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गला घोंटू लोकतन्त्र
गला घोंटू लोकतन्त्र की ताजा मिसाल हाल ही में हमारे पड़ौसी देश ने रखी है। जनरल मुशर्रफ को क्या महज चीफ एक्जीक्यूटिव या एक जनरल के रूप में भारत आते में शर्म सी आ रही थी कि उन्होंने‚ बिना किसी पूर्व संकेत वर्तमान राष्ट्रपति रफीक तरार से इस्तीफा ले स्वयं को राष्ट्रपति घोषित कर दिया।विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार स्वयं हतप्रभ हैं कि उन्हें अंधेरे में रख यह चौंकाने वाला कदम उठा लिया गया‚ इस गुस्ताख़ कदम पर अमेरिका की नाराज़गी जायज़ है।
 

लगान:
हिन्दी सिनेमा में भारतीयता की एक नई लहर की शुरूआत

लगान 1890 के दशक के घटनाक्रम से जोड़ती कहानी है। यह एक साहस भरा दांव था जो लग गया। और चॉकलेटी हीरो और तंग कपड़ों में अपने अंग्रेजी लहजे में हिन्दी के फार्मूला छाप डायलोग बोलती हीरोईन को देख देख कर अपना स्वाद भूल गए भारतीय दर्शकों के लिये यह सोंधी उड़द की दाल और मक्का की रोटी और घड़े के ठण्डे पानी का स्वाद था। लोगों को खूब पसंद आया ये भारतीयता से जोड़ता आमिर और निर्देशक आशुतोष गोवारीकर की इसकी टीम का परिश्रमयुक्त प्रयास।

लगान आमिर खान का एक जुनून प्रोजेक्ट था जिसके लिये आमिर खान ने बहुत सारी रिसर्च की‚ मेहनत की और प्रतिकूल परिस्थितियों में एक ही शेड्यूल में शूटिंग पूरी की गई। इस वर्ष की सबसे मँहगी फिल्मों में शुमार यह फिल्म कामयाबी के लिये आदर्श सिद्ध हुई। इसके पीछे आमिर की कर्म के प्रति विश्वास की दृढ़ता ही रही कि उन्होंने इस महँगी और नितांत अलग किस्म की कहानी पर 25 करोड़ के बजट वाली फिल्म बनाने का दु:साहस किया। आमिर ने चुनौती स्वीकार की और बना कर कहा‚ ''आखिर हमने वह चीज़ बना ली जिसे हम बनाने चले थे।'' निर्माण के क्षेत्र में लगान आमिर की पहली फिल्म‚ नि:संदेह आम फिल्मों से हटकर है ‚ ब्रिटिश शासन के एक कालखण्ड पर बनी यह फिल्म यथार्थपरक प्रस्तुति और बेहतरीन अभिनय के कारण भारतीय फिल्मों में बेहतरीन फिल्मों में एक गिनी जा सकताी है।
लगान एक शोषित होते वर्ग का अलग किस्म का प्रतिशोध है। यह कहानी तब की है‚ जब हिन्दुस्तान अंग्रेजों के अधिकार में था। धूल से भरे एक अवध के गाँव में एक अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी अकाल और लगान की दोहरी प्रताड़ना सह रहे ग्रामीण युवक भुवन को‚ क्रिकेट को बचकाना खेल कहने की सजा में क्रिकेट खेलने की चुनौती देता है। शर्त यह रहती है कि अगर भुवन जीता तो उसके गाँव और साथ के कई गाँवों का तीन साल का लगान माफ‚ हारा तो दोगुना लगान देना होगा। दोनों तरह से भूखा ही मरना है तो क्यों न खेलने की चुनौती ही स्वीकार कर ली जाए। भुवन चुनौती स्वीकार कर लेता है।

इसके पात्र बहुत सहज और वास्तविक लगते हैं। वे धोती–कुर्ता‚ चोली घाघरा पहनते हैं और अच्छी अवधी बोलते हैं। तीन घण्टे और बयालीस मिनट लम्बी यह फिल्म एक पल को भी उबाऊ नहीं लगती। यही इस फिल्म की खासियत है कि इसमें एक संजीदा विषय को सहज और रुचिकर तरीके से प्रस्तुत किया गया है।

भुवन के पात्र में आमिर खूब जँचे हैं‚ स्वाभाविकता ऐसी कि आमिर और भुवन को अलग करके देख पाना कठिन लगता है। नवोदित अभिनेत्री ग्रेसी सिंह का अभिनय भी अच्छा रहा। कैप्टन एन्ड्रयू रसेल की भूमिका में इंग्लैण्ड से आये पॉल ब्लैकथॉर्न का अभिनय और संवाद प्रस्तुति बहुत प्रभावशाली रही। ऐलिज़ाबेथ की भूमिका में रसैल शेली भी स्वाभाविक रहीं। अन्य साथी कलाकारों की मेहनत भी दिखाई देती है।
संगीत तो उत्कृष्ट है ही‚ रहमान ने भी इतिहास के उस कालखण्ड को छूकर गुजरने वाला संगीत दिया है।

अरसे बाद एक अच्छी फिल्म को पिक्चर हॉल में देखना दर्शकों को अखरेगा नहीं ‚ भाएगा ही। अनिल शर्मा की सनी देओल अभीनीत 'गदर' भी काफी चर्चित रही। ऐसी फिल्में शायद विदेशों में शूट फिल्मों और बेकार की रोमांटिक फिल्मों की लीक तोड़ दें‚ और एक नयी लहर आए अच्छी और यथाथ–परक फिल्मों की।
 

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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