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सृजन : संपादकीय
सच कहूँ,
कहना ही होगा. ‘नाईन एलेवन’! हाँ, यही वजह थी, हिन्दी नेस्ट
( अतीत में बोलोजी.कॉम ) के धीरे – धीरे
कम अपडेट होने की और फिर एक बिन्दु पर आकर स्थिर हो जाने की. अमेरिका का
वित्तीय ढाँचा लड़खड़ा गया था, न्यूयार्क से निकलने वाली यह (हिन्दीनेस्ट का 1999 वाला स्वरूप, बोलो जी का पहला लोगो ) हाँ भई
यह विदेशों और युवाओं में लोकप्रिय पारिवारिक पत्रिका बन्द होने की कगार पर
आ गई. मैं थी वेतनयुक्त सम्पादक.
लेकिन मुझे
बेरोज़गार होना मंजूर था मगर इस पत्रिका का बन्द होना नहीं क्योंकि इसे
राजेन्द्र जी और मैंने धीरे - धीरे
साहित्यिक स्वरूप देना शुरु कर दिया था.
इसका नाम और लोगो भी बदल दिया था, अब यह एक नया साहित्यिक स्करूप ले रही थी.
आत्मनिर्भरता तो हिन्दी की प्रिंट माध्यम की पत्रिका की नहीं थी तो यह तो नए
माध्यम की प्रथम, निजी प्रयास की वेबपत्रिका, तब सर्वर, डोमेन का एनुअल रेंट
काफी हुआ करता था, कोई कितना जेब से देता?
उसके 2007 में फिर राजेन्द्र जी ने ही प्रस्ताव दिया कि इसमें समाचार जोड़ दिए जाएँ और ‘बोलोजी समाचार’ नाम से हिन्दी समाचार की वेबपत्रिका भी हिन्दीनेस्ट से आ जुड़ी. मुझे फिर वेतन मिलने लगा क्योंकि गूगल विज्ञापन आने लगे थे और पत्रिका आत्मनिर्भर होने लगी. मैं फिर मेहनत करने लगी. दिन सुनहरे और काम भरे हो गए. फिर एक साल बाद अचानक एक दिन गूगल ने हिन्दी वेबसाईट्स - ब्लॉग्स को विज्ञापन देना बन्द कर दिया तो एक साल चला कर ‘बोलोजी समाचार’ को बन्द करना पड़ा, काम में फिर बिन मनी सब सून के कारण बाधा आने लगी. अब तक मैं पूरी तरह साहित्य की मुख्यधारा में थी और मैं ने उपन्यास लिखने का निर्णय ले लिया. हिन्दीनेस्ट फिर बुरी कदर उपेक्षित. मगर पिछ्ले सालों में हिन्दीनेस्ट पर हर सप्ताह इतनी सामग्री डाली गई थी इसकी लोकप्रियता अब तक भी थमी ही नहीं है, बिना नए पेज डाले भी. रोज़ ई मेल आते ही रहे. मुझे हिन्दीनेस्ट के सबसे पुराने पाठकों, तेजेन्द्र शर्मा, प्रियंकर जी, विदेशों के कई प्रशंसक – पाठक याद दिलाते रहे...कि भई हिन्दीनेस्ट का कुछ करो...कभी मौज में आती तो कुछ नया डाल देती मगर नियमितता...कोई थी ही नहीं. नॉवेल भी आगया तो अंशु टोकने लगे, इसका कुछ कर. मगर मन अड़ियल टट्टू. इस बीच वर्धा विश्वविद्यालय की वेबसाईट ‘ www.hindisamay.com’ का प्रोजेक्ट मिला, डेढ़ साल उसे बनाने और एक हद तक मुकम्मल करने में बीते. फिर अब दिल्ली आकर जब बहुत सारा समय खाने को दौड़ने लगा और लगा कि इंटरनेट पर फिर हिन्दी साहित्य के सुनहरे दिन आने की आहट है..सुगबुगाहट है तो मुझे अपने खोए हुए, गोद लिए बच्चे की सुधि आई. फिर क्या! मैं बस एक बार तय कर लूँ तो मुझे मेरा आलस भी हरा नहीं सकता, दिन रात एक कर जाती हूँ. इसी मन की वॉर्निंग ने उपन्यास लिखवाया, इसी ने हिन्दीनेस्ट री लॉंच करवाया और यह आपके सामने है. नए कलेवर में तो नहीं हाँ मगर कुछ बड़ा होकर, कुछ नई धज के साथ. गंभीर
साहित्यिक प्रयोजन की पत्रिका बनाना मेरा उद्देश्य आरंभ ही से था तो इस बार
मैंने बहुत संजीदगी से इसका स्वरूप तय किया. पुस्तकों से विचलन आज के हिन्दी
समाज की असल विडम्बना नहीं है, यह मात्र एक कृत्रिम शिकायत है. दरअसल हम
हिन्दी वाले समय के साथ स्वयं को बदल नहीं सके इसलिए यह जो पाठकों का कृत्रिम
निर्वात उत्पन्न हुआ है, उसे हम हिन्दीभाषी देश की विडम्बना कहते हैं और टी
वी और नेट को दोष देते रहते हैं.
अगर
दरअसल आम हिन्दी पढने वाला व्यक्ति, नेट पर बैठने वाला युवा जान ही नहीं पा रहा था कि हम अपने घेरे में बन्द, हिन्दी के प्रिंट मीडिया व प्रकाशन माफिया के घेरे में बन्द, आखिर क्या चकल्ल्स कर रहे हैं. पुस्तकें छ्पती रहीं लोगों की जानकारी में आए बिना. हर विषय उठा मगर लोगों तक पहुँचा नहीं, हमने मान लिया कि लोग पुस्तकों से विमुख हो गए, हिन्दी का पतन हो गया है कि आधुनिक पीढ़ी हिन्दी पढ़ना नहीं चाहती. इस तरह हिन्दी की पुस्तकें बाज़ार से गुज़रे बिना ‘स्लॉटर हाउसेज़’ ( सरकारी पुस्तकालयों) में नीरीह गायों की तरह जिबह हुईं दीमकों के हाथ.
खैर..पुस्तकों को और आज के समय की अतिमहत्वपूर्ण पुस्तकों को इंटरनेट के पाठक
को परिचित करवाना मेरा गंभीर सरोकार है, इसी के चलते मैंने हिन्दीनेस्ट के
नवांक के लिए “अकथ
कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय”
को चुना. कबीर की कविताई को डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के
वर्षों के गहन अध्ययन के बाद स्थापित की गई नई मान्यताओं के आलोक में दुबारा
पढ़े जाने की ज़रूरत इस पुस्तक ने
शिद्दत से महसूस करवाई है. इस बहिचर्चित पुस्तक पर अनेक व्याख्यान मालाएँ
हुईं, चर्चाएँ हुईं, लेख लिखे गए कि लेकिन इस पुस्तक को लेकर हुई वृहत चर्चा के दौरान मैंने महसूस किया कि पुस्तक की भाषा की सृजनात्मकता उपेक्षित छूट गई है. निसंदेह
डॉ. अग्रवाल विद्वान हैं और उनके गहन ज्ञान के चलते भाषा उनकी चेरी
हो सकती थी. लेकिन वे भाषा को चेरी नहीं बनाते,
संवादी मित्र बनाते हैं और इतने भारी
बौद्धिक विमर्श के विषय पर लिखते हुए भी उनकी भाषा कहीं
जहाँ एक तरफ वे अपनी भाषा की संवेदनात्मक कोमलता के साथ कबीर के संत के परोक्ष कबीर के कवि को प्रतिष्ठित कराते हैं, वहीं हम जब तात्कालीन पाश्चात्य आधुनिकता तथा औपनिवेशिकता के कोहरे में छिपी संत कबीर के समक्ष कवि कबीर की देशज आधुनिकता के दर्शन करते हैं या तो यही भाषा अपनी कोमलता छोड़ अकादमिक, तार्किक, व्यंजनात्मक व कटाक्षपूर्ण हो जाती है. डॉ. अग्रवाल इस पुस्तक में पाठक से कहीं भी संवाद नहीं तोड़ते, और एक – एक वाक्य में..अपने शोध व गहन अध्ययन के छोटे – छोटे सरल फार्मूले थमाते जाते हैं कि आप कबीर के कवि, कबीर के भीतर के भक्त, कबीर के भीतर के विकट प्रेमी व एक समाज सुधारक को सहज ही चीन्ह लेते हो. वहीं जब वे अध्याय 8 - 9 में ‘कबीर का नारी रूप’ और कबीर की प्रेम धारणा पर लिखते हैं तो डॉ. अग्रवाल के भीतर का सुप्त कवि जाग कर कबीर के साथ खड़ा हो कर, स्त्रीसुलभ कोमल संवेदनात्मक भाषा में पाठक से मीठा संवाद करता है. ऎसा संवाद जो कि कबीर की काव्यसंवेदना को पुन: अविष्कृत करता है. एक व्यैक्तिक लगाव के साथ लिखी गई यह पुस्तक भाषा के स्तर पर भी न केवल विस्मित, बल्कि अपनी ‘कनविंसिंग अदा’ में चमत्कृत करती है. वे कहते भी हैं - " कबीर के साथ मेरा नाता जिज्ञासा का, सतत यात्रा का है". कहना न होग कि -"बाहर भीतर सबद निरंतर". इस पुस्तक का प्रथम व अंतिम अध्याय आप हिन्दीनेस्ट में पढ़ चुके हैं या पढ रहे हैं अब प्रस्तुत है दूसरा और अति महत्वपूर्ण अध्याय.
इस अंक की सार्थकता उन सब रचनाओं से है
जो मैंने इसमें शामिल की हैं. निर्मल जी की कहानी दहलीज़ मेरी प्रिय कहानियों
में से एक है. मुझे याद है, बहुत पहले जब हिन्दीनेस्ट का भार! ( प्र ! - भार)
लिए हुए मुझे एक साल हुआ था मैंने निर्मल जी को हिन्दी जगत का आने वाला
माध्यम 'इंटरंनेट' बताते हुए पत्र लिखा था तो उनक तुरंत उत्तर आया था, "
मनीषा, मेरे लिखे हुए में से कभी भी, कुछ भी तुम ले सकती हो अपनी वेब पत्रिका
के लिए." इसके बाद वे शायद कुछ महीनों ही जीवित रहे. मैंने स्वयं टाईप करके
कहानियाँ नेट पर डालीं, दहलीज़ उन्हीं कहानियों में से एक है. प्रियंवद की कहानी
'मायागाथा
पिता
ग्लोबलाइजेशन इसका
प्रत्यक्ष उदाहरण है.
कुसुम कथा
कहानी के लेखक
शेखर मल्लिक एक उभरते, संभावनाशील कहानीकार हैं.
पवन करण हमारे समय के मह्त्व्पूर्ण कवि
हैं, उनकी कविताएँ इस अंक की उपलब्धि हैं. प्रियंकर पालीवाल की बहुत सी
कविताएँ मैंने पढ़ी, सधी हुई बढिया कविताएँ, मगर मेरी कसौटी दुनिया जहान से
अलग किस्म की भई ! प्रेम कविता की नटनागरी रस्सी जो साध जाए वो असल कवि!
"कुतुबनुमा" ने मुझे कायल कर दिया. राकेश श्रीमाल तो सधे हुए कवि हैं
ही. फेसबुक के मेरे युवा मित्रों की कविताएँ, ग़ज़ले मिलीं, महेश्वर की प्रेम
कविताएँ,
किरण राजपुरोहित नितिला की कविताएँ.
अभी और भी मित्रों की कविताएँ अपलोड करना शेष हैं.
अखिलेश की किताबों ने पहले अपने मासूम कलेवर में फिर अपनी विनम्र अभिव्यक्ति
ने प्रभावित किया था. कबसे लिखा था यह रिव्यू, मगर छपा नहीं कहीं. मैं ने इसे
हिन्दीनेस्ट
में शामिल कर लिया. मैं आभारी हूँ श्री नन्द भारद्वाज की
जिन्होंने धारावाहिक तौर पर प्रस्तुत करने के लिए अपना महत्वपूर्ण,
साहित्य अकादमी पुरस्कृत ( मूलत: राजस्थानी में) उपन्यास
" आगे खुलता रास्ता" उपलब्ध करवाया.
यह उपन्यास रेतीले हल्के की स्त्रियों अपेक्षाकृत जागरुक स्त्रियों की दो
पीढ़ियों का आख्यान है. अब आप हर माह इसकी नई किस्त पढेंगे. स्मृति , स्मृति विमोह से ग्रस्तता के
चलते...मेरी प्रिय विधा है डायरी, संस्मरण मुझे खुशी है कि इस अंक में जया
जादवानी, ओमा शर्मा, डॉ. रति सक्सेना की डायरियों के पठनीय - रोचक अंक
प्रकाशित कर सकी. और अंत
में....आन्ना ! आन्ना को मैंने 4 बार पढ़ा ! उमर के हर पड़ाव पर... उम्र
के इस पड़ाव पर सबसे ज़्यादा समझ आया यह उपन्यास. इस वयस पर आकर
मैं इसे अंतरिक्ष में लगे इनसेट की तरह उँचाई से साफ - साफ देख पाई, बहुत कुछ
जो तॉल्स्तॉय ने अनलिखा जानबूझ कर छोड़ा. जैसे कोई नक्षत्र घूमता हुआ
हजारों प्रकाश वर्षों में एक खास समय पर धरती के निकट आए और बहुत, बहुत -
बहुत साफ दिखे. जानती हूँ इसके बाद की वयस बीतने पर फिर
मेरी आन्ना धुँधला जाएगी. बस और क्या कहूँ!! विलक्षण आन्ना तो खुद तॉल्स्तॉय
के हाथ से निकल गई थी....अह ! मैं आभारी
हूँ अपने सभी फेसबुक के मित्रों की जिन्होंने मुझे बहुत शॉर्ट नोटिस पर अपना
रचनात्मक सहयोग दिया और सुन्दर कविताओं के गल्पद्रुमों के साथ महकता,
कहानियों की रवानी में बहता, डायरी अंश व संस्मरणों की स्मृति में डूबता –
उतराता, नई पुस्तकों के प्रति जानकारी देता हुआ ‘हिन्दीनेस्ट’ का यह अंक, मैं
आपको महज सात दिन में एक वृहत कलेवर में लौटा कर दे सकी.
दीपमालिका
के उत्सव की सभी को शुभकामनाएँ.
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