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त्यौहारों का मौसम

श्राद्ध पक्ष में पितरों को तर्पण देने के बाद ही आरंभ हो जाता है‚ हिन्दू धर्म में त्यौहारों का मौसम। यह मौसम भक्ति‚ आध्यात्म‚ उत्साह – उमंग‚ रीति रिवाजों‚ नवस्थापनाओं का सम्मिश्रण होता है। यही मौसम है जिसमें हर कोई अपने परिवार और सम्बन्धियों के साथ होना चाहता है जिसके साथ शुरु होती है‚ छुट्टी लेने व मिलने न मिलने की कश्मकश। भारतीय ट्रेनों में जगह मिलना कठिन हो जाता है। यह मौसम अगर बोनस का मौसम है तो बेजा खर्चों का मौसम भी है‚ हर व्यक्ति रीति रिवाजों पर अपनी सामथर््य से अधिक ही खर्च करने का तत्पर दिखता है।
आखिर साल में एक बार तो आता है यह त्यौहारों का मौसम।

यूं कहने को तो भारत स्वयं त्यौहारों का देश है जहाँ 365 दिनों में 365 से कहीं अधिक त्यौहार होते हैं याने हर दिन एक त्यौहारॐ हम भारतीय संस्कृति‚ रीति – रिवाज़ों के बहाने उमंग उल्लास के क्षण ढूंढ ही लेते है। हर देवता को‚ पूर्वजों को‚ हर सम्बन्ध को यहाँ तक कि हर वृक्ष को‚ खेत में काम आने वाले तथा दुधारू जानवरों‚ फसलों‚ मौसमों के मिजाज़ को इन त्यौहारों में स्थान मिलता है।

तभी तो कोई त्यौहार इस देवता के नाम कोई उस देवता के नाम‚ पितरों के नाम श्राद्ध पक्ष। पति के नाम से करवाचौथ तो‚ भाई के लिये रक्षा बंधन‚ बहनों – बेटियों के लिये तीजें तो बच्चियों के लिये नवरात्रि पूजा‚ पुत्रों के लिये अहोई व्रत। गायों के बछड़ों के लिये बछबारस तो‚ कृषिसहायक जानवरों के लिये गोवर्धन पूजा। पीपल‚ वट की महिमा के लिये अलग त्यौहार तो मौसमों के बदलते हुए मिजाज़ को देखते हुए संक्रामक बीमारियों की देवी शीतला माता की पूजा। ' बसोड़ा ' त्यौहार की अपना अलग महत्व है। एक 'बसोड़ा' नवरात्रि से आरंभ होता है कि मौसम में ठण्डक आ गई है अब आप एक दिन का बासी भोजन खा सकते हैं‚ दूसरा बसोड़ा होली के आठ दिन बाद होता है उस दिन एक दिन पूर्व पकवान बनाए जाते हैं‚ शीतला माता की पूजा के बाद अगले दिन खाये जाते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि मौसम अब गरम हो चला है अब बासी भोजन पर पाबन्दी रखें। हर फसल की बुवाई – कटाई पर एक त्यौहार। यहाँ तक कि विभिन्न प्रदेशों के भिन्न भिन्न त्यौहार‚ आदिवासियों के त्यौहार और मेले। यानि कि उमंग का एक अनवरत् सिलसिला…

हम भारतीयों में यह उमंग इस तरह रच बस गई है कि श्राद्ध पक्ष खत्म हुए कि नहीं हवा में ठिठकती हुई आती खुनकी और एक अजब महक त्यौहारों के इस मौसम का पता दे जाती है। कोई भी संवेदनशील भारतीय हवा की इस गंध और अहसास से बखूबी होली और दिवाली का मौसम जान सकता है। दरअसल यह गंध और कुछ नहीं हवा में ठण्डक का बढ़ता घटता अहसास है और मौसमी जंगली फूलों की गंध है। मुझे डर है आने वाले समय में बढ़ते हुए प्रदूषण के साथ यह त्यौहारों के मौसमों का पता देती हवा घुट कर न रह जाये।

त्यौहारों के इस मौसम की शुरुआत हो जाती है नवरात्रि स्थापना से। शक्ति स्वरूपा और शक्ति की अधिष्ठात्री देवी का शारदीय नवरात्र घटस्थापना के साथ नौ दिन के लिये आरंभ हो जाता है।यह नौ दिन का महोत्सव कमोबेश भारत के हर प्रान्त में अपने अपने स्वरूपों में अपने रीति रिवाजों से मनाया जाता है। गुजराती परिवारों में डांडिया‚ उत्तरभारतीय प्रान्तों में नवरात्रि उपवास व जागरण तथा रामचरितमानस के पठन पाठन के साथ‚ पूर्व के प्रान्तों में दुर्गापूजा के विशाल आयोजनों के साथ सम्पन्न होता है यह त्यौहार। मज़े की बात तो यह है कि जिस तरह भारत में अब लगभग हर शहर में विभिन्न संस्कृतियों के मिश्रण की वजह से आप अपने शहर में डांडिया‚ दुर्गापूजा‚ जागरणों का मज़ा एक साथ उठा सकते हैं और अन्य भारतीयों की परम्पराओं को जान सकते हैं। डांडिया आदि में अब तो हर धर्म के युवक युवतियां सक्रिय भाग लेते हैं। अब तो भारत में गंगा जमनी सभ्यता का मिश्रण और घना हो चला है। चाहे वह लोहड़ी या बैसाखी पर भांगड़ा हो या नवरात्रि में गरबा सभी मिलजुल कर पूरे उत्साह से भाग लेते हैं यहां आकर जातियों प्रांतों का भेद मिट जाता है और त्यौहार एक सार्थकता ग्रहण कर लेते हैं। सच में दिलों को मिलाते हैं त्यौहार।

नवरात्रि समापन के साथ ही आता है दशहरा‚ असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीकॐ दशहरे के दिन ही मैं ने डॉ। विष्णुदत्त सागर का एक प्रभावशाली लेख ह्य दैनिकभास्कर‚ 15 अक्टूबर‚ मानसमंथन पृष्ठ 6हृ पढ़ा था जिसका उल्लेख आपसे किये बिना मैं नहीं रह सकती।

" शिवतांडव स्त्रोत के रचयिता तथा भाषा‚ संगीत और दृश्य के सौन्दर्य की बहुस्तरीय साधना को साधने वाला रावण बुराई का प्रतीक क्यों बना? ' जे लंपट पर धन परदारा ' के अवगुणों में लिप्त इस विद्वान दृष्टा और युग के अजेय वीर की त्रासदी स्वकेन्द्रित व्यक्ति की त्रासदी थी। वह अपने अधूरेपन को कभी स्वीकार नहीं कर सका और न ही अपने से बाहर उसने किसी व्यक्तित्व को महत्व दिया। सीता से उसके व्यक्तित्व को कभी स्वीकृति नहीं मिल सकी जिसे उसने अपनी पराजय माना।"

आज भारत की परिस्थितियों को देख कर वे लिखते हैं –
" राम – रावण युद्ध दो जीवन पद्धत्तियों‚ दो संस्कृतियों और धर्म – अधर्म के बीच लड़ा गया संग्राम था जो आज भी जारी है। रामलीला तो वर्ष में एक बार ही होती है‚ पर रावणलीला तो पूरे साल भर चलती है। भ्रष्टाचार का रावण परमार्थ का उपदेश देते हुए छल रहा है।"

यह नग्न सत्य है जो हमारे त्यौहारों के उत्साहों को फीका कर जाता है। इस गंगा जमनी संस्कृति में अलगाव की खटास डाल जाता है। अगर हम इन रावण के धार्मिक उन्माद‚ जातिभेद‚ भाषाभेद तथा स्वार्थमय राजनीति से लिप्त रावण के इन छद्म रूपों को पहचानना सीखे लें तो त्यौहारों को मातम में बदलने से हम ही रोक सकते हैं। आजकल रावण दहन में अराजक तत्वों के डर से बहुत कम लोग जाना पसन्द करते हैं। जिस प्रकार अभी गांधीनगर में 'अक्षरधाम मंदिर'पर हुए मर्मांतंक आतंकवादी हमले के कारण लोगों में धार्मिक स्थलों तथा आयोजनों में एकत्रित होने के उल्लास में कमी आई है। वैसे ही इस वर्ष रामलीलाओं तथा रावणदहन में जाने से लोग आतंकित महसूस कर रहे हैं।

कहाँ पहले त्यौहार भेदभाव मिटाने का प्रतीक हुआ करते थे। दीवाली पर मुसलमान व ईसाई मित्र आकर बधाई देते थे। ईद पर सिवईयों का आदानप्रदान होता था‚ क्रिसमस पर सांताक्लाज़ हिन्दु – मुसलमान‚ इसाई बच्चों में भेद न कर सभी को भी उपहार देते थे। अब भी यह शुभकामनाओं का आदान प्रदान उसी तरह होता है पर कहीं दिलों में दरार डाल दी है अखबारों में नित नई छपती खबरों ने। पर हम सब जानते हैं कि ये दरारें राजनीतिपरक‚ वोटलोभी कुछ समाजकंटकों का द्वारा डाली गई हैं। हमें समय रहते इन्हें पाटना होगा। इन्हें पाटने में ये त्यौहारों का मौसम सबसे अच्छा है।

जहाँ त्यौहार दिलों को मिलाते हैं वहीं ये आपको आपकी परम्पराओं से पीढ़ी दर पीढ़ी जोड़ते जाते हैं। आम दिनों में तो बच्चे रीति रिवाज़ों तथा परम्पराओं को जान नहीं पाते। आप त्यौहार मना कर‚ विधिविधान से पूजा हवन कर। त्यौहार अनुकूल पकवान – प्रसाद बना कर अपने बच्चों में अपनी परम्पराओं का प्रतिस्थापन जाने अनजाने कर बैठते हैं। मुझे याद है मैं अपनी मम्मी के साथ करवाचौथ व्रत की पूजा देखा करती थी‚ गणेश जी तथा शिव पार्वती और चौथ माता की पौराणिक कथाएं सुना करती थी। सौभाग्य के प्रतीक लाल सुनहरे कपड़ों में अपनी मां की छवि बड़ी भली लगती थी मुझे। आज जब मैं दशहरे के पन्द्रह दिन बाद आने वाली करवाचौथ के दिन सुबह से निर्जल निराहार व्रत करती हूँ तो मेरी दोनों बेटियां मेरा ख्याल रखती हैं और पूजा को बड़े चाव से देखती हैं तथा वही पौराणिक कहानियां सुनती हैं। उधर पतिदेव किचन में मेरे लाख मना करने के बावजू.द ' खीर ' या ' रबड़ी' अवश्य बनाने में लगे होते हैं कि शाम को मैं व्रत खोलूं तो मुझे किचन में न लगना पड़े। वह छोटा सा त्यौहार परिवार में उल्लास भर जाता है।

करवाचौथ के बीतते बीतते घर में साफ सफाई‚ रंग रोगन का दौर शुरु हो जाता है और न जाने कब धनत्रयोदशी आ जाती है‚ और आरंभ होती है लोगों की खरीदारी। यथासामथ्र्य लोग अपनी ज़रूरतों की चीजें खरीदते हैं। सोना‚ चांदी‚ बर्तन सिक्के और नये कपड़े। कई बार अपव्यय की होड़ लोगों को आहत करने की हद तक बढ़ जाती है। आजकल के इस मंहगाई के दौर में त्यौहार अखर न जायें इस बात का ख्याल रखना आवश्यक है। व्यर्थ के दिखावे से बचना चाहिये। त्यौहारों का उद्देश्य सुख व उल्लास बांटना है न कि म्लान कर जाना। भारत में दीपावली पर सरकारी महकमों के प्रभावशाली अफसरों को व्यवसायियों तथा उद्यमियों तथा ठेकेदारों द्वारा मिठाइयों – मेवों तथा स्र्वण या चांदी के सिक्के भेंट करने का प्रचलन इधर कुछ अधिक बढ़ गया है। यह अप्रकट रूप से दी गई रिश्वत ही है‚ ताकि भविष्य में उनके कोई काम न रुक सकें। त्यौहार में भी जब भ्रष्टाचार अपना मुखौटा पहने आ जाता है तो बहुत कष्ट होता है। क्या आप जानते हैं धनत्रयोदशी के बाद का दिन रूप चतुर्दशी का होता है। बचपन में मेरी मां इस दिन संतरे के छिलकों का सुगंधित उबटन बना कर हम बहनों के लिये रखा करती थीं। दही बेसन से बाल धोए जाते थे। वे कहती थीं इस दिन जो अपने रूप को निखारता है वह हमेशा सुन्दर बना रहता है। हम दीपावली के उल्लास में उबटनों की रगड़ का कष्ट व बालों को खींच खींच कर धोने का कष्ट भूल जाते थे।

साल भर के इंतज़ार के बाद आता है हिन्दुओं का सबसे बड़ा और सच कहूं तो सम्पूर्ण भारत का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण त्यौहार दीपावलीॐ दीपावली अपने साथ लाती है एक सन्देश‚ संसार में फैले हर किस्म के अंधकार को सौहार्द के दीपकों से मिटाया जा सकता है। जगर मगर दीपकों की यहां से वहां तक फैली कतारें… लक्ष्मीपूजन की गहमागहमी… घर और बाज़ारों में। रोशनियों के अथाह स्त्रोत। रंगों और प्रकाश का अद्भुत संयोजन‚ आतिशबाज़ीॐ कुल मिला कर रोशनी का यह त्यौहार हर छोटे बड़े को भाता है।

दीपावली से हमेशा कुछ दृश्यचित्र याद आते हैं –
घर नये रंग रोगन की महक और पकवानों की महक से हमें जगाता था।सुबह ही से तो हम लोग सैकड़ों दिये पानी में भिगो कर रख दिया करते थे‚ घर के लड़के कंदीलें सजाते‚ पुरानी छोटे रंगीन बल्बों की उलझी झालर सुलझाते‚ रिपेयर करते और घर की छत पर सजा देते। लड़कियां रंगोली सजाती घर के आंगन – द्वार पर। मां रसोई में अपनी बनारसी साड़ी बचाती पकवान तला करती। पिता झकाझक सफेद कुर्ता पजामा पहने मिठाईयों के डिब्बों और पटाखों को लेकर घर में घुसते। मां महरी‚ सफाईवाली‚ धोबी‚ अपने ऑफिस के चपरासियों के लिये नये पुराने कपड़े व पैसे‚ मिठाईयां – पटाखे अलग करके रखतीं। हम अपने मुहल्ले के अमीर गरीब सब बच्चों के साथ मिलजुल कर पटाखे चलाते‚ मिठाई खाते। कोई भेदभाव‚ दिखावा नहीं। बस सौहार्द ही सौहार्द।

यह तो अतीत की तस्वीरें हैं‚ अब दीपावली अपना स्वरूप बदल रही है।सबकुछ स्वकेंद्रित हो चला है। दीपक बाती की जगह मंहगी प्रोफेशनल सजावट ने ले ली है। एक बार ही में पांच साल के लिये हो गये अच्छे पेन्ट्स के चलते अब दीपावली पर घर कौन पुतवाता है? घर में पकवान कौन बनाता है। रंगोली और अल्पना अब हर घर में नहीं बनती। हाँ‚ आतिशबाजी की होड़ में सारा शहर अब ज़रूर पहले से अधिक प्रदूषित हो उठता है। स्वकेन्द्रित लोग दीपावली मिलन के समय भी अब स्वार्थ देख कर ही मिलने जाते हैं। इस त्यौहार की एक कमी जो मुझे उदास करती है‚ इसमें अब अमीरों की अमीरी तथा गरीबों की गरीबी बहुत मुखर होकर उभरती है। अंधेरी बस्तियों के तेल की कमी से एक एक कर बुझते दिये‚ और जगरमगर करते बड़े बड़े बाज़ार वर्गभेद को स्पष्ट कर जाते हैं। क्या हम अपने ज़रा से प्रयासों से यह बड़ा सा भेद ज़रा कम नहीं कर सकते?
हमारी परम्पराओं में से सहायता व सेवा तथा दान का महत्व कम क्यों होता जा रहा है‚ जबकि कर्मकाण्ड और दिखावा बढ़ा ही है। सही मायनों में लक्ष्मी पूजन की महत्ता दान में है‚ न कि धन की अपव्ययता में।

दीपावली के बाद के दोनों त्यौहारों की महत्ता कम नहीं। हालांकि गोवर्धन पूजा का प्रचलन अब केवल पशुपालकों तथा गांवों तक सीमित रह गया है। हमारी पशुपालक व पशुस्नेही संस्कृति अब क्षरित हो रही है। हमारा पशुधन जितना आजकल उपेक्षित हो रहा है उतना कभी नहीं हुआ। बढ़ती आबादी तथा निखालिस व्यवसायिकता ने पशुओं की हालत बदतर कर दी है। अपने पशुओं से काम लेकर‚ दूध निकाल कर उन्हें रास्तों पर भूखा छोड़ दिया जाता है। पॉलीथीन खाकर न जाने कितनी गायों ने दम तोड़ा है। बूढ़े‚ बेसहारा पशुओं को भारत के मध्यमवर्गीय इलाकों में सड़कों पर देखना एक आम दृश्य है। हालांकि कई संस्थाएं भी हैं जो बूढ़ी गायों तथा बेसहारा जानवरों की देखभाल करती हैं पर उनकी संख्या पशुओं के अनुपात में नगण्य है। वैसे गायों को सड़क पर दम तोड़ता देख भारतीय लोग अनदेखा कर आगे निकल जाते हैं और बूचड़खानों में किसी अहिन्दू द्वारा गाय के काटे जाने पर हंगामा खड़ा कर देते हैं। क्या हमें आवश्यकता नहीं कि हम फिर से पशुस्नेही हमारे परमआदर्श श्री कृष्ण की परम्पराओं को फिर से सही रूप में समझ कर पशुओं के महत्व को समझें उनका आदर करना‚ सहेजना सीखें। क्योंकि हमने इतिहास में पढ़ा था कि भारत में दूध दही की नदियां बहा करती थीं। पशुधन हमारा सबसे बड़ा धन है।

भाईदूज के साथ इस लम्बे हिन्दूपर्व का समापन होता है। लेकिन फिर दिसम्बर में आते हैं मीठी ईद और क्रिसमस इन त्यौहारों तक भी उल्लास चुकता नहीं। इन त्यौहारों का मज़ा लेते लेते नया साल आ जाता है। और यूं हम भारतीय आधा साल त्यौहारों के उल्लास में बिता देते हैं। ये त्यौहार जहां एक ओर प्रसन्नता लाते हैं‚ दिलों को जोड़ते हैं‚ संदेश देते हैं वहीं ये एक लक्ष्य भी रखते हैं हमारे समक्ष कि अगली बार इन त्यौहारों पर हमें और धन कमाना है‚ सौहार्द बढ़ाना है‚ परम्पराओं को आगे बढ़ाना है‚ आने वाली पीढ़ी को सही राह दिखानी है।

इस त्यौहारों के मौसम के लिये शुभकामनाओं के साथ
 

manaIYaa kulaEaoYz
navambar 4‚ 2002

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