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पंचकन्या - 5
कितना लघु और सारगर्भित है व्यास का वर्णन जब कुन्ती का धर्मराज से सामना हुआ था। वह मुस्कुराये "कुन्ती‚ मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ?" वह मुस्कुराई " एक बेटा" (123।4) यहाँ न तो विनय है‚ न प्रेमजनित नखरेबाजी है‚ न शर्मोहया का प्रदर्शन है। यहाँ एक आवश्यकता ध्वनित हुई है उसके लिये जो कि इस आवश्यकता को पूरी कर सकता है। जब कुन्ती वायु को आमन्त्रित करती है (123।4)‚ वह एक शर्मीली मुस्कान के साथ अपनी आवश्यकता बताती है‚ क्योंकि वह नया है। क्या यह हमें एक और स्त्री की याद नहीं दिलाता जिसकी मुस्कान बहुत परिपक्व और अर्थमय थी‚ जब किशोरी काली ऋषि पाराशर को देख मुस्कुराती है। और हाँ‚ यहां कुन्ती पाण्डु के आदेश से किसी को नहीं चुनती जो उसे गर्भवती करे। यहाँ उसकी मुस्कान उसकी चुनाव की स्वतन्त्रता की घोषणा को प्रकट करती है‚ वह चार बार अपने पुत्रों के लिये पिता चुनती है। इसके बाद भी कुन्ती आखिरी शब्द कहती है जहां तक कि पाण्डु की इच्छा मायने रखती है। बहुत कुछ अपनी दादी मां की तरह पाण्डु कुन्ती के समक्ष अपनी इच्छा रखता है कि उसे और भी बहुत से पुत्र चाहिये। कुन्ती नकार देती है। उसे एक सूक्ति सुनाती है जैसी कि पाण्डु ने शिवकेतु की सूक्ति उसे सुनाई थी। " संकट के समय में भी बुद्धिमानी व्यक्ति चौथी बार गर्भधारण करने की अनुमति न देगा। स्त्री जो कि चार पुरुषों से संसर्ग करे वह अपना मान खो देती है और वह स्त्री जो पांच के साथ संर्सग करे वह तो गणिका ही कहलाती है। यहाँ कुन्ती का अपनी यौनेच्छा पर उल्लेखनीय संयम बताया गया है। यहां कतई ऐसा नहीं है कि वह विवेकहीन होकर केवल वह अपनी यौन और मातृत्व की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये ही उसने ऐसा किया। जबकि उसका वेद ज्ञान प्रशसंनीय था। अर्जुन उसकी चौथी संतान था और उसके चार भिन्न पुरुषों से सम्बन्ध रहे। अगर उसने वरदान द्वारा केवल देवताओं को आमन्त्रित किया‚ यह मात्र उसकी अपनी इच्छा के लिये नहीं वरन् पाण्डु में दोष था और उसका आदेश था कि वह उसकी पुत्र इच्छा को संतुष्ट करे। सत्य तो यह है कि वह उसके तर्क को स्वीकार करता है जो कि यह बताते हैं कि उसके तीन पुत्रों के पिता देवता नहीं हैं। क्योंकि वह स्वयं ही अपने मुख से अपनी निन्दा करती प्रतीत होती है कि वह अनभिज्ञ थी। यहां यह भी प्रतीत होता है कि क्यों उसने कर्ण के जन्म की बात को स्वीकारा नहीं‚ क्योंकि ऐसा करके वह स्वयं को चरित्रहीन स्त्रियों की श्रेणी में नहीं आना चाहती थी। उसके अंतिम शब्द विडम्बना के सूचक हैं। यह निश्चित रूप से उसका ही भाग्य था जिसमें उसे अपनी पुत्रवधू को धकेलना पड़ा। चौपड़ के खेल में यह कर्ण ही था‚ उसका पहला पुत्र‚ जिसने इसी आधार पर द्रौपदी को भरी सभा में वेश्या घोषित किया था। कुन्ती की अपनी स्वार्थपरक निर्णयों को बचाये रखने की वजह ही‚ सत्यवती की तरह‚ उसे आगे लायी जब उसने पाण्डु के इस निवेदन पर कि वह माद्री को और पुत्रप्राप्ति में सहायता करे‚ वह एकदम मना कर देती है। जबकि वह माद्री को पहले ही बहादुरी दिखा चुका होता है कि अगर मैं कुन्ती को कहूंगा तो वह मना नहीं कर सकती। पाण्डु कुन्ती के क्रोध के आगे चुपचाप खिसक जाता है। " उसने मेरे साथ विश्वासघात किया "‚ कुन्ती ने कहा " उस एक मंत्र से वह दो पुत्र पाने में सफल हुई जो मैं ने उसे दिया था ‚ मुझे नहीं लगता कि वह मुझसे अधिक पुत्र पा सकेगी‚ कपट पूर्ण स्त्री! मैं भी कितनी मूर्ख थी‚ क्या मैं जानती थी कि मैं भी अश्विन से वरदान पा सकती थी यमक पुत्र पाने का। मेरे पास मत आना‚ स्वामी‚ "उसे दे दो मंत्र।"( 124। 26 – 28) यहां ईर्ष्या का भी भाव झलकता है‚ क्योंकि हर स्तर पर माद्री उससे बाजी जीत गई थी। कुन्ती स्वयं से कहती है‚ मृत पाण्डु की भुजाओं में माद्री को देखकर। " वहलिका की राजकुमारी! तुम निश्चय ही भाग्यशाली हो — इनका सहवास के बाद का दमकता चेहरा देख पाने का मुझे कभी अवसर नहीं मिला! "( 125। 23 ) यह उद्धरण 123।83 को प्रतिस्थापित करता है कि उसका पाण्डु के साथ कभी यौन सम्बन्ध नहीं रहा‚ ऐसे में उसका सम्बन्ध चार अन्य पुरुषों से रहा और उसके दुश्चरित्र के सम्बन्ध में पहले ही बहुत बातें हो चुकी थीं। दरअसल ब्रह्मावैवर्त पुराण (4115।72) में इस घटना का सही विवरण मिलता है। बाना‚ अनिरुद्ध के वंशज ने इस विषय में काफी आलोचनात्मक तरीके से कुन्ती के चरित्र को‚ चार पुरुषों की प्रेयसी के रूप में प्रस्तुत किया है ह्यकुन्ती चतुरनाम कामिनी भवहृ। माद्री की कुन्ती के बारे में प्रशंसा कुन्ती के चरित्र की सुन्दरता को उभारती है और उसे सही मायनो में एक अग्रणी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करती है। " क्या मैं तुम्हारे बच्चों का इस तरह लालन पालन कर पाती जैसे कि वो मेरे अपने ही बालक हों?" ( 125। 42 ) अपनी इच्छाशक्ति की क्षीणता जान कर‚ अपने अहम की क्षुद्रता से उपर उठ कर‚ माद्री पूछती है (कुन्ती ने हमेशा माद्री पुत्रों का विशिष्ट ध्यान रखा‚ खासतौर पर सबसे छोटे सहदेव का) माद्री कहती रहती है। तुम्हें यह इश्वरीय गुण प्राप्त है‚ यहां तुम जैसा कोई नहीं हो सकता … तुम मेरा प्रकाश हो‚ मेरी दिग्दर्शक‚ मेरे सम्मान की पात्र‚ अपने पद में महान और गुणों में पवित्रतम। ( 125। 66 – 68 ) कुन्ती के चरित्र की विशालता के आगे यह सूक्ष्मतम चित्रण क्या सच और पर्याप्त हो सकता है? उसने पांच पुत्रों को विपरीत और विकट परिस्थितियों में पाला‚ अपने परिवारजन और हितैषियों का वियोग सह कर भी। न तो कुन्तीभोज और न ही वृश्निक कभी उसकी सहायता और सहारा देने को आगे आए। ऐसे में उसे सत्यवती के प्रिय प्रपौत्र विदुर जो कि दासी के गर्भ से जन्मे थे‚ कुन्ती के परम हितैषी बन गये थे। विदुर ने ही उन्हें जीवित ही अग्नि में जल जाने से बचाया था और पुत्रों के वनवास के समय विदुर के घर में ही उसे शरण मिली थी। और विदुर ने वन के अन्त तक उनके साथ गये थे। |
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