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पढ़ते
हुए : मेरे कुछ नोट्स
एंटोनियो पोर्चिया –
पोर्चिया जीवन के गहन सन्नाटों के मध्य अवस्थित चीज़ों को ‘सुनते’ हैं.
सुनना उनके यहाँ केन्द्रीय तत्व है ,लिखना एक सेकेंडरी वर्क. पोर्चिया को
शब्दों में नहीं पकड़ा जा सकता. बुद्धत्व की निर्वाण –अवस्था में पहुंचकर भी
वह एक स्थगित अवस्था में है,उन्होंने सत्य को ‘सुन’ लिया है (हम शब्दों को
सुनते हैं,पर शब्द क्या सुनते हैं-शून्य) पर आँखें बंद है, उन्हें सत्य को
उसके मायावी प्रकाश की अवांछित चकाचौंध के साथ पकड़ने की कोई जल्दी नहीं
है,उन्हें पढ़ते हुए मुझे हमेशा बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के ‘शून्यवाद’ की
याद आती है कि आत्म भ्रम है जो सत्ता है वो ‘अनात्म’ की है , ‘होने’ और ‘न
होने’ के निरंतर स्थगन से बनती एक स्थिति जो ‘अस्तित्व’ है और ‘सेल्फ’ के
सरलीकरण से ग्रस्त भी .. पोर्चिया इन्ही
subtle
सत्यों को पकड़ते हैं, उनके ‘one
लाइनर्स’ जिन्हें विश्लेषित करने पर कई पन्ने रंगे जा सकते हैं , पोर्चिया
एक मोमेंट में देख ली गयी ‘अनंतता’को एक स्टिल फोटोग्राफ की तरह पकड़ते हैं,
न होने की शून्यता नहीं अपितु होने की शून्यता,एक इंटरव्यू में वे कहते हैं
कि ऐसा कोई केंद्र नहीं है जहाँ जिंदगी को लोकेट किया जा सके.
‘’ Life doesn’t exist, it isn’t there,
because if it were, it would always be there, as it is. Life seems to
be. A minute goes by and once it’s gone it wasn’t, because it isn’t.
It’s a total thing. One is made up of everything and of everyone and is
everything but is not one. One is never found as “me,” as one. It is
found as things, as people, as time.
रोबेर्टो हुअरोज़-
पोर्चिया और हुअरोज़ अभिन्न मित्र थे . हुअरोज़ के पोएट्री संग्रह का नाम है
‘ वर्टीकल पोएट्री’. सामान्य तौर पर यह फिलोसोफिकल पोयम्स दिखती हैं पर
इनका ‘genre’
निर्धारित करना इतना आसान नही है,उनकी कविताओं में शब्द ‘स्व-विमर्श’ करते
दीखते हैं,उनके अर्थ का ‘केंद्र्त्व’ नहीं पकड़ में आता,जैसा की देरिदा
‘विखंडनवाद ‘ में समझाते हैं कि कथ्य का अर्थ ढूंढना एक ‘अनंत-खेल’ है ,और
यही शायद हुअरोज़ का अभीष्ट भी है, पोर्चिया की ही एक पंक्ति है-
“Non-voids, supports for voids, have no supports and drift about…in
the voids.”
हुअरोज़ जितनी तीक्ष्णता से ‘स्व’ और ‘अन्य’ के मध्य संबंधों (यहाँ शब्द और
अर्थ को भी ले सकते हैं) को ओब्ज़र्व करते हैं इनके मध्य के अलगाव की उतनी
ही सूक्ष्म परतें निकलकर सामने आ जाती है- एक विचित्र आयरनी .उन्हीं की एक
कविता.
The center isn’t a point.
If it were, it would be easier to locate.
It’s not even the reduction of a point to its infinity.
The center is an absence,
of a point, of infinity, even of absence,
and it can be located only by absence.
Look at me after you’ve gone
even though it’s only a moment since I was there.
Now the center has taught me not to be here
but later this is where the center will be.
पैसोआ-
अनात्म को व्याख्यायित करता एक और नाम,क्या उनके बारे में कुछ भी कहा जा
सकता है,एक ऐसा लेखक जिसके अब तक करीब 81 हिटरोनिम्स सामने आ चुके हैं और
अभी भी रिसर्च जारी है,उन्ही की एक पंक्ति-
“If after I die, people want to write my
biography, there is nothing simpler. They only need two dates: the date
of my birth and the date of my death. Between one and another, every day
is mine.”
एक लेखक जो कहता है कि किसी को समझना उससे असहमत होना होता है, सो पैसोआ को
विश्लेषित करना संभव नहीं है, उनके लिखे को समझना, अर्थ के अर्थ को समझना
है या कहें एक विशुद्ध दृष्टा बनकर उनके द्वारा प्रस्तुत दृश्यों को देखना
है,क्यूंकि दृश्य पसंद –नापसंद का हो सकता है पर उससे सहमति या असहमति की
गुंजाइश पैसोआ नहीं छोड़ते. वे कहते हैं-
“I've always rejected being understood. To be
understood is to prostitute oneself."
पर जैसा ऑब्जरवेशन उनका है वो हमें हिला कर रख देता है, ‘देखना’ और ‘होना’
विशुद्ध अनुभूतियाँ जो हम भूल चुके हैं उन्हें पढ़कर फिर से नविन जीवन पा
जाती है.
प्रूस्त-
प्रूस्त,निर्मल वर्मा और वोंग कर वाई का सिनेमा – ये सब मेरे लिए समानार्थी
हैं, समय के अलग-अलग आयामों में अवस्थित तीन नाम जिनका ‘सृजन’ समय से
मुक्ति की कामना में तड़पता है.और मुक्ति के इस प्रयास में टूल भी समय ही
है,समय के द्वारा समय से मुक्ति..प्रूस्त समय के इल्यूजन को विलक्षणता से
दिखाते हैं ,स्मृति,प्रतीक्षा स्पेस सब कुछ चमकीली तितलियों की तरह सामने आ
जाता है ,पर यह सब कुछ एक अघटित समय में दीखता है-ये मुक्ति के क्षण होते
हैं, जहाँ सिर्फ ‘होना’ होता है ‘हो रहा’ होता हुआ,कोई समय और स्पेस की
सीमा नहीं...वो हमें काव्यात्मक ट्रुथ प्रदान करते है-खोया हुआ समय खोया
हुआ नहीं है वो दैनिक जीवन की चीज़ों के मध्य छुपा हुआ है – तस्वीरों
में,पुरानी गंध में, स्पर्श में,स्वाद में जैसे अनंतकाल भी रोज के दिनों
में कहीं न कहीं छुपा रहता है..
-शैलेन्द्र सिंह्
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