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अलविदा 2003 स्वागत 2004

अभी जनवरी 2003 ही की तो बात है भारत अनिश्चितता‚ साम्प्रदायिकता‚ नरसंहारों‚ आतंक‚ आर्थिक चरमराहट‚ अपराधों‚ घोटालों‚ राजनैतिक रेलमपेल के ढेर पर अन्यमनस्क सा खड़ा था। एक आम भारतीय अपनी स्थिति को लेकर पहले ही इतना त्रस्त था कि उसने तटस्थता की मुद्रा अख्.ितयार कर ली थी। जैसा कि हम सुनते आये हैं कि हर रात की सुबह ज़रूर होती है… या जब सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं तो एक पगडण्डी मिल जाती है… ठीक वैसे ही फलसफे के तहत धीरे – धीरे सब कुछ ठीक हो गया और 2003 के अंत तक न सिर्फ आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुआ भारत‚ आतंक व साम्प्रदायिकता से भी उबर रहा है‚ और यहां तक कि हमारे पड़ौसी स्वयं हमारे सिखाये पाठ को रट कर 'अमन – अमन' करते हुए आगे आ रहे हैं।
लेकिन ऐसा कतई नहीं है कि इन बारह महीनों में आज भारत जहां है उसमें एक आम भारतीय का योगदान नहीं है‚ है‚ और पूरा – पूरा है। एक आम भारतीय की सोच बदली है‚ नि:सन्देह इसमें मीडिया की प्रमुख भूमिका रही है। राजनीति के कुटिल और घाघ चेहरों से मुखौटे उतार कर मीडिया ने एक आम भारतीय को उसके लोकतान्त्रिक अधिकार के प्रति आगाह किया है।
सियासी तन्त्र का खुला चिट्ठा अब आम भारतीय के पास है‚ भ्रष्टाचार की मिठाई अब बहुत मीठी नहीं रह गई‚ इतने सारे मीडियाई खुलासों ने आला अफसरों‚ दिग्गज नेताओं के गले में इसी भ्रष्टाचार को फांस बना कर रख दिया है।पहली बार भारत के इतिहास में मन्दिर – मस्जिद और जातिगत मुद्दों से हट कर विकास के मुद्दों पर राजनीति की बिसात रखी गई‚ ऐसा पहली बार महसूस हुआ कि मोहरों की पहचान करने में भारतीय मतदाता सयाना हो रहा है।
रोजगार के क्षेत्र में भी एक आम भारतीय युवा को अच्छी तरह समझ आ गया है कि सरकारी नौकरियों के पीछे की अंधी दौड़ व्यर्थ है। अब युवा वर्ग आम औपचारिक शिक्षा से हट कर व्यवसायिक शिक्षा की ओर मुखातिब तो हो ही रहा है और अपने लिये स्वतन्त्र रोज़गार उत्पन्न कर रहा है‚ अथवा रोज़गार के नये खुलते आयामों की तरफ बढ़ रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी कई तरह के व्यवसायिक रोजगारोन्मुख प्रशिक्षणों की बढ़ोतरी हुई है।
भारत जो लम्बे समय तक तीसरी दुनिया के देशों में शुमार किया जाता रहा‚ भारत और गरीबी एक दूसरे का पर्याय माने जाते थे‚ अचानक इसने अपने सही व सुदृढ़ कदमों से विश्व की अर्थव्यवस्था की तेज़ रफ्तार से कदम मिलाये और परिणाम स्वरूप इस समय भारत विदेशी मुद्रा के भण्डारण में विश्व में पांचवे स्थान पर है‚ और हमने सौ बिलियन डॉलर का आंकड़ा पार कर लिया है। इस समय भारतीय होना एक गौरवमयी ही नहीं बल्कि आनन्ददेय – आरामदेह अहसास है। दुनिया भर में मंदी के दौर के बावज़ूद 100 से अधिक भारतीय कम्पनियां करोड़ों के निर्यात में लगी हैं।
आज भारत की विश्व में अपनी राजनैतिक साख है इसका उदाहरण है सन् 2003 में हमारे प्रधानमंत्री विश्व के शक्तिशाली देशों के बाहुबलियों के बीच चर्चा करते व बैठे दिखे। भारत अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में महत्वपूर्ण देश बन कर उभरा है। यह सब हमारे प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के लिये इतना आसान नहीं था… जैसे कि मध्य एशिया में अपनी मित्र वाली छवि बनाए रख कर भी अमेरिका को संतुलित रख पाना। इराक के मसले पर अमेरिका का साथ दिये बिना अपने सहज सम्बन्ध बरकरार रख पाना। पोकरण प्रशिक्षणों के सिद्धान्त पर डटे रह कर भी अमरीकी उच्च तकनीकी समझौतों को सही सलामत रख पाना। यह भारत का नया आत्मविश्वास ही है कि वह दृढ़ता से पाकिस्तान को जहां वह एक ओर यह जताता आ रहा है कि सीमा पार का आतंकवाद सहन नहीं होगा‚ वहीं शांति प्रयासों में भारत की ओर से कहीं कमी नहीं आई है।
कुल मिला कर 2003 वर्ष भारत के लिये सुनहरा वर्ष रहा‚ एक ऐसा वर्ष जिसने भारत की नींव पुख्ता की है‚ एक ऐसा वर्ष जिसने शांति‚ विकास और अपनी प्रतिष्ठा के ऐसे बीज बोये हैं… जिन्हें उसे आने वाले वर्षों में सींचना है और एक समय बाद उसके मीठे फलों की फसल को काटना है। चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो‚ शिक्षा‚ कला‚ साहित्य‚ खेलकूद‚ मनोरंजन‚ आम सामाजिक जीवन… हर क्षेत्र में बीते वर्ष में नये लक्ष्यों के नक्श तय किये हैं जिन्हें आने वाले वर्ष में हमें तराशना है…
सन् 2004 कैसा होगा‚ यह प्रश्न व्यर्थ है‚ सन् 2003 की खुलती खिड़की और अनन्त आकाश में 2004 नि:संदेह प्रखर सूर्य की तरह चमकीला होगा। बशर्ते हम भारतीय यही सयानापन आने वाले वर्ष में भी दिखाएं।
नववर्ष तथा आने वाले मौसमों के लिये अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ
 

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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