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अफगानिस्तान:
हालातों का मारा एक देश

अफगानिस्तान की किस्मत कहें या भौगोलिक–विभिन्न कबीलों में बंटी सामाजिक स्थिति‚ यह पिछली सदी के साथ ही से कई युद्धों और गृह युद्धों का भुक्तभोगी रहा है। कभी ब्रिटेन और रूस ने अफगानिस्तान में रह कर लम्बी अप्रत्यक्ष लड़ाई लड़ी। फिर 1979 में सोवियत सेनाओं ने काबुल में प्रवेश कर अमेरिका से लड़ाई लड़ी। अफगानिस्तान बेवजह अपनी सुविधाजनक भौगोलिक स्थिति की वजह से उस समय की दो महाशक्तियों के बीच के संघर्ष का लगातार शिकार बना। अमेरिका की जीत हुई सोवियत संघ की बुरी हार‚ मगर अफगानिस्तान बेवजह युद्धभूमि बन कर रह गया।

फिर शुरु हुआ गृहयुद्धों का अनवरत सिलसिला। फिर मुजाहिदीनों का कब्जा‚ फिर तालेबानों की खौफ से लबरेज हुकूमत। नार्दन एलायंस और तालेबानों की गैरजरूरी जंग तो चलती ही रही है।

पिछले दो दशकों में 20 लाख लोग इन युद्धों का शिकार हुए। और अफगानिस्तान विकास की धारा से अलग–थलग पड़ा‚ ध्वस्त‚ उजाड़ किसी पुरानी सभ्यता का अवशेष नज़र आने लगा है। धार्मिक उन्मादियों के उन्माद की प्रयोगशाला बने इस देश में अब नष्ट करने को कुछ शेष नहीं रहा।
कभी यह देश रविन्द्रनाथ टेगौर के हँसमुख नायक काबुलीवाला का अपना वतन हुआ करता था। यहाँ की स्त्रियाँ आज की अपेक्षाकृत कहीं आज़ाद थीं। उन्हें आज़ादी थी पढ़ने की‚ अपना व्यवसाय चुनने की‚ हिन्दी फिल्में देखने की। अब ये शिक्षा ही नहीं‚ सहज चिकित्सा सेवाओं से भी वंचित कर दी गई हैं‚ महिला चिकित्सक को प्रैक्टिस करने की इजाज़त नहीं और बीमार होने पर अफगानी महिलाओं को मर्द चिकित्सक के पास जाने का हक ही नहीं। कभी शादी ब्याह अफगानिस्तान में खुशियों के मंजर लाया करते थे‚ जब कई दिन तक नृत्र्यसंगीत चलता था। अब हालात यह हैं कि एक विवाह में बुरके में से दुल्हन की मेंहदी लगी हथेलियाँ दिख गईं तो उसके हाथ ही काट डाले गये‚ तालेबानों के हुक्म से।

अब यहाँ ज्यादातर लोग या तो युद्धों में मारे गए हैं या‚ आस–पास के देशों में जाकर शरणार्थियों का सा जीवन व्यतीत करने को विवश हैं। जो यहाँ हैं वे अब भी भुखमरी‚ तालेबानी पाबंदियाँ और युद्ध झेल रहे हैं। अब यहाँ खण्डहरों और युद्ध या संघर्ष में इस्तेमाल होते पुरुषों‚ बुरका पहने स्त्रियों और भूख से बिलबिलाते बच्चों के सिवा कुछ नहीं दिखाई देता। हथियारों के ढेर में तब्दील इस समाज का यह हश्र बहुत दु:खदायी है।

अफगानिस्तान की एक चौथाई आबादी करीब 40 लाख नागरिक युद्ध की दो तरफा मारों से बचने के लिये पड़ोसी देशों खासतौर पर पाकिस्तान पलायन कर गए हैं। अफगानिस्तान सऊदी ओसमा बिन लादेन के मजहबी जेहाद की आधारभूमि बन कर रह गया है। तालेबानी फौज में पाकिस्तानी मदरसों से निकले मासूम किशोरों से अटी पड़ी है। 1998 में मजारशरीफ में 1500 युवक तालेबानी लड़ाई में मारे गए।

तालेबान की शुरुआत 1994 में पख्तून में हुई थी‚ इसके नेता थे मोहम्मद उमर। मजहबी आस्था और पाकिस्तान की फौज की मदद से तथा सऊदी अरब की आर्थिक मदद से इस सामंतवादी व्यवस्था ने अफगानिस्तान में अपनी जड़ें फैलाना शुरु की थीं। तालेबान का साथ देने वाले लोग कट्टरता की अंतिम सीमा तक जाकर आस्था रखने का दावा करते थे और वे मानते थे कि अफगानिस्तान के जबरन शुद्धीकरण से ही खुशहाली आएगी। तब ओसमा बिन लादेन बस एक असंतुष्ट सऊदी था और तालेबान की आर्थिक मदद किया करता था। इसी धन के लालच और धर्मान्धता के चलते तालेबान की फौज पाकिस्तानी मदरसों से धर्मान्धता का पाठ पढ़ कर निकले नौजवानों‚ किशोरों‚ अरब वॉलेन्टियर्स का मिश्रण बन गई। और शुरु हुआ आतंक का नया दौर जो अब विश्वभर में अपनी जहरीली जड़ें फैला रहा है।

जेहाद आखिर किसके खिलाफ? मन में प्रश्न उठता है कि अगर जेहाद करनी ही है तो मासूम किशोरों‚ नौजवानों के खून से क्यों? अपने धर्म‚ अपने लोगों से इतना प्रेम है तो‚ इनकी बेपनाह मौतों और आत्मघाती हमलों की होली क्यों?
अशिक्षा इस जेहाद की दिशा अपने देशों में फैली गरीबी‚ कुव्यवस्था‚ के प्रति मोड़ी नहीं जा सकती? इससे ही धर्म और मानवता का कल्याण होगा। खून की होली और लाखों नौजवानों को किशोरावस्था से ही जंग का मैदान दिखाने‚ उनके हाथ अस्लहों से भर देने से धर्म का पालन नहीं होता। ये अमीर इस्लामिक देश आर्थिक सहायता करते हीं हैं तो धार्मिक कट्टरता फैलाने में क्यों? अफगानिस्तान में भूख से बेहाल‚ युद्ध से डरे हुए अपने इस्लाम भाइयों को भोजन और छत मुहैय्या कराने के लिये क्यों नहीं? आतंक फैलाते धर्मान्ध जेहादियों को मोहरा बना कर चलाते हुए ये सरमाए तो स्वयं सुरक्षित और भरे हुए पेटों वाले हैं। जिनके धर्म को बचाने और शुद्ध बनाने की जंग चल रही है वे तो पहले ही भूखे‚ उजड़े लोग हैं।

अब इंतहां है अफगानिस्तान के उजड़ने की देखिये अब आगे क्या किस्मत हो इस अपनों के ही मारे देश की?

– राजेन्द्र कृष्ण
 

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