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एक फौजी की डायरी-3

एक पसरे हुये पत्थर की सलेटी-सलेटी छींकें

 

कल रात देर तक...बहुत देर तक छींकता रहा था वो सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर| हाँ, वही पत्थर...वो बड़ा-सा और जो दूर से ही एकदम अलग सा नजर आता है उतरती ढ़लान पर, जिसके ठीक बाद चीड़ और देवदारों की श्रुंखला शुरू हो जाती है और जिसके  तनिक और आगे जाने के बाद आती है वो छद्म काल्पनिक समस्त विवादों की जड़, वो सरहद नाम वाली रेखा...हाँ, वही सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर, जिस पर हर बार या तो किसी थकी हुई दोपहर का या किसी पस्त-सी शाम का बैठना होता है गश्त से लौटते हुये ढाई घंटे वाली खड़ी चढ़ाई से पहले सांस लेने के लिए और सुलगाने के लिए विल्स क्लासिक की चौरासी मीलीमीटर लम्बी नन्ही-सी दंडिका...

...
कैसे तो कैसे हर बार कोई ना कोई घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाज आ ही जाती है गश्त खत्म होने के तुरत बाद पीछे से "वहाँ उतनी देर तक बैठना ठीक नहीं साब, उनके स्नाइपर की रेंज में है वो पत्थर और फिर उन सरफ़िरों का क्या भरोसा" ....हम्म, भरोसा तो उस पत्थर का है, उस पत्थर पर के सलेटी पड़ाव का है, उस चंद मिनटों वाली अलसायी बैठकी का है, उन चीड़ और देवदारों की देवताकार{दैत्याकार नहीं}ऊंचाईयों का है और उस धुआँ उगलती नन्ही-सी दंडिका का है...कौन समझाये लेकिन उन घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाजों को...बस एक अरे-कुछ-नहीं-होता-वाली मुस्कान लिए हर बार वो थकी दोपहर या पस्त-सी शाम सोचने लगती है कि अगली बार शर्तिया उस  पत्थर की पसरी हुई छाती पर ग़ालिब का कोई शेर या गुलज़ार की कोई नज़्म लिख छोड़ आनी है| क्या पता उस पार से भी कोई सरफ़िरी दोपहर या शाम आये गश्त करते हुये, पढे और जवाब में कुछ लिख छोड जाये...!!!

कितने सफ़े
हुये होंगे दफ्न
पत्थर की चौड़ी छाती में

कोई नज़्म तलाशूँ 
कोई गीत ढूँढ लूँ
कि
एक सफ़ा तो मेरा हो...  

...
कल की शाम गश्त से लौटते समय बारिश में नहाई हुई थी| ढाई घंटे की चढ़ाई जाने कितनी बार फिसली थी शाम के कदमों तले और हर फिसलन ने मिन्नतें की थीं कि ठहर जाओ रात भर के लिए यहीं इसी पत्थर के गिर्द|  ठहरना तो मुश्किल था शाम के लिए...हाँ, वो चंद मिनटों वाला पड़ाव जरूर कुछ लंबा-सा हो गया था...कि बारिश की बूंदों से गीली हुई चौरासी मीलीमीटर वाली नन्ही दंडिका ने बड़ा समय लिया सुलगने में और उस देरी से खीझ कर पानी भरे जूतों के अंदर गीले जुराबों ने ज़िद मचा दी---जूतों से बाहर निकल  पसरे पत्थर पर थोड़ी देर लेट कर उसकी सलेटी गर्मी पाने की ज़िद| सुना है, देर तक चंद नज़्मों की लेन-देन भी हुई जुराबों और पत्थर के दरम्यान| जुराबें तो सूख गई थीं...पत्थर गीला रह गया था|

...और देर तक छींकता रहा था वो पत्थर कल रात...पसरी-सी सलेटी सलेटी छींकें|

 

 

-गौतम राजरिशी


 

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