंने रविशंकर के साथ लगातार 6 घन्टे तक तबला बजाया था। एक बार 8 घन्टे तक सोलो कार्यक्रम दिया था।'' उन्होंने उत्तर दिया। ''क्या आप थके नहीं''?- मैं फिर बोल उठी। इस पर किशन महाराज मुस्करा कर बोले-''मेरे पिताजी जमकर अभ्यास कराया करते थे। मुझे रात के 8 बजे से सुबह 6 बजे तक नियमित अभ्यास करना पड़ता था।'' ''आपकी शिक्षा कहां तक हुई है''?-मैं बेहिचक पूंछ बैठी। ''यही तो दिक्कत है। हमारे परिवार में कोई भी हाईस्कूल से आगे शिक्षा नहीं प्राप्त कर सका। इतना समय रियाज़ को देना पड़ता है कि शिक्षा के लिये समय ही नहीं बचता है। यश ने हाई स्कूल में है, परन्तु रियाज़ का समय नहीं बचता अत: अब वह प्राइवेट परीक्षा देगा।'' अचानक किशन महाराज आत्मीयता के भावावेग में बहकर बोल उठे-''आपको एक बात बताऊँ - मेरे परिवार में एक अनोखी प्रथा है। जब बच्चा पैदा होता है तो जच्चा के ऊपर सफ़ेद चादर डाल दी जाती है और घर का बुज़ुर्ग बच्चे के एक कान में तबले के बोल और दूसरे कान में गीत का मुखड़ा बोलता है, इसके बाद बच्चे की नाल काटी जाती है।'' मैं व मेरे पति इस अद्भुत परम्परा के विशय में सुनकर आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे और उनके मुख पर कौतुक भरी सरल मुस्कान छा गई। उन्होंने मुस्कराकर पान का बीड़ा अपने मुख में रख लिया। अचानक यात्रियों में खलबली मची - वाराणसी स्टेशन आने वाला था। हम लोग पद्मभूषण पं.किशन महाराज को प्रणाम करके ट्रेन की यात्रा द्वारा अनायास प्रदत्त इस अनोखे साक्षात्कार पर हर्षित होते हुए अपनी सीट की ओर बढ़ गये। नीरजा द्विवेदी |
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