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राजनीति‚
सरकारें बनाम आम आदमी के हित
!

भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में पहली बार विपक्ष के द्वारा गुजरात के मुद्दे पर राज्य सभा में लाया गया प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया। हालांकि राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत है और भारतीय जनता पार्टी राज्य सभा में कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है।
प््राधानमंत्री ने इस दौरान अपने वक्तव्य में कहा कि‚ " लेकिन सत्ता परिवर्तन से स्थिति और बिगड़ती‚ यह हमारा आकलन था तो क्या हमें स्वतन्त्र आकलन का अधिकार नहीं है?"
हाँ‚ प्रधानमंत्री जी आपको स्वतन्त्र आकलन का अधिकार है पर अब हमें आपकी स्वतन्त्रता का विश्वास शायद नहीं रहा। आप मोदी को हटाना चाहते थे यह तो आपने गोवा में स्वीकार कर ही लिया था परन्तु हटा नहीं सके यह न तो आपने स्वीकार किया न ही अपने स्वतन्त्र आकलन को जनसामान्य में स्पष्ट ही कर सके।
अटल जी ने यह भी कहा था कि अगर वो तुरन्त गुजरात पहुँच जाते तो स्थिति और बिगड़ जाती ऐसी उन्हें सलाह दी गई थी। पर वे यह भी नहीं बता सके कि यह सलाह उन्हें दी किसने थी‚ राज्य सरकार ने‚ मुख्यमंत्री ने‚ गृह मंत्री ने या फिर संघ परिवार के 'थिंक टैंक' ने!
गुजरात अब भी हिंसा की आग में जल रहा है.‚ दो समुदायों के बीच वैमनस्य का बीज इस तरह से फल फूल रहा है कि निर्दोष हत्याओं का सिलसिला रोके नहीं रुक रहा। इस सबके लिये कौन ज़िम्मेदार है? क्या कानून और व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है ? अगर राज्य सरकार आम नागरिक को कानून और व्यवस्था मुहैय्या नहीं करा सकती तो उसका सत्ता में बने रहना बुनियादी तौर पर जायज़ नहीं है।
केन्द्र द्वारा अर्धसैनिक बलों की तैनाती‚ पंजाब के कमांडो और अब के पी एस गिल की विशेष अधिकारों के तहत विशेष सलाहकार के रूप में नियुक्ति आदि कदमों का कोई सकारात्मक प्रभाव अब तक सामने नहीं आया है और गुजरात हिंसा का दौर अब भी अपनी निर्ममता के साथ जारी है। क्या यह सब इंगित नहीं करता कि नरेन्द्र मोदी को अब जाना ही चाहिये।
उधर आलोचना की शिकार बी जे पी ने मीडिया पर दोषारोपण करके अपने बचाव का रास्ता निकालने की कोशिश में यह कहा कि अंग्रेज़ी मीडिया ने गोधरा के काण्ड को तो कोई खास महत्व ही नहीं दिया और उसके बाद की घटनाओं का काफी सम्वेदनशील तरीके से एक साजिश के तहत काफी प्रचार प्रसार के साथ उछाला जिससे कि संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी सरकार बदनाम हो।
वैसे अगर देखा जाए तो चाहे वह गोधरा काण्ड हो या उसके बाद पनपी हिंसा का दौर‚ शर्मनाक तो दोनों ही है। सरकार का दायित्व निष्पक्ष रह कर कानून और व्यवस्था कायम रखना है। अगर आज गुजरात में कानून और व्यवस्था बदहाल है तो राज्य सरकार में बदलाव की वास्तव में आवश्यकता है‚ जिससे शायद गुजरात में शांतिपूर्ण स्थिति बहाल हो सके।
उत्तरप्रदेश में फिर बी एस पी और बी जे पी का अवसरवादी गठबंधन‚ मायावती के नेतृत्व में फिर से एक बार सरकार बनाकर अपनी ढिठाई के साथ जनता के सामने खड़े हैं‚ जिनके मतभेद मायावती के शपथ ग्रहण के बाद के प्रेस कॉनफ्रेन्स में ही पत्रकारों के समक्ष खुलकर प्रकट हो गये थे। इस तरह की सरकारें और इस तरक की राजनीति प्रदेश की जनता के मुंह पर तमाचा हैं। इस तरह की सरकार जनता का भला क्या हित करेगी? यह तो जग जाहिर है कि इस प्रकार की सरकार जनता का कोई भला नहीं करने वाली हैं‚ ये तो बनी ही अपना ही भला करने के लिये है।
पूर्व में किया गया बी जे पी तथा बी एस पी के गठबन्धन में बनी सरकार का ठीक ऐसा ही प्रयोग किस बुरी तरह विफल हुआ था‚ शायद इस बार अवसरवादी राजनेता कुछ सबक लेकर कम से कम पांच वर्ष तक सरकार खींच ले जायें और आर्थिक बदहाली से परेशान जनता पर चुनावों का अतिरिक्त बोझ न पड़ने दें तो यही इस गठबंधन की एकमात्र सफलता होगी। इससे ज़्यादा इस गठबंधन तथा इस कामचलाऊ सरकार से उत्तर प्रदेश की जनता उम्मीद भी नहीं रखती।
आर्थिक मंदी के दौर से तो पूरा देश ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व ही ग्रस्त है।
भारत में इस वर्ष वैसे भी बजट जनता के हितों के पक्ष में कम ही था और वित्तमंत्री बड़ी चतुराई से वेतनभोगी वर्ग की जेब काट ले गये हैं। डेढ़ लाख से पांच लाख तक की वार्षिक आय वर्ग को साथ बचत पर मिलने वाली कर छूट को पहले बीस प्रतिशत से दस प्रतिशत कर दिया और जब दिल्ली के स्थानीय निकायों के चुनावों में करारी हार मिली तो उससे विचलित होकर उन्होंने इसे पन्द्रह प्रतिशत कर दिया और बचत की सीमा एक लाख रूपये तक बढ़ा दी। इसके बावज़ूद भी यदि वेतनभोगी बचत एक लाख रूपये कर भी लें तो उनकी कर राशि भले ही उतनी ही बनी रहे लेकिन घर खर्च के लिये ले जाने वाली आय में खासी कमी हो जाएगी। अब इस स्थिति में अन्य बजट प्रस्तावों से आम इस्तेमाल की वस्तुओं की कीमतों में आई बढ़ोतरी के साथ आम नागरिक कैसे संतुलन बिठाएंगे शायद यह वित्त मंत्री ने ज़रा भी सोचा ही नहीं!! दूसरी ओर बचत पर मिलने वाली ब्याज दर में कटौती कर दी गई जिससे निवेश के विकल्प बहुत कम हो गये। क्या वे पूरे देश को उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था में ढकेलना चाहते हैं जहां बचत को कोई महत्व नहीं दिया जाता?
भारत में आम आदमी जहाँ अपनी समस्याओं से ही ऊपर नहीं उठ पा रहा वहाँ उसका चुनावों‚ राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेना या सही उम्मीदवार को वोट देना और एक देश हित की सोच रखना बहुत कठिन सा हो गया है। वोट देकर अपना नेता चुनने वाले लोगों का वर्ग है ही कितना बुद्धिजीवी? जो जनसमुदाय भेड़ों के रेवड़ की तरह वोट दिलवाने ले जाया जाता है‚ उसकी बौद्धिक और राजनैतिक समझ होती ही कितनी है? और जो सही मायनों में बुद्धिजीवी वर्ग है वह वोट देने में तत्पर ही नहीं…या उनके पास समय ही नहीं? यही वजह है कि चुनावों में उत्तरप्रदेश जैसे परिणाम प्राप्त होते हैं…और अंतत: अवसरवादी गठबंधन की नकारा सरकार बनती है जो कि सर्वजन हिताय‚ सर्वसुख हिताय के बजाय स्वहिताय में ज्यादा विश्वास रखती है।
 

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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