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नयी सदी का पहला स्वतन्त्रता दिवस
स्वाधीनता: आज भी क्या शेष है‚
इस शब्द का अर्थ?

जब सन् 1947 में भारत आज़ाद हुआ होगा‚ तब हर भारतीय ने सुख की साँस ली होगी कि अब उनका देश कोई विदेशी हाथ नहीं चलाएगा‚ उनका ही चुना गया कोई लायक नेता इसे चलाएगा। ऐसा नहीं कि उनका सपना साकार नहीं हुआ। साकार हुआ और कई अच्छे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत को मिले। किन्तु कुछ दीमकें आज़ादी के साथ ही हमें जड़ों में मिलीं जिन्होंने आज आज़ादी के 54 वर्षों में देश को इतना खोखला कर दिया कि कितना भी बेहतरीन शासक इनका कोई इलाज नहीं कर सका। और आज ये आलम है कि हमारे लिये आज़ादी का अर्थ आज़ादी नहीं रहा।
ये दीमकें हैं – अलगाववाद‚ जातिवाद‚ लालफीताशाही‚ कालाबाज़ारी‚ संरक्षणवाद‚ आरक्षण‚ अमीरी–गरीबी के बीच बढ़ती हुई दरारें और भ्रष्टाचार। बस यहीं आकर आज़ादी की वह खुशहाल तस्वीर ढहती नज़र आती रही है। आज़ादी के प्रति जनसाधारण का मोहभंग हो चुका है‚ उसके लिये स्वाधीनता दिवस के कोई मायने नहीं है। वह तो आज भी राशन की कतार में लगा है‚ भ्रष्टाचार के आगे लाचार खड़ा हुआ रिश्वत के पैसे जुटा रहा है‚ जातिगत हिंसा का शिकार हो रहा है। अपनी आय के अनुपात में जो कर वह दे रहा है‚ उसके बाद खड़ा सोच रहा है कि अब घर का खर्च कैसे चलाएगा? कैसे मनाए वह पन्द्रह अगस्त?

सच पूछो तो कैसी आज़ादी मिली है हमें? जब हमारे मूलभूत अधिकारों को इस्तेमाल करने की आज़ादी तक ही नहीं। अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं‚ धर्म अब राजनीति खेल बन कर रह गए हैं। रोजगार आरक्षण की भेंट चढ़ गए। बचे–खुचे अधिकार भ्रष्टाचार के हाथों बिक गए। आतंकवाद के चलते हमारी स्वाधीन जनता के मन में भय ने स्थायी निवास कर लिया है।

आज एक आम आदमी स्वाधीनता के प्रश्न पर चाहे कहे कुछ नहीं पर सोचता अवश्य है। बेरोजगार है तो‚ यह कि जब जीविका का प्रश्न बड़ा हो तो‚ काहे की आज़ादी? रोजगार वाला है तो‚ यह कि अपनी गाढ़ी कमाई में से कटे टैक्स पर नेता मंत्री आदि देश के विकास की जगह अपने ऐश्वर्यमय जीवन पर खर्च करे दे रहे हैं तो कैसी आज़ादी? जहाँ मूलभूत आवश्यकताओं जैसे स्वास्थ्य सुविधा‚ आवास‚ पानी–बिजली‚ राशन‚ शिक्षा और सुरक्षा के लिये मारामारी हो तो कैसी आज़ादी ?

आज स्वाधीनता के नाम पर जनसाधारण के मन में उत्साह की जगह असंतोष है। क्या यह सही समय नहीं कि अब चेता जाए और देश को और जर्जर होने से बचाया जाए।

अगर यह समस्या मात्र सरकारों को दोष देने से सुलझाई जा सकती तो‚ ऐसे हजा.रों लेखों के छपने के बाद ही देश सुधर गया होता। हमारी सरकार जहाँ ढीठ हैं‚ वहीं कुछ हद तक विवश भी। धर्म‚ प्रदेश‚ जाति‚ और वर्ग के नाम पर हमारा देश इस कदर बिखर गया है कि इसे फिर समेटने का प्रयत्न हम नागरिकों को भी करना होगा‚ भ्रष्टाचार को उसकी छोटी इकाई से नष्ट करना आरंभ करना होगा। पहले स्वयं से शुरुआत करनी होगी कि आप अपना काम रिश्वत या सिफारिश से नहीं करवाएंगे। जब हम ही मान लेंगे कि भई यहाँ तो इसके बिना काम नहीं निकलता तो इस भ्रष्टाचार का कोई इलाज ही नहीं।
जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है‚ दलितों के नाम पर अब बहुत हो चुकी घिनौनी राजनीति और अलगाव‚ अब इसे गरीबी की सीमा के आधार पर निर्धारित करना चाहिये। और आतंकवाद तो हमारी सहिष्णुता की देन है। अब सख्त हो जाना ही हमारे देश के हित में है। कालाबाज़ारी और लालफीताशाही भ्रष्टाचार की बहनें हैं। जब तक भ्रष्टाचार रहेगा यह रहेंगी ही।

अमीरी–गरीबी के बीच की दरार सालों से पाटने में नहीं आ रही है‚ अनेकों सरकारें आईं‚ चली गईं। यह घटने की जगह बढ़ती जा रही है। असफल होते परिवार नियोजन के कार्यक्रम और लगातार बढ़ती जनसंख्या इसके मूल में है। जब हमारे नेताओं‚ मंत्रियों के आठ–आठ‚ दस–दस बच्चे हैं तो आम आदमी का क्या आदर्श हो? बंटती ज़मीनें‚ बढ़ती मंहगाई‚ प्राकृतिक असंतुलन के चलते नित नई प्राकृतिक आपदाओं से जूझते देश में गरीब और गरीब हो रहा है और भ्रष्टाचार‚ कालाबाज़ारी के चलते अमीर और अमीर हो रहा है।
असंख्यों समस्या में उलझा देश स्वयं आज अपनी स्वाधीनता के प्रति उत्साही नहीं। फिर हम किस आज़ादी के लिये गीत गाएं?

धर्म के नाम पर भड़कने से फायदा? आपका धर्म है‚ आप निभाएं। अपना नेता सही चुनें। अपने वोट का इस्तेमाल करें। गलत बात पर आवाज़ उठाएं। इतनी आज़ादी तो आपको है ही। तो अपनी आज़ादी का सही इस्तेमाल करना भी तो सीखें। खाली सरकार को कोसने से क्या होगा जब हमारी ही आदतें खराब हों तो? अगर हम अपनी इस नपी–तुली आज़ादी का सही इस्तेमाल नहीं करते तो "स्वतन्त्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है!" बचपन में पढ़ा और रटा हुआ नारा–मात्र रह जाता है‚ अपने निजी जीवन‚ परिवार‚ समाज एंव राष्ट्र को सर्मद्ध बनाने का आदर्श नहीं! वास्तव में हमें स्वतन्त्रता के सही मायने समझने होंगे और उस अर्थ को अपनी दैनिक दिनचर्या में पूरे विश्वास और लगन से लागू करना होगा। स्वयं को "स्व" और "तन्त्र" को अपनी कार्मिक चेतना से जोड़ना होगा‚ तभी हम आत्मसम्मान के साथ स्वतन्त्र जीवन जी सकते हैं।

 
– राजेन्द्र कृष्ण

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