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पाषाण पिण्ड
प्रियंवदा
व्यस्त हथेलियों से बालों पर कँघी
फेरते हुए अपने रत्न किरीट से दमकते मुख को
पुनः देख मुस्कुरा दी थी ।अहा! कितनी शुभ्र आकृति ……,इतने दिनों में कुछ अधिक
ही उद्भासित हो उठी है।सुन्दर……अति सुन्दर…।उसके हृदय की अदम्य गहराईयों में
आत्म प्रशंसा के स्वर ,स्वत: ही आपस में टकराकर अजीब सी ध्वनि की संरचना कर
उठे थे।
जिस दिन से मध्यप्रदेश के 'बेटुल' नाम के छोटे से कस्बे से निकल ,अपने पाँव
दिल्ली महानगरी में रखे, उस दिन से आज तक उसकी जीवन दीर्घा में कितने
परिवर्तन हुए,कितने कीर्तिमान स्थापित किये उसने ,उनकी थाह वह स्वंय कैसे ले
सकती थी। उसके पास रूप लावण्य की सम्पत्ति थी,साथ ही तीव्र बुद्वि की वह
स्वामिनी भी थी। इन्जीनियरिंग कॉलेज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लेने के
बाद इस शहर में उस के लिये विशेष कुछ नहीं बचता था ।सो उसने पग बढ़ा दिये थे
उस ओर जिस दिशा में सभी भागे जाते थे ।यह भी सत्य है कि अंतत: ,धन समृद्वि के
प्रथम सोपान इस महानगर से ही प्रारम्भ होते हैं ।
'मल्टीनेशनल' का 'क्रेज़' था सो नौकरी मिली,रहने को फ्लैट मिला,धन अर्जित कर
घर की एक – दो ईंट को स्वर्ण
कणों से जड़ डाला।
वस्तुत: उसका सौन्दर्य
मणिजड़ि.त अट्टालिका के प्रकाश के कारण अधिक दमकता था ।वीज़ा का कार्य पूर्ण कर
किसी सुदूर देश में बसने की इच्छा शेष थी ।पूर्णता का एहसास प्राय: उसे झंकृत
कर देता। वह उत्कृष्टता का प्रतीक , अहा …कितने सुन्दर भाग्य हैं उसके , कोई
कमी शेष तो नहीं …? वह इम्र्पोटेड कार में तैरती सी अपने भीतर कुछ टटोल रही
थी एक 'परफैक्शनिस्ट' की तरह ।
स्वयं के लिये उसे एक उपनाम की आवश्यकता थी , जो उसके व्यक्तित्व और
उपलब्धियों को उजागर करता हो ऐसा। कार एक हल्के झटके के साथ ' रैड लाइट' पर
ठहर गई थी ।उसने आलस्य से बाहर देखा था,जन समूह को अपनी उपस्थिति का आभास
दिलाने का तुच्छ सा उपक्रम । सहसा अस्थिपँजर सी एक जीर्ण काया गाड़ी के शीशे
पर प्रकट हुई ।सत्तर अस्सी वर्ष का वृद्व जिस पर परिजनों ने अपंग और निकम्मा
होने का आरोप धर कर बाहर खदेड़ा होगा , अपने लकड़ी से कन्धों पर टँगे शाक सब्ज़ी
और परचून से भरे थैलों को बड़े ही कष्ट के साथ सँभाल पा रहा था ।उसकी बाँस
जैसी कमज़ोर टाँगों का कम्पन देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह अब गिर पड़ेगा
"बेटी दया कर बस में बिठा दो ……मदद करो……मदद करो…। वह अत्यन्त करूण स्वर में
याचना कर रहा था । प्रियंवदा ने द्रवित हो कलाई घड़ी की ओर नज़र घुमाई , समय
अधिक न था ।अकेली बूढ़े को बिठा सकेगी वह ……साँय – साँय भागती बसों की चिंघाड़
सुनने की और देह को शुष्क कर देने वाला धूल – धुंआ पीने की शक्ति उस में है
क्या…? वह तो बिल्कुल भूत बन जाएगी। ऊपर से स्वीडिश डेलिगेशन को सेमिनार देना
है ,प्रोजैक्ट सबमिशन है……लेट होना 'ऐर्फ़ोड' कर सकेगी वह…… कैसे होगा सब
……कैसे …? वह आतंकित हो उठी थी ।
माथे पर उभर आई पसीने की बूँदों को पोंछते हुए उसने
ऐक्सलरेटर पर पाँव जमाते
हुए गाड़ी को तेजी से दौड़ा दिया था।जिस उपनाम को वह अपने लिये खोजती रही थी
वही अब 'पाषाण पिण्ड' के रूप में उसके अपराधी हृदय में शूल बन कर चुभ रहा था
।
विनीता अग्रवाल
वरिष्ठ नागरिक
इमारतों का दायित्व
नीवों के प्रति – सम्पादकीय
अतीत से (कहानियां)
बूढ़ी काकी
– प्रेमचन्द
खोल दो
– सआदत हसन मन्टो
कहानी
आज़ादी
– ममता कालिया
उल्का
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
पाषाणपिण्ड –
विनीता अग्रवाल
ठिठुरता बचपन
– रोहिणी कुमार भादानी
हंगेरियन कहानी
भिखारी – ज़िगमोन्द मोरित्स – अनुवाद:
इंदु मज़लदान
संस्मरण लेख
थके हुए पंख
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
कविता
आयु
– जया जादवानी
ठूंठ
– सुधा कुलश्रेष्ठ
उम्र
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
पुराने अंकों से
बाँधो न नाव इस
ठाँव‚ बन्धु
!
– उर्मिला शिरीष – कहानी
हिन्दी
समाज पर मर्सिया – फज़ल इमाम मल्लिक –
संस्मरण
सात सौ
मील दूर से एक पाती छोटी बहन को – संजय
कुमार गुप्त – कविता
पिता
– जया जादवानी – कविता
प्रेतकामना –
मनीषा कुलश्रेष्ठ – कहानी
त्रियाचरित्र
– अंकुश मौनी – कहानी
सूखे पत्तों
का शोर – जया जादवानी – कहानी
बड़ों की बानगी
– पूर्णिमा बर्मन – दृष्टिकोण
एक
दीपावली पापा के बिना… – अंशु – संस्मरण
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