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अमेरीका और आतंकवाद

11 सितम्बर के बाद संयुक्तराष्ट्र की बैठक में आतंकवाद को परिभाषित करने के लिए जो जद्दोजहद चली, उससे यह स्पष्ट होता है कि विश्व बुद्धिजीवी आतंकवाद को परिभाषित करने वाली कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दे सके। जहां तक आतंकवाद की परिभाषा की बात है, आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार अपने राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ समूहों द्वारा हिंसात्मक तरीके का अपनाया जाना ही आतंकवाद है परन्तु यह परिभाषा विश्व मानचित्र के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों को परिभाषित करने के लिए पूर्ण नहीं मानी जा सकती।

वैसे तो हम चर्चा करना चाहते हैं, अमेरिका और आतंकवाद की। क्योंकि अमेरिका और आतंकवाद दोनों को अलग करके देखना, इसके वास्तविक निरीक्षण के साथ बेईमानी होगी। सही बात तो यह है कि शीत युद्ध काल से ही अमेरिका विश्व में अपन प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में आतंकवाद को परोक्ष या अपरोक्ष बढ़ावा देता रहा है। चाहे वह पश्चिम एशिया, चेचेन्या, अफगानिस्तान या फिर कश्मीर हो। तमाम सर्वेक्षणों के बाद दुनिया के प्रमुख बुद्धिजीवियों का ये मत है कि आतंकवाद की मूल धुरी अमेरिका के प्रोत्साहन पर आधारित है। शीत युद्ध के दौरान हथियारों की होड़ और तत्कालीन सोवियत संध की प्रतिद्वंदिता के फलस्वरूप अमेरिका ने दुनिया में हथियार पानी की तरह बहाए और अमेरिका की प्रमुख खुफिया एजेंसियों ने आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने का काम बखूबी निभाया। 11 सितम्बर के बाद अमेरिका द्वारा छेड़े गए आतंकवाद के खिलाफ घोषित युद्ध की वास्तविकता आम जनमानस से छिपी अवश्य हो सकती है परन्तु बुद्धिजीवियों से छिपाना मुश्किल है। विभिन्न समाचार पत्रों ने समय समय पर अमेरिका के दोहरे मानदण्ड की चर्चा शीर्ष पंक्तियों में की है।

जहां तक प्रश्न दोहरे मानदण्ड का है तो इस सम्बन्ध में इजरायल फिलीस्तीन संघर्ष का उल्लेख करना ज्यादा उपयुक्त होगा। संक्षेप में हम यदि इजरायल व फिलीस्तीन संघर्ष के अतीत के इतिहास को जान लें तो अमेरिका की नीतियों को जान लेना और आसान होगा। 1920 में अंग्रेजी औपनिवेशिकरण के दौरान यहूदियों का फिलीस्तीन में पलायन शुरू हो गया था। तत्कालीन फिलीस्तीनी नेताओं के विशेष स्वरूप ब्रिटिश सरकार का कहना था कि फिलीस्तीन यहूदियों का राष्ट्रीय घर है। अब ऐसे में निर्वासित यहूदियों और वहां के मूल निवासी अरबों के बीच संघर्ष की आधारशिला तैयार हुयी। समस्या का समाधान करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को हस्तक्षेप करना पड़ा। 19 नवम्बर 1947 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने फिलीस्तीन को दो भागों में बांट दिया। इस प्रकार इजरायल 15 मई 1948 को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थपित हो गया, लेकिन संघर्ष यहां भी थमा नहीं क्योंकि इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दी गयी जमीन के अतिरिक्त 25 प्रतिशत भू–भाग पर कब्जा कर लिया। समस्या की मूल धुरी जेरूसलम को दो भागों में बांटकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने समस्या का समाधान करने की बेशक कोशिश की परन्तु दोनों विभाजित भाग पश्चिमी तट और गाजापट्टी धार्मिक व राजनैतिक महत्व के कारण विवाद का मुद्दा बने रहे। जब हम इतिहास के पन्नों को उलटते हैं तो इजरायल द्वारा बर्बरतापूर्ण कार्यवाहियों का पर्दाफाश होता है। 1967 में इजरायल ने हमला करके गाजापट्टी, पश्चिमी किनारा, गोल्डेन हाइट क्रमशÁ मिश्र जार्डन और सीरिया से छीन लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बनाए गए कानूनों का उल्लंघन इजरायल ने सहजतापूर्वक किया।

अब प्रश्न उठता है कि छोटे से राष्ट्र इजरायल को अपने पड़ोसियों के ऊपर कहर बरपाने की शक्ति कहां से मिली? तथ्यों का लेखा–जोखा करने के बाद हमें ये पता चलता है कि इजरायल को लागत मूल्यों पर हथियार उपलब्ध कराने का काम अमेरिका और ब्रिटेन ने किया। यहां तक कि इजरायल के सैनिक अधिकारियों का प्रशिक्षण शिविर अमेरिका और ब्रिटेन में हुआ करता था। 1978 में कैम्प डेविड समझौते के तहत जिस शांति प्रक्रिया की शुरूआत हुयी थी, उससे भी इजरायल का कोई सरोकार नहीं रहा और इजरायल आक्रमण पर आक्रमण करता रहा। 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इजरायल से पड़ोसी देशों की अधिग्रहीत भूमि वापस कर देने को कहा परन्तु इजरायल संयुक्त राष्ट्र संघ की बात न मानकर, वाशिंगटन से विवादास्पद भूमि में चुनाव कराने और एक प्रशासनिक समिति की स्थापना की मांग करने लगा। इजरायल का कहना था कि तब तक प्रशासनिक समिति इस क्षेत्र कार्य करती रहेगी, जब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो जाता परन्तु अमेरिका ने पश्चिम एशिया शांति वार्ता पर विशेष जोर दिया। शांति वार्ता के अलावा कोई रास्ता नहीं था क्योंकि इजरायल ने फिलीस्तीनियों को विवादित भूमि से भगाने का कार्य शुरू कर दिया था और पूरी की पूरी भूमि वहां के मूल निवासियों से खाली करा ली। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने इजरायल के इस कृत्य की घोर निंदा की। इजरायल का आरोप था कि विवादित भूमि पर रह रहे लोग हमास आतंकवादी आंदोलन के सदस्य थे और उनका मूल ध्येय इजरायल में आतंकवाद फैलाना था। ऐसे में आतंकवाद का होना निश्चित ही था।

पश्चिम एशिया पर लिखी गयी किताबों और पश्चिमी देशों के समाचार पत्रों द्वारा यह तथ्य भी प्रकाश में आते हैं कि किस प्रकार अमेरिका और उसके सहयोगी ब्रिटेन ने फिलीस्तीन के आतंकवादियों को हथियार मुहैया कराए और परोक्ष सहयोग प्रदान किया।

ईस्लामी आतंकवादी संगठन हमास, ईस्लामिक जेहादी मूवमेण्ट और इंतिफदा ने आतंकवादी गतिविधियों को ऐसी हवा दी कि स्थिति बद से बदतर होती गयी। फिलीस्तीन के स्वतंत्रता संघर्ष की लड़ाई का हम गौर से निरीक्षण करें तो पाते हैं कि जनता का आक्रोश इजरायली सेना के आतंक के आगे गलत न था। कई दशकों से चल रहे इस संघर्ष मे फिलीस्तीन लिब्रेशन आर्गेनाइजेशन के नेता यासिर अराफात की भूमिका सर्वविदित है। यासिर अराफात ने तो प्रारम्भ में तो अल फतेह और अनेक संगठनों के साथ गुरिल्ला युद्ध छेड़ा था परन्तु बाद में शांति और राजनैतिक आंदोलन को ज्यादा महत्व देना उचित समझा। 1993 से 2001 तक अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने शांतिवार्ता को अत्यधिक महत्व दिया और समय – समय पर इजरायल और फिलीस्तीन के बीच बैठकें आयोजित करके एक सर्वमान्य समाधान निकालने की कोशिश की। ओस्लो शांति प्रक्रिया, बाई रीवर शांति प्रक्रिया पश्चिम एशिया शांतिवार्ता के महत्वपूर्ण प्रारम्भ माने जाते हैं परन्तु अपने शासन काल में अपने वादे के मुताबिक बिल क्लिंटन भी पश्चिम एशिया में शांति स्थापित करवाने में सफल नहीं हो सके।

नवम्बर में एक आतंकवादी हमले के बाद इजरायल ने फिलीस्तीन के ऊपर जो आक्रमण किया है, उसे युद्ध कहना बेमानी होगा क्योंकि एक ओर हथगोलों और साधारण राईफलों से लैस कुछ फिलीस्तीन के नागरिक हैं तो दूसरी ओर अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों तथा तोपों के साथ इजरायल की सशक्त सेना। जहां तक नैतिकता की बात है तो इजरायली सेना ने फिलीस्तीनी नेता यासिर अराफात के निजी आवास, मुख्यालय एवं प्रमुख नागरिक ठिकानों को अपना निशाना बनाया है। इजरायल की इस अमानवीय कार्यवाही को अमेरिका ने आत्मरक्षा की लड़ाई कह कर न केवल अपनी आंखें मूंद ली हैं वरन् संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन प्रस्ताव को वीटो कर इजरायल को कहर बरपाने की पूरी छूट दे रखी है। ऐसे में फिलीस्तीनी जनता के सामने आतंकवाद के सिवा कोई चारा नहीं बचा है। एक ओर तो अमेरिका ने शांति वार्ता को बनाए रखा और दूसरी ओर इजरायल को हथियारों की आपूर्ति करता रहा। इजरायल और अमेरिका के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास भी जारी रहा है। अमेरिका के प्रमुख विचारक नॉम चाम्स्की ने समय – समय पर अमेरिकी दोहरी नीतियों और उसकी गलतियों का उल्लेख किया है। उन्होनें अमेरिकी नीतियों को एक व्यापारिक नीति में समेट कर रख दिया है। उनका आरोप है कि दुनिया की तमाम समस्याएं अमेरिका की गलत नीतियों का परिणाम है।

– अम्बरीष राय

 

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