मुखपृष्ठ कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |   संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन डायरी | स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

पंचकन्या - 3

एक कम वयस की सांवली मछुआरी कन्या काली - जो कि बाद में सत्यवती के नाम से जानी गई एक बार अपने एक यात्री ऋषि पाराशर को नाव में यमुना नदी पार करा रही होती है वे उस पर दबाव डालते हैं कि वह उनकी कामेच्छा संतुष्ट करे उन्हे हठी और दुराग्रही जान कर और डर कर कि कहीं बीच में ही नाव न डुबो दें यह सोच कर वह दो शर्तों पर तैयार हो जाती है उसका कौमार्य नष्ट न हो और उसकी देह से मछली की दुर्गन्ध समाप्त हो जाए।

तब मत्स्यगंधा योजनगंधा में बदल जाती है। जो कि बाद में हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की पत्नी बनती है। सत्यवती अपने राजवंश की पहली रानी शकुन्तला जैसी ही है जो कि एक अप्सरा की अवैधानिक पुत्री थी उसने भी दुष्यन्त के साथ सम्बंध बनाने से पूर्व यही मांगा था कि उससे उत्पन्न सन्तान ही राजमुकुट की अधिकारिणी हो। एक बार फिर यही वचन जबरन लिया गया सत्यवती द्वारा। इस महाकाव्य में सत्यवती के बारे में बहुत कम लिखा गया है। अत:यह आवश्यक है कि हम एक निगाह देवी भागवत पुराण पर भी डाल लें। जब पाराशर मुनी उसका सीधा हाथ पकड़ते हैं काली मुस्कुराती है संयम के साथ बहुत परिपक्वता के साथ वह कहती है

" आप जो कुछ भी करने जा रहे हैं

क्या वह आपकी वंश परम्परा

आपके उत्थान तथा महान वेदों

के अनुरूप होगा?

आपके परिवार का नाम उज्जवल है

ऋषि वशिष्ठ के वंशज हैं आप

इसलिये ओ धर्मज्ञानी

यह कैसी इच्छा कर रहे हैं आप

इच्छा के दास हो गये हैं आप?

हे ब्राह्मण श्रेष्ठ!

मानव का जन्म ही इस सृष्टि पर दुर्लभ है

उस पर ब्राह्मण कुल में पुरुष योनि में

जन्म लेना अत्यन्त ही दुर्लभ है।

हे उच्च कुल में जन्मे गुणी

वेद वेदान्तों के ज्ञाता धर्मज्ञानी

ब्राह्मणों के बीच इन्द्र के समान श्रेष्ठवर!

आपने मेरी मत्स्यगंध से गंधाती देह में

ऐसा क्या देखा कि अनार्य अनुभूति जाग्रत हुई?

हे दो बार जन्म लेने वाले मानव श्रेष्ठ

आपकी बुद्धिमत्ता तो पूर्वाभासी है।

आपने मेरी देह में क्या शुभ चिन्ह या लक्षण देखा

कि आप इसे पाने को व्यथित हैं?

क्या आपपर आपकी इच्छा ने इतना अधिकार कर लिया कि

आप अपना धर्म तक भूल गये?

यह सब कहते हुए वह बुदबुदाती है।

" ओह ये तो पागल हैं मुझे पाने को

ये द्विजा अपना विवेक खो बैठे हैं।

ये तो नाव का संतुलन बिगाड़ देंगे और हम डूब जाएंगे।

यह तो उद्धत हैं इनका हृदय काम के पंचशर से विद्ध है

अब इन्हें कोई नहीं बचा सकता।"

यह स्वगत कहते हुए काली ऋषि से कहती है।

"हे महामुनी धैर्य रखें जब तक कि हम उस पार तक नहीं पहुंचते।"

सुता कहते हैं कि पाराशर ने उसकी राय को माना और उसका हाथ छोड़ कर शांत बैठ गये। किन्तु उस पार पहुंचते ही ऋषि की कामेच्छा पर फिर ज्वर चढ़ा उन्होंने मत्स्यगंधा को समागम को उद्धत हो बांध लिया तो गुस्से में कांपती हुई वह ऋषि के सम्मुख हो कहने लगी।

" हे ऋषिश्रेष्ठ! मेरी देह गंधाती है क्या आपको अनुभव नहीं होता?
प्रेम और संभोग दोनों के लिये सुखकर होना आवश्यक है।"

यह कहते ही उसकी देह से कस्तूरी गंध फूटने लगी। और वह मत्स्यगंधा से योजनगंधा बन गई मनोहर ऋषि ने कामावेग में उसका दायां हाथ बांध लिया तब शुभ लक्षणा सत्यवती ने कामातुर ऋषि से कहा।

" नदी के तट से सभी जन और

मेरे पिता हमें देख लेंगे यह दिन का प्रकाश है

और ऐसे दिन के प्रकाश में

यह अनैतिक काम करना

मुझे अच्छा नहीं लगता

इसलिये हे ऋषिश्रेष्ठ!

रात्रि होने तक प्रतीक्षा करें

पुरुषों के लिये संभोग केवल रात्रि में ही उचित है

दिन के समय प्रकाश में नहीं

अगर किसी के द्वारा देख लिया जाए तो यह महापाप है

मेरी इस इच्छा का मान रखें हे बुद्धिमान ऋषि"

उसके शब्दों में तथ्य जान पाराशर ऋषि फिर झुक गये। जैसे ही शाम का धुंधलका बढ़ा और रात का अंधेरा छाने लगा तो वह कमनीय स्त्री मधुर वाणी में बोली।

मैं कुमारी हूँ हे द्विजकुलीनों के सिंह

मुझे भोग कर

तुम मुझसे अलग हो जहां तुम चाहोगे चले जाओगे

किन्तु तुम्हारे अचूक त्रुटिहीन बीजों का क्या ओ ब्राह्मण?

मेरा क्या? अगर मैं गर्भवती हो गई तो

मैं अपने पिता से क्या कहूंगी?

मुझसे देहसुख लेने के बाद तुम्हारे जाने के बाद

मैं क्या करुंगी? कहो?

पाराशर ने कहा‚ " प्रिये!

आज मुझे सुख देकर

पुन: कौमार्यधारिणी बन जाओगी।

फिर भी हे स्त्री

अगर तू डरती है तो

मांग ले जो चाहे वह वरदान।

सत्यवती ने कहा‚ " हे द्विजकुल श्रेष्ठ मुझे वरदान दो कि

मेरे पिता या किसी को भी इस घटना का पता न चले

मेरा कौमार्य बना रहे

आपका पुत्र हो तो वह आप जैसा हो और

वरदान से प्राप्त हुआ माना जाए

मेरी देह की यह मोहक गंध बनी रहे

मेरा यौवन चिरकाल तक ऐसा ही रहे।

सत्यवती को उसके महान वेदों और पुराणों के रचयिता पुत्र का वरदान देकर पाराशर ने अपनी मनोवांछित पा लिया और यमुना नदी में स्नान कर पवित्र हो चले गये फिर उन्होंने सत्यवती से कोई सम्पर्क नहीं रखा। इस मछुआरी कन्या का विशिष्ट चरित्र उसकी बातचीत से ही उभर कर सामने आता है। हालांकि वह अभी एक किशोरी से युवती होने की अवस्था में ही थी फिर भी उसने एक महान ऋषि को अपने ऊपर अधिकार नहीं करने दिया चाहे वह कितना ही प्रसिद्ध क्यों न था। यहां तक कि उसने ऋषि को स्वामित्व और संयम का पाठ अपनी विचारशीलता और वाक्पटुता से पढ़ा दिया था। उनकी कामान्धता का आवेग जान कर उसने सीधे सीधे उनका प्रेम निवेदन नकारा नहीं पर नाव के डगमगाने के स्थिति में उसने उनसे किनारे तक पहुंचने की प्रार्थना की यह सोच कर कि शायद किनारे तक जाते हुए इनका आवेग शान्त हो जाएगा और विवेक जाग जाएगा। किन्तु ऐसा न होने पर वह खीज जाती है और उनकी पाशविक कामप्रवृति पर बुरा भला कहती है और अपनी देह की अप्रिय गंध की ओर उनका ध्यान दिलाती है। अपनी परिपक्वता और साफ साफ कहने की क्षमता के अनुरूप यह कहकर कि सहवास दोनों के लिये आनन्दकर होना आवश्यक है वह आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी हमें चकित कर जाती है। यहां तक कि कस्तूरी गंध प्राप्त करने के बाद भी वह आसानी से स्वयं को नहीं सौंपती यह कह कर कि दिन के प्रकाश में लोगों के देखने की पूरी सम्भावना के बावजूद मैथुन करना पाशविक है एक बार फिर ऋषि उसकी तर्कसंगतता के आगे नत हो जाते हैं और धुंधलका घिरने तक प्रतीक्षा कर लेते हैं। फिर भी वह स्वयं को नहीं सौंपती उसकी अंतिम आपत्ति होती है कि तब क्या होगा जब वे उसका कौमार्य भंग कर चले जाएंगे कभी न लौटने के लिये? उस उच्चजातीय ऋषि पर तो कोई उंगली नहीं उठाएगा पर उसका क्या?

यह आश्चर्यजनक है एक अशिक्षित किशारी में इतनी परिपक्वता होना। उसने ऐसा कोई भ्रम नहीं पाला कि यह महान ऋषि उससे विवाह कर लेगा। सो वह उससे यह वरदान निश्चित करवाती है कि उसे उसका कौमार्य पुन: प्राप्त होगा और अगर इस समागम से कोई सन्तान हो तो वह प्रसिद्ध व महान व्यक्तित्व के रूप में जन्म लेगी।

जब वह यह सब व्यवहारिक बातें सोच समझ लेती है तभी वह अपने पवित्र स्त्रीत्व को ऋषि को सौंपती है। वह अपने इस पवित्र स्वरूप सो सदैव बनाए रखने के लिये ऋषि से चिरयुवा सदैव सुगंधित होने का वरदान भी मांग लेती है। यह वह उपहार है जो हेलेन ने भी मांगा था और हर युग की हर स्त्री इस उपहार के लिये लालायित रहती है और रहेगी। महाभारत में स्त्री की मानसिकता के बड़े आकर्षक और गहरे अंश उपलब्ध हैं।

" और वह इन वरदानों से परमान्दित

पाराशर ऋषि के समागम से उसी दिन

गर्भवती हो जाती है।" ( आदिपर्व 6383)

जब मत्स्यगंधा ऋषि को कहती है कि वह अभी अपने पिता के अधिकार में है और वह उनकी अपेक्षाएं पूरी करने के लिये स्वतन्त्र नहीं है। फिर वह अपनी स्वतन्त्रता के लिये ऋषि के वरदान द्वारा वह अपना 'स्व' तथा 'स्वातन्त्र्य' अर्जित करती है। जो कि एक कुमारी के लिये विशिष्ट बात है। पाराशर ऋषि के साथ सहवास के बाद भी वह अपना स्व तथा स्वतन्त्रता सुरक्षित रखती है वह उन पर निर्भर होने या उस अलौकिक प्रेम को विवाह का रूप देने की कोई पेशकश नहीं करती। दोनों के मिलन का उद्देश्य पूर्ण होता है दोनों अलग हो जाते हैं किसी भावुकता भरे बंधनों में बंधे बिना। कोई रूमानी आशाएं नहीं की जातीं पुन: मिलने की न कोई ग्लानि न ही कोई चिन्तातुर खीज और आशंका से ग्रस्त प्रश्न किये जाते हैं इस मिलन से उत्पन्न संतान के लिये। यह तो पूर्व ही में निर्धारित हो चुका था दोनों की सहमतियां थीं। क्या वह इक्कीसवीं सदी की किसी आधुनिक महिला मुक्ति की विचारधारा वाली स्त्री से कम थी?

सत्यवती के हस्तिनापुर आने से भीषण बदलाव आते हैं। स्वयं भीष्म उन्हें अपने पिता शान्तनु के दिये गये वचनों और सुख के लिये राजपरिवार में लेकर आते हैं उनसे भी वह यह वचन ले लेती है कि उनका ही रक्त होगा जो भविष्य में हस्तिनापुर का राजा होगा और इस पर भीष्म स्वयं कभी राजा न बनने का और अविवाहित रहने का प्रण ले लेते हैं।

इसके लिये बाद में पुत्र की मृत्यु के बाद वह अपने ही राजकुमार पुत्र की विधवा को अपने अवैधानिक मिश्रजाति के पुत्र व्यास के पास जाने को बाध्य करती है। इसीलिये न तो धृतराष्ट्र और न ही पाण्डु में कुरुवंश का रक्त था। अपने निम्नजाति के जन्म की वजह से सत्यवती को अपने अवैधानिक पुत्र को सबके समक्ष लाने में उच्च जाति की स्त्रियों जैसी कोई झिझक न थी। उसने उसे हस्तिनापुर के भविष्य में एक निर्णायक पात्र के रूप में लाने की महत्वाकांक्षा पाली थी जो कि सत्य हुई भीष्म की एक अप्रत्यक्ष विरोधी छाया के रूप में जो कि स्वयं उनके आदेशों को मानने को विवश थे ही। सामाजिक संतुलन के प्रति उनकी अनास्था तब भी उजागर होती है जब उनकी पौत्र वधू चतुर व राजपरिवार की कुन्ती तक उनसे प्रतिस्पर्धा का साहस तक नहीं कर पाती।

- आगे पढ़ें

पंचकन्या
1 . 2 . 3 . 4 . 5 . 6 . 7 . 8 . 9 . 10 . 11 . 12    


   

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com