|
बहस
जारी है – बलात्कार
बनाम मृत्युदण्ड
बलात्कार एक ऐसा अपराध है जो एक स्त्री
के शरीर को ही क्षत विक्षत नहीं करता
बल्कि
उसके दिलो दिमाग को निस्पन्द कर जाता है। जिसके ज़ख्म शरीर पर कम मन पर ज़्यादा
गहरे बनते हैं। वह एक स्थायी दु:स्वप्न की भाँति
अवचेतन पर छाया रहता है। एक सम्पूर्ण स्त्री का व्यक्तित्व खण्डित हो जाता
है। उस पर समाज का असहयोग ही नहीं बल्कि तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किसके प्रति
बलात्कारी के प्रति नहीं बलत्कृत के प्रति!
बलात्कार का शिकार चाहे किसी भी उम्र का हो वह शारीरिक पीड़ा से दुगुनी .मानसिक
पीड़ा देकर जाता है। चाहे बलत्कृत की उम्र ढाई वर्ष हो या इक्कीस या पैंतालीस।
भारतीय समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा ही कि बलात्कारों के मामले में समाज पहले
स्त्री पर उंगली उठाता है फिर अपराधी पर। उन्हीं संस्कारों में पली भारतीय
युवती बलात्कार के बाद स्वयं को दोषी मान बैठती है और आवाज़ उठाने से हिचकती
है। आवाज़ उठा ली और मामला पुलिस व अदालत तक पहुंचा तो ' एक तमाशा ' बन जाती
है। औरतों से चटखारे भरी सहानुभूति मिलती है तो आदमियों से लोलुप निगाह और
लांछन भरे व्यंग्य और आमंत्रण। और सच्ची सहानुभूति भी मिले तो वह उसके खुले
ज़ख्मों पर नमक का काम करती है। कुल मिला कर एक बलत्कृत युवती‚ बच्ची या स्त्री
इस समाज में फिर से सहज हो कर नये सिरे से जीवन नहीं शुरु कर सकती। क्योंकि
बलात्कार यौन से जुड़ा है… और यह विषय भारतीय समाज में आज भी शर्मीन्दगी‚
छुपाव दुराव का विषय है। उधर बलात्कारी निर्लज्ज ढंग से अपने आनन्द का बखान
करते छुट्टे घूमते हैं।
भारतीय समाज कितना भी संर्कीण हो कि वह बलत्कृत स्त्री को भी माफ न कर सके‚मगर
भारतीय अदालतें बड़ी उदार हैं‚ वे बलात्कारियों तक को बाइज़्जत बरी कर देती
हैं। नामालूम से सबूतों और गवाहों के अभाव में‚ शरीर के घाव‚ वीर्य के निशान
और हताहत स्त्री के बावज़ूद अपराधी छूट जाता है।
आजकल 'बलात्कार की सज़ा फांसी हो' पर बहुत बहस चल रही है। पर इस बहस का फायदा?
अगर यह कानून पास भी हो जाता है तो क्या? हमारे सर्वोच्च न्यायालय के
न्यायमूर्ती तो यही राग अलापेंगे कि ' मृत्युदण्ड तो दुर्लभतम में भी
दुर्लभतम मामलों में दिया जाना चाहिये।' क्या कभी दहेज हत्या के दर्दनाक हादसों
के आरोपियों को कभी फांसी हुई है? नन्हीं बच्चियों से बलात्कार और उसके बाद
हत्या के आरोपियों को भी उम्रकैद तक सीमित कर दिया गया। ऐसे में बलात्कार के
अपराधी को फांसी की सज़ा कैसे होगी? हुई भी तो वह अपराध 'जघन्यतम से जघन्यतम
की' अनोखी परिभाषा में कैसे समायेगा?
दहेज हत्याओं के किसी आरोपी को फांसी की सज़ा नहीं सुनाई गई‚ एक मामले में
सुनाई भी गई थी ताकि दूसरे लोग सबक ले सकें किन्तु बाद में यह सज़ा भी उम्रकैद
में बदल दी गई। तब से अब तक दहेज हत्या में उम्र्रकैद की सज़ा ही होती आ रही
है। क्या नैना साहनी की हत्या कर उसे तंदूर में छोटे छोटे टुकड़ों में जलाना
जघन्यतम नहीं था? तो आज भी क्यों उसका कांग्रेस नेता पति सुशील शर्मा आज जेल
में वी आई पी ट्रीटमेन्ट क्यों ले रहा है?
इस पितृसत्तात्मक समाज में न्याय से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह
बलात्कार‚ दहेज हत्या‚ पत्नी की हत्या‚ मादा भ्रूण व शिशु हत्या के मामलों
में पुरुषों को मृत्युदण्ड देगा! मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार और फिर हत्या
के जघन्यतम कई कई मामले ऐसे हैं जिनमें निचली अदालतों में दिये गये
मृत्युदण्ड को इलाहबाद‚ दिल्ली‚ कलकत्ता‚ जयपुर आदि के उच्चन्यायालयों ने
बाइज्जत रिहाई से लेकर उम्रकैद में बदला है। ऐसे में होता तो यह है कि मृत
बच्ची गवाही के लिये होती नहीं है और अपराधी बच निकलता है। ठीक है‚ न हो
बलात्कार की सज़ा फांसी किन्तु बलात्कार के बाद हत्या की सज़ा तो मृत्युदण्ड ही
होनी चाहिये। ऐसा भी हो जाये तो यह एक ऐतिहासिक घटना होगी।
मात्र यौनेच्छा शांत करने के लिये बलात्कार और फिर हत्या के अपराध की केवल एक
ही सजा होनी चाहिये वह है मृत्युदण्ड! जिससे कि यह अन्य अपराधियों के लिये डर
व झिझक पैदा कर सके। इस फैसले को राजनैतिक‚ सामाजिक तथा कानूनी मान्यता की
आवश्यकता है‚ और रही बात बलात्कार के अपराधियों की सज़ा की तो… वे अपनी साधारण
सज़ा तक से बच जाते हैं।इसकी वजह है कि बलात्कार सम्बन्धी कानूनों में इतने
बचाव के तरीके व खुले सूत्र है कि केवल चार से पांच प्रतिशत बलात्कारियों को
ही सजा हो पाती है। ऐसे में मृत्युदण्ड की अपेक्षा कितनी असामान्य है। क्या
उससे पहले हमें अपनी न्याय प्रणाली के ढीले सूत्रों को कसना नहीं चाहिये? जहाँ
लम्बित केसों में बलात्कार की शिकार युवती अपराधी को सज़ा तथा स्वयं न्याय पाने
की प्रतीक्षा में बूढ़ी ही हो जाती है‚ वहीं दूसरी ओर निर्णय होने तक बलात्कारी
स्वच्छंद घूमता है।
न जाने क्यों हमारी न्यायप्रणाली बलात्कारी को सजा देने में हिचकती है।
बलत्कृत युवती के चरित्र पर दोषारोपण शुरु हो जाता है। यह सन्देह किया जाता
है कि किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या बदले के चलते तो कहीं यह युवती आरोप तो नहीं
लगा रही? उस पर रसूख वाला अपराधी हो तो उसका छूटना उतना ही आसान होता है। पर
यह तो तय है कि किसी दुर्लभ मामले में ही कोई युवती बलात्कार का आरोप किसी
निर्दोष पर लगायेगी। ऐसा है तो पर्याप्त खोज बीन करके‚ निष्पक्ष होकर‚ डॉक्टरी
जांच का सही व ईमानदार उपयोग कर सही निर्णय पर पहुंचा जा सकता है।
भंवरी देवी सामूहिक बलात्कार केस के अपराधियों का सर्वोच्च न्यायालय से
बाईज़्जत छूट जाना हमारी न्याय प्रणाली के लिये शर्मनाक बात है। ऐसे में इन
कानूनी दांव पेंचों ‚ न्याय में राजनैतिक हस्तक्षेप के चलते स्त्री के प्रति
यौन हिंसा पर काबू नहीं पाया जा सकता। फिर 'बलात्कारी को फांसी की सजा हो'
जैसे नारों का क्या मतलब? सबसे पहले इन कानूनी प्रावधानों में सुधार की
आवश्यकता है। फिर ज़रूरत है बलात्कारी के लिये कठोरतम सज़ा मुकर्रर करने की ताकि
वह राह चलते किसी भी अकेली स्त्री को देख कर उत्तेजित होने से पहले दस बार
सोचे।
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
Top |
|
Hindinest is a website for creative minds, who
prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.
|
|