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ठिठुरता बचपन
शहर में पॉलिथीन प्रतिबन्धित हुए अभी चन्द दिन ही
तो हुए थे मगर लग रहा था कि मानो कई वर्ष हो गए हों इसके प्रयोग को
दण्डनीय अपराध घोषित हुए। सब कुछ ही तो बदल गया था। न तो काम में लेकर
फैंकी गई थैलियों का ढेर और न ही उस स्व घोषित जहर में सुबह से शाम भाग्य
को तलाशती वो मौन लेकिन तन्मयता से शून्य को टोहती नन्हीं – नन्हीं
आंखें।
कचरे की ढेरी में दो जून की रोटी तलाशते बचपन के विषय में चिन्तन मात्र
से ही स्मृति पटल पर ‘रत्तुड़ी’ नाम उभर आया . जो बाल श्रम की जीती जागती
तस्वीर थी। हां . मुझे सही से याद है उसने अपना यही नाम बताया था . वह
नाम जो मेरे अंतरंग हो गया था उसे भला मैं कैसे भुला सकता हूं।
‘काली मगर प्यारी सी शक्ल – सूरत‚ सिर पर एक जोड़ी गूंथकर बनाई गई दो रुखी
चोटियां, जिनकी कसावट की वजह से चेहरे पर छायी मासूमियत और उसमें जड़ी सी
जान पड़ती दो नन्हीं–नन्हीं आंखें बरबस ही ‘महादेवी वर्मा’ की रचना के
पात्र ‘घीसा’ को जीवन्त कर देती थी। इस कृशकाय बचपन के जेहन में आते ही
उस ठिठुरन भरे दिन का दृश्य साक्षात हो उठाÊ जिस दिन इस 8–9 वर्ष के
बाल्यकाल से मेरा साक्षात्कार हुआ था।
नन्हें–नन्हें सींक सम पतले हाथों में कूडे. से बीनी थैलियों से भरे बोरे
को उठाए कहानी पात्र ‘छुटकी’ के विषय में मैं बहुत कुछ जानना चाहता था
जैसे कि उसका नाम क्या है, वह इस तरह बचपन के सुनहरे पलों को असमय ही
यौवन में क्यों धकेल रही है, उसके आगे पीछे कोई है भी या नहीं इत्यादि।
मगर न जाने क्यों मैं चाहकर भी कुछ भी नहीं पूछ पाता और असहाय सा मूक
बनकर उसे घर के आगे जाते हुए निहारता रहता था। उसका यह ‘छुटकी’ नाम मैंने
ही अपनी ओर से दे दिया था। वर्ना उसका तो कोई दूसरा ही नाम था।
आखिरकार वह दिन आ ही गया, जिसका मुझे बेसब्री से इन्तजार था। ‘बाबूजी,
कुछ खाने को देय दो ना, भूख के मारे जान निकली जा रही है' के दीन स्वर ने
मेरी निगाहें अखबार से उसकी ओर खींच ली।
बातचीत की गरज मानो या भूखे की क्षुधा शान्त करने की तमन्ना, मैं बिना कुछ
बोले रसोईघर से दो रोटी और सब्जी ले आया तथा उस भूखी पात्र को देते हुए
उत्सुकतावश, ‘कौन, कहां कैसे और क्यों’? जैसे परिचयवाचक सवालों की झड़ी सी
लगा दी।
मगर दनादन एक के बाद एक अनवरत रूप से रोटी के ग्रास मुंह में ठूंसते हुए
बड़ी मुश्किल से बोल पाई ‘रत्तुङी’। ऐसा नहीं कि उसने अपना पूरा परिचय
नहीं दिया। मेरे हर सवाल का जवाब दिया मगर पेट पूजा करने के बाद। वह खुद
ही बात का सिलसिला जारी करते हुए बोली, ‘बाबूजी यदि काम ना करें तो शाम
को खाएं क्या? मेरा बाप तो एक नम्बर का जुआरी और दारुबाज है, रही बात मां
की सो वह तो मुझे जन्म देते ही मर गई और बाप ने दूसरी शादी कर ली और जो
मेरी सौतेली मां है ना वो पूरी डायन है, जो मुझे पूरे दिन खटने के बाद भी
भर पेट खाने को नहीं देती और बापू, वह उसके बहकावे में आकर मुझे बहुत
मारता है। और इसके आगे वह कुछ भी नहीं बोल
पाई।
बचपन पर जुल्मों की इन्तिहा सुन मैं भीतर तक दहल गया, इससे पहले कि मैं
आत्म मंथन के घेरे से बाहर निकलता एक अनुत्तरित प्रश्न छोड़, वह ऐसे ओझल
हो जैसे कहानी का परी पात्र।
सुबह का समय था और चहुं ओर घने कोहरे ने अपनी चादर बिछा रखी थी। सैर
करर्तेकरते सहसा मेरी नजरें कोने में पड़ी, जो ठण्ड के मारे ठिठुरे जा रही
थी। छुआ तो रहस्य खुल गया और मैं चिहुंक पड़ा मानो अलादीन का चिराग हाथ लग
गया हो।
"अरे, तुम ! इतने दिन कहां चली गई थी? और आज इस हालत में?" मैंने न चाहते
हुए भी एक साथ कई प्रश्न कर डाले।
वह जो अभी भी कँप –कँपा रही थी, उसने बड़ी मुश्किल से सुबकते हुए जवाब
दिया, "बाबूजी, हम लुट गए, बर्बाद हो गए, अनाथ हो गए हैं हम।जिस दिन से
पॉलिथीन का उपयोग बन्द हुआ उसी दिन हमारे सिर पर से मां–बाप का साया उठ
गया। कानूनी जुर्म की घोषणा वाली रात हमारे लिये कहर बन कर आई और
बापू ‚ मां को लेकर हमें सोते छोड़कर रातों–रात कहीं चले गए, अब आप ही
बताइए इतने बड़े जहान में मैं उन्हें कहां तलाश करूं? "
मन ही मन सोचा अच्छा ही तो हुआ, जो आततायियों के चंगुल से एक बचपन मुक्त
हो गया। मगर इस भटकती बच्ची के कल के बारे में सोच सिहर उठा। क्या वाकई
में ऐसा भी हो सकता है? अगर ऐसा ही है तो क्यों न मैं ही इसे …। इससे
पहले कि मैं कोई ठोस निर्णय ले पाता ‘रानु’ की आवाज ने मेरी तन्द्रा भंग
कर दी। जो स्कूल छोङकर आने के लिए कह रहा था। दोनों को देख मैं अपने आप
से ही प्रश्न कर बैठा, बचपन – बचपन में कितना भेद है? मगर साथ ही लौट कर
चिन्तन को मूर्त रूप देने का निर्णय कर मैं चल पड़ा बस्ते के बोझ से बोझिल
बच्चे को उसके गंतव्य तक छोड़ने। आकर देखा तो एक बार फिर मैं ठगा जा चुका
था। मेरे अन्त:मन में अंकित समाज की यथार्थ छवि‚ अपने आप को सुसभ्य
कहलाने वाले समाज के सम्मुख अनगिनत सवालात छोङकर एक बार पुन: ओझल हो गई
थी और मेरी योजना यथार्थ का वरण करने से पहले ही गुमनामी के घुप्प अंधेरे
में गुम हो गई।
आज भी जब यदा–कदा वह मासूम छवि मानस पटल पर अंकित होती है, तब अनायास ही
दो बून्द अश्रु आंखों के पोरों को भीगा जाते हैं और मैं खो जाता हूं एक
बार फिर बेबसी के आलम में।
रोहिणी कुमार भादानी
वरिष्ठ नागरिक
इमारतों का दायित्व
नीवों के प्रति – सम्पादकीय
अतीत से (कहानियां)
बूढ़ी काकी
– प्रेमचन्द
खोल दो
– सआदत हसन मन्टो
कहानी
आज़ादी
– ममता कालिया
उल्का
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
पाषाणपिण्ड –
विनीता अग्रवाल
ठिठुरता बचपन
– रोहिणी कुमार भादानी
हंगेरियन कहानी
भिखारी – ज़िगमोन्द मोरित्स – अनुवाद:
इंदु मज़लदान
संस्मरण लेख
थके हुए पंख
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
कविता
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– जया जादवानी
ठूंठ
– सुधा कुलश्रेष्ठ
उम्र
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
पुराने अंकों से
बाँधो न नाव इस
ठाँव‚ बन्धु
!
– उर्मिला शिरीष – कहानी
हिन्दी
समाज पर मर्सिया – फज़ल इमाम मल्लिक –
संस्मरण
सात सौ
मील दूर से एक पाती छोटी बहन को – संजय
कुमार गुप्त – कविता
पिता
– जया जादवानी – कविता
प्रेतकामना –
मनीषा कुलश्रेष्ठ – कहानी
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सूखे पत्तों
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बड़ों की बानगी
– पूर्णिमा बर्मन – दृष्टिकोण
एक
दीपावली पापा के बिना… – अंशु – संस्मरण
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