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एक फौजी की डायरी-5 चंद अटपटी ख़्वाहिशें डूबते-उतराते ख़्वाबों की उथली रातों में डूबते-उतराते ख़्वाबों को कोई तिनका तक नहीं मिलता शब्दों का, पार लगने के लिए| मर्मांतक-सी पीड़ा कोई| चीखने का सऊर आया कहाँ है अभी इन ख़्वाबों को? ...और आ भी जाये तो सुनेगा कौन? हैरानी की बात तो ये है कि यही सारे ख़्वाब गहरी रातों में उड़ते फिरते हैं इत-उत| जाने क्या हो जाता है इन्हें उथली रातों के छिछले किनारों पर| छटपटाने की नियति ओढ़े हुये ये ख़्वाब, सारे ख़्वाब...कभी देवदारों की ऊंची फुनगियों पर चुकमुक बैठ पूरी घाटी को देखना चाहते हैं किसी उदासीन कवि की आँखों से...तो कभी झेलम की नीरवता में छिपी आहों को यमुना तक पहुँचाना चाहते हैं...और कभी सदियों से ठिठके इन बूढ़े पहाड़ों को डल झील की तलहट्टियों में धकेल कर नहलाना चाहते हैं| ...और भी जाने कितनी अटपटी-सी ख्वाहिशें पाले हुये हैं ये डूबते-उतराते ख़्वाब| उथली रातों के छिछले किनारों पर अटपटी-सी ख़्वाहिशों की एक लंबी फ़ेहरिश्त अभी भी धँसी पड़ी है इन ख़्वाबों के रेत में| कश्यप था कोई ऋषि वो| देवताओं के संग आया था उड़नखटोले पर और सोने की बड़ी मूठ वाली एक जादुई छड़ी घूमा कर जल-मग्न धरती के इस हिस्से को किया था तब्दील पृथ्वी के स्वर्ग में| अटपटी ख्वाहिशों की ये फ़ेहरिश्त तभी से बननी शुरू हुई थी| ये बात शायद इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को नहीं मालूम| उथली रातों ने वैसे तो कई बार बताना चाहा...लेकिन पार लगने की उत्कंठा या डूब जाने का भय इन ख़्वाबों को बस अपनी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिश्त बनाने में मशगूल रखता है| ...फिर ये उथली रातें हार कर बिनने लगती हैं इन ख़्वाबों की अटपटी ख़्वाहिशों को| ख्वाहिशें...पहाड़ी नालों में बेतरतीब तैरती बत्तखों की टोली में शामिल होकर उन्हें तरतीब देने की ख़्वाहिश...चिनारों के पत्तों को सर्दी के मौसम में टहनियो पर वापस चिपका देने की ख़्वाहिश...सिकुड़ते हुये वूलर को खींच कर विस्तार देने की ख़्वाहिश...इस पार उस पार में बाँटती सरफ़िरी सरहदी लकीर को अनदेखा करने की ख़्वाहिश...सारे मोहितों-संदीपों-आकाशों-सुरेशों को फिर से हँसते-गुनगुनाते देखने की ख़्वाहिश...और ऐसे ही जाने कितनी ख़्वाहिशों का अटपटापन हटाने की ख़्वाहिश| ...ऐसी तमाम ख़्वाहिशों को बिनती हुई रात देखते ही देखते गहरा जाती...और इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को मिल जाती है उनकी उड़ान वापिस|
00000 नहीं मंजिलों में है दिलकशी...न, बिलकुल नहीं ! मोबाइल के उस पार दूर गाँव से माँ की हिचकियों में लिपटे आँसू भी कहाँ इस दिलकशी को कोई मोड दे पाते हैं| क्यों जा रहे हो फिर से? अभी तो आए हो?? सबको ढाई-तीन साल के बाद वापस जाना होता है फील्ड में, तुम्हें ही क्यों ये चार महीने बाद ही??? रोज उठते इन सवालों का जवाब दे पाना कश्मीर के उन सीधे-खड़े पहाड़ों पे दिन-दिन रात-रात ठिठुरते हुये गुजारने से कहीं ज्यादा मुश्किल जान पड़ता है छुटकी तनया के जैसा ही जो सबको समझाना आसान होता कि पीटर तो अभी अपना दूर वाला ऑफिस जा रहा है| बस जल्दी आपस आ जायेगा| देर से आने वालों के लिये, तनया चार साल की हुई है और “पीटर पार्कर” उसका पापा है और वो अपने पापा की “मे डे पार्कर” | ....बाहर पोर्टिको में झाँकती बालकोनी के ऊपर अपनी मम्मी की गोद में बैठी आज समय से पहले जग कर वो तड़के सुबह अपने पीटर को नन्ही हथेलियाँ हिला कर बाय करती है और दिन ढ़ले फोन पर उसकी मम्मी सूचना देती है कि शाम को पार्क में झूला झूलने जाने से पहले वो दरियाफ़्त कर रही थी कि पीटर आज ऑफिस से अभी तक क्यों नहीं आया| समय कैसे बदल जाता हैं ना...मोबाइल के उस पार वाली माँ की हिचकियाँ पीटर को उतना तंग नहीं करतीं, जितना मे डे का ये मासूम सा सवाल और हर बार की तरह पीटर इस बार भी सचमुच का स्पाइडर मैन बन जाना चाहता है कि अपनी ऊंगालियों से निकलते स्पाइडर-वेब पे झूलता वो त्वरित गति से कभी माँ की हिचकियों को दिलासा दे सके तो कभी वक़्त पे ऑफिस से वापस आना दिखा सके मे डे को ...कि उसे व्याख्या न देना पड़े खुल कर उसके अपने ही उसूल का – “विद ग्रेट पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी” | ...सच तो! कितना मुश्किल है इस उसूल की व्याख्या और वो भी इस दौर में, जब फेसबुक पे लहराते हुये स्टेटस ही शायद फलसफे बन गए हैं मायने जीये जाने के और जिसका छुटकी मे डे को जरा भी भान नहीं | आयेगी वो भी कुछ सालों बाद इसी फलसफे को नए मायने देने-शर्तिया| लेकिन क्या जान पाएगी वो कि ग्रीन गोबलिन या डा० आक्टोपस के करतूतों की फिक्र इन तमाम फेसबुकिये स्टेटसों को नहीं? क्या समझ पायेगी वो कि ऐसे तमाम गोबलिन और आक्टोपस के लिए कितने ही पीटरों को अपनी मे डे को छोड़ कर जाना ही पड़ता है? क्या समझ पायेगी वो कि ये तमाम संवेदनायें जो स्टेटस में शब्द-जाल उड़ेलते रहते हैं, वो महज चंद लाइक और कुछ कमेंट्स इकट्ठा करने के लिए होते हैं या फिर ग्रेटर पावर अर्जित करने की कामना में कथित ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी का चोगा भर होते हैं, और कुछ नहीं| शायद समझे वो....शायद न भी! उसकी समझ या नासमझ वक़्त रहते खुद-ब-खुद आयेगी, लेकिन माँ की उमड़ती हिचकियों को कैसे समझाये पीटर कि उसका फिर से जाना उसके खुद के लिए जितना जरूरी है उतना ही जरूरी बड़ी होती मे डे के लिए भी है जो बाद-वक़्त अपने पीटर पे घमंड करते हुये फेसबुकीये स्टेटसों में सिमट आये जीने के मायने को अपना उसूल देगी| है न मे डे? बस इसलिए तो ....मुझे फिर सफर की तलाश है :-)
-गौतम राजरिशी
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