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लोकतन्त्र बनाम पाकिस्तान
लोकतन्त्र की एक आदर्श परिभाषा अब्राहम लिंकन ने प्रस्तुत की थी जो लगभग सारी दुनिया में स्वीकृत हुर्ई –
''लोकतंत्र में सरकार जनता की होती है‚ जनता द्वारा बनाई जाती है‚ जनता के लिये होती है।''
 

भारत में भी कई अवधारणाओं ने जन्म लिया लोकतन्त्र‚ संसद और जनप्रतिनिधी। यूरोप में भी पंद्रहवीं सदी से ही लोकतन्त्र की नींव पड़ने लगी थी। वैसे तो प्राचीन भारत के इतिहास में गणतन्त्र मगध‚ वैशाली आदि राज्यों में प्रतिष्ठित था ही। हमारी पंचायतें भी लोकतंत्र के प्रति लोगों के विश्वास को पुष्ट करती आई हैं।

किन्तु पाकिस्तान! पाकिस्तान जब बना तब बन तो गया मगर तब विभाजन के पूर्व ब्रिटिशों द्वारा बनाए शासन तंत्र के स्केलेटन को वह कोई पुख्ता स्वरूप न दे सका जबकि भारत की प्राथमिकता यही रही कि जल्द से जल्द अपना नया संविधान बनाया जाए। नवम्बर 1949 तक यह वृहत कार्य सम्पन्न हो भी गया और छब्बीस जनवरी 1950 को वह लागू हो गया किन्तु पाकिस्तान में ऐसा न हुआ। बस कामचलाऊ संविधान बने जिन्हें कोई भी शासक अपनी मर्जी से तोड़ता–मोड़ता रहा। इस मामले में पाकिस्तान का दुर्भाग्य यह था कि पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु विभाजन के एक वर्ष बाद ही हो गई। पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की रावलपिण्डी में हत्या कर दी गई। ख्वाजा निजामुद्दीन पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश है के एक ढीले–ढाले नेता थे उन्हें जिन्ना की जगह गवर्नर जनरल बना दिया गया। इधर लियाकत अली खान की सरकार के एक चतुर महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने स्वयं गवर्नर का पद संभाल ख्वाजा निजामुद्दीन को प्रधानमंत्री बना दिया। उस समय पाकिस्तान गणतंत्र नहीं था और गवर्नर जनरल प्रधानमंत्री से अधिक महत्वपूर्ण पद हुआ करता था। यह व्यक्ति था गुलाम मुहम्मद।

बस यहीं से शुरू हुआ सिलसिला लोकतंत्र की गले पर चाकू रेतने का। इन्होंने प्रधानमंत्री को उसके मंत्रीमण्डल सहित‚ केन्द्रीय संसद तथा प्रांतीय विधानसभाओं को भंग कर सारे अधिकार स्वयं ले लिये और पाकिस्तानी राजनीति में सेना की घुसपैठ बढ़ती गई। इस बीच कितने ही प्रधानमंत्री बदले । फिर जनरल इस्कंदर मिर्ज़ा ने संविधान निरस्त कर स्वयं को राष्ट्रपति घोषित कर लिया। 1958 में जनरल अयूब खान ने इस्कंदर मिर्ज़ा से जबरदस्ती त्यागपत्र लेकर उन्हें देशनिकाला दे दिया। जनरल अयूब खान ने 1969 तक पाकिस्तान पर शासन किया । 1962 में उन्होंने एक संविधान प्रस्तुत किया था उसमें नियंत्रित और निर्देशित लोकतंत्र का मजबूत पक्ष रखा गया था। अपने ही शासनकाल में उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को हराया। लम्बे शासन काल के बाद वहाँ के जनमत में विरोध उभरने लगा तो स्वयं को संकट में पा उन्होंने सत्ता सेना के ही जनरल याह्या खान को दे दी। जनरल याह्या खान ने सारे देश में मार्शल लॉ लगा दिया और जनता में जो थोड़ी जागरूकता उभरी थी उसे फौजी अत्याचारों से दबा दिया गया।

याह्या खान के शासनकाल में बांग्लादेश बना। इसकी भूमिका में दो भारत–पाक युद्ध हुए। 1971 की इस पराजय के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से गुज़र और जनता की स्वीकृति पा कर पाकिस्तानी नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने सत्ता की बागडोर संभाली और 1977 तक शासन किया। किन्तु सेना को सत्ता के खून का स्वाद लग चुका था सो अवसर पाते ही जनरल जिया उल हक ने न केवल उन्हें सत्ता से बेदखल किया वरन अपने एक विरोधी नेता की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर अन्तत: उन्हें फाँसी दे दी।

पकिस्तान में लोकतंत्र तब वापस आया जब 1988 में एक हवाई दुर्घटना में जनरल जिया की मौत हो गई। 11 वर्षों तक वहाँ लोकतांत्रिक सरकारें बनती–बिगड़ती रहीं। आखिरकार 1997 में पूर्ण बहुमत से चुनी गई नवाजशरीफ की सरकार 1999 में जनरल मुशर्रफ द्वारा पलट दी गई और फिर से वहाँ सैन्य शासन लागू हुआ। अब तक यह परम्परा ही बन चुकी थी कि पाकिस्तान में जो भी सेना का मुखिया होता है वह लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी सरकार को बर्खास्त कर सैन्यशासन स्थापित करता है और अंत में कठपुतली बने राष्ट्रपति को हटा स्वयं राष्ट्रपति बन जाता है। पाकिस्तान में इतिहास ने चार बार स्वयं को दोहरा कर इसे परम्परा ही बना दिया है। मुशर्रफ का हाल ही का कदम इस परम्परा की चौथी कड़ी साबित हुआ।

जनरल मुशर्रफ पूर्व के सैन्य शासकों से कई हाथ आगे हैं। उनके पास अधिक शक्ति व अधिकार हैं। वे राष्ट्रपति हैं‚ मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष भी।

पाकिस्तान में लोकतंत्र की नींव सदा ही से बेहद कमज़ोर थी और निरंतर कमज़ोर हो रही है। लेकिन आश्चर्य कि वहाँ कि जनता इसे कैसे स्वीकार करती चली आई है? या वह मान चुकी है कि लोकतन्त्र पाकिस्तान की किस्मत नहीं।
 

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

इसी संदर्भ में –
क्या नाकामयाब ही होना था शिखर वार्ता को?

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