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आज़ादी
बहुत लाड़ करती थीं दादी मेरा।
कोठरी‚ आंगन पार करती हुई मैं आई और दादी की पीठ पर झूल गई‚ ' दादी‚ मन नहीं लग रहा‚ जायें खेल आयें।'
दादी ने अपनी उंगली से सवा तोले की चमचमाती अंगूठी उतारी और छत की मोटी नाली में‚ जिसमें से बरसातों में परनाला गली में पड़ – पड़ गिरता था‚ फेंक दी। मुझसे बोलीं‚ ' जा ढूंढ कर ला तो जानूं ।'
मैं कूदती – कूदती सीढ़ियां उतर गई । नीचे गली की नाली में पानी के बहाव से अंगूठी आगे भागी जा रही थी। मैं नाली के साथ भागती गई – भागती गई। सात घटिया की नाली‚ अंगूठी पाना हंसी – खेल नहीं था। हांफते – हांफते निचाई तक पहुंची तो अंगूठी जमीन तले के गटर में गायब हो चुकी थी।
जिस तेज़ी से गई थी उसी सुस्ती से लौट कर छत पर पहुंच कर मैं बिसूरी‚ ' दादी…'
दादी अपनी एक टांग पर उठ कर आईं‚ ' खबरदार जो रोई।' फिर पास आकर गोद में उठा कर कहा‚ ' आज तेरे बाबा आयेंगे तो फिर नाप दे दूंगी।'
मैं खुश हो गई। पांच साल की थी न इसलिये यह पता नहीं चला कि पहली बार ही बनवाने में बाबा को कितनी मुश्किल आई थी और साल भर तक घर के हर खर्चे का हिसाब लगाते समय बाबा उस अंगूठी की कीमत बताया करते थे। इसी पर एक दिन दादी ने गुस्से में अंगूठी चूल्हे में डाल दी‚ ' लो ठंडक पड़ी तुम्हारे अन्दर‚ लो यह लो‚ और लो‚' कहती हुई दादी अपनी चूड़ियां‚ कड़े और लच्छे भी आग में झौंकने लगीं थीं कि मां ने पीछे से उन्हें थाम लिया।
मां से इसीलिये चिढ़ती थीं दादी। मां ने बीच – बचाव किया नहीं कि दादी का पारा गरम। फिर दादी पता नहीं क्या – क्या बकने लगतीं‚ उन्हें रांड‚ हरामज़ादी कहने के साथ – साथ बाबा की पतुरिया कह डालतीं। तब बाबा तख्त से उठ कर आते और दादी को एक लात मार कर घर से बाहर चले जाते।
घर एकदम सन्न रह जाता। दादी न रोतीं न चीखतीं‚ बस सतर अपने तख्.त पर बैठ जातीं। उनकी शक्ल कुछ अजीब ढंग से सख्त हो जाती। वे अपने दायें हाथ का पंजा बार – बार फैलातीं – सिकोड़तीं‚ फिर एक टांग पर उठ कर मां की कोठरी के सामने होकर मुनादी करतीं‚ ' आज चूल्हा नहीं जलेगा बहू‚ खबरदार जो चौके में घुसी।'
मां ने भी उन्हें जलाने की कसम खाई हुई थी। उनकी इस घोषणा के साथ – साथ मां छींके पर से आालू उतार कर काटने लगतीं। दादी एक बार फिर गालियों की बौछार करती हुई‚ मुझे मां के पास से छीन कर पूजावाली कोठरी में आ जातीं। मैं उनका धचक धचक चलना देखती और मज़ा लेती। दादी के गुस्से के बारे में मुझे सिर्फ इतना पता था कि अगर वे पूजाघर में आकर धूप जलायें तो समझो गुस्सा उतरने ही वाला है।
फिर मैं धीरे से पूछती‚ ' दादी पान खाओगी?' और बस दादी की घर – भर से सुलह हो जाती।
दादी के पान चौके में रखे पानी के बड़े तमेड़े में पड़े रहते। सुबह सुबह छिद्दू पान दे जाता और मैं कैंची से काट – काट कर लम्बी कतरनें बना देती। दादी का कहना था‚ मुझसे पहले इस घर में कभी किसी ने उन्हें पान लगा कर नहीं खिलाया।
मैं तमेड़े में से पान की एक कतरन लेकर चौके के आले से पानदान लेती और सीधे हाथ की पहली उंगली से उस पर चूना‚ कत्था लगाती‚ सुपारी का चूरा रखती और पीली तम्बाकू की पांच पत्तियां। कभी – कभी पान लेकर जाने के सिलसिले में कतरन में से एकाध पत्ती या सुपारी खिसक जाती। दादी झट पहचान जातीं‚ ' आज हमारे लटूरबाबा पान बनाना भूल गये।'
मैं पूछती‚ ' दादी‚ क्या कम है‚ चूना‚ कत्था?'
' नहीं।'
' सुपारी?'
' नहीं।'
' फिर?'
' पत्ती।'
और मैं पत्ती लेने रसोई में भागती।
कभी दादी नहाने को गुसलखाने में घुस जातीं तो मेरा वक्त न कटता। मैं गुसलखाने की मोरी में झुककर झांकती और उसी में से बातचीत शुरु हो जाती —
' दादी‚ कितनी देर लगाओगी?'
' अभी तो मैं पैर रगड़ रही हूँ।'
बिना ठहरे में कहती —
और अब क्या कर रही हो?
दादी जवाब देतीं‚ फिर मैं सवाल करती‚ फिर वे जवाब देतीं। मेरा नया सवाल हाज़िर होता। जब मोरी में से साबुन का झागदार पानी निकलता तो मैं ताली पीटती‚ अहा हा‚ दादीजी नहा चुकीं‚ अहा हा!'
अगर मां आंगन में होतीं तो मुझे देख देखकर दांत पीसतीं —' आना रात को मेरे पास‚ अच्छी तरह बताऊंगी।'
रात को दादी के पास सोने में मुझे डर लगता था। सोने से पहले वे बाबा के पैर दबाती थीं। कभी – कभी मैं सो जाती और बीच रात में पेशाब के लिये आंख खुलती तो देखती‚ दादी तब तक पैर ही दाब रही हैं।
मैं कहती‚ ' दादी सो जाओ।'
दादी लम्बी सांस लेतीं‚ ' मैं तो अब लकड़ियों में ही सोऊंगी‚ ये मरे पैर मेरा दम ही खींच लेंगे किसी रोज़।'
और बाबा जिन्हें अनिद्रा की पुरानी बीमारी थी‚ चीख पड़ते‚ " ससुरी हमें गाली देती है‚ एक टांग भगवान ने लेली‚ एक हम तोड़ देंगे‚ समझी।'
दादी – बाबा की लड़ाई में मैं बहुत अकेली पड़ जाती। दादी तड़ातड़ जवाब देती रहतीं थीं‚ फिर बाबा उठकर उन्हें दो एक धौल जमा कर मुंह फेर कर लेट जाते।
मैं इसीलिये मां के पास सोती थी।
मां रात में मेरा गाल नोंचते हुए घुड़कतीं‚ ' आई बड़ी दादी की मनैती‚ पढ़ना न लिखना‚ दिन भर चुअरियों की तरह उसके कामों में लगे रहना। उसका क्या है। उसका क्या है उसकी मां कुंजड़न थी। वह तो पनवाड़न लगती है तू भी पनवाड़न बनेगी!'
दिन में अगर किसी बात पर मैं मां से रूठ जाती तो ये सब बातें दादी तक पहुंचा देती। और दादी का संवाद शुरु हो जाता‚ ' हां – हां‚ हम कुंजड़न की बेटी ही पर तुम कोई कलट्टर की जाई नहीं हो। तुम्हारा बाप भी वही परचूनिया रहा‚ तराजू लिये – लिये चल बसा। किरियाकरम में बीस आदमी न जुड़े …।'
मां मेरी तरफ देखती और अंगारा बन जातीं। मैं उस दिन दादी का आंचल न छोड़ती। उस रात फिर मेरी पिटाई होती। बचाव के लिये मैं ज़ोर – ज़ोर से रोना शुरु कर देती। दादी अपने कमरे से पुकारतीं‚ " मुन्नी‚ मुन्नी‚ री बहू मेरे लटूरबाबा को हाथ न लगाना हां।'
बाल मेरे बहुत छोटे छोटे थे। दिन में तीन बार दादी कस कस कर चोटी करतीं और कलाया बांध देतीं पर मेरे बाल फिर आगे पीछे से निकल कर आंखों पर बिखर जाते । नाममात्र को कलाया बंधा रह जाता। इसलिये दादी ने मेरा नाम लटूरबाबा रखा था। मेरे और भी दर्जनों नाम थे। दादी कहतीं‚ ' डॉक्टर मुन्नालाल‚ ज़रा मेरा छुनछुना गरम कर दे बेटा।'
मैं चौके में जाकर वह कटोरा उठाती जो घी और हल्दी से हमेशा पीला रहता था। फिर दादी उसमें एक कलछी घी‚ हल्दी और पिसी हुई सोंठ डाल कर चूल्हे पर चढ़ा देतीं। उसका छुन – छुन छुनछुनाना मुझे बड़ा अच्छा लगता। जब हल्दी नारंगी रंग की हो जाती तो मैं चिल्लाती दादी‚ छुनछुना तैयार है।
दादी संडासी से उतार कर मेरे सहारे से धचक धचक चलती हुई कमरे में आ जातीं। मैं उनके सामने घुटने सिकोड़ कर बैठ जाती। दादी अपनी सूखी पतली लौकी जैसी टांग के पंजे में बंधे रूअड़ के पुलिन्दे पर से पत्टी उतारतीं और रूअड़ हटाकर देखतीं। इस पैर का छोटा सा पंजा था‚ मेरे हाथ बराबर और उसकी छोटी छोटी जुड़ी उंगलियों में नाखून नहीं थे। दादी दोनों हाथों से पैर थाम कर कहतीं ‚ ' अरे राम रे‚ बड़ी टीस होती है चलते चलते।'
मैं पूछती‚ 'दादी कब ठीक होगी तुम्हारी टांग?'
दादी रूई से पंजे पर हल्दी – सोंठ लगातीं‚ ' जब मेरा लटूरबाबा डॉक्टर मुन्नालाल बनेगा तब।'
और मैं निश्चय कर लेती कि छप्पर वाली गली के नुक्कड़ पर बैठने वाले डॉक्टर मुन्नालाल से भी बड़ी डॉक्टर बनूंगी। सबसे पहले दादी की टांग ठीक करुंगी‚ फिर अपने बाल‚ फिर बानू की गुड़िया‚ फिर… मेरी समझ में यह सब काम डॉक्टर के ही करने के थे।
दादी टांग की पीड़ा भूलने के लिये कहतीं‚ ' मुन्नी री कहानी सुनेगी?'
' कौन सी? दादी वह सुनाओ चतुर कौए वाली।'
दादी की कहानी शुरु हो जाती।
सावन में घर के बाहर वाले छप्पर में झूला पड़ जाता। हम सब छोटी बड़ी लड़कियां एक दूसरी को झोंटे दे दे कर झुलातीं और गातीं – शिवशंकर चले कैलाश‚ बुंदियां पड़ने लगीं
गौरी जी ने बोई हरी – हरी मेंहदी‚ तो शिवजी ने बोय दई भंग… बुंदियां पड़ने लगीं
कभी कभी दादी मुझे झुलातीं और अपना प्रिय गाना सुनातीं —
' बाग में पपीहा बोले मैं जानूं कोई आया रे
आया रे मेरा बब्बू बेटा
सौ – सौ चीजें लाया रे‚
बाप को चद्दर‚ मां को धोती
मुन्नी को चूड़ी लाया रे
बहन की तीअर भूल आया‚ सौ – सौ नाम धराया रे
बाग में पपीहा बोले…
घर में जिसको जिस चीज़ की ज़रूरत होती‚ गाने में उसी के अनुसार रद्दोबदल होती रहती। बब्बू बेटा सबके लिये फितूरी‚ दुशाला‚ सूटर‚ चप्पल और न जाने क्या – क्या लाते रहते‚ बस बुआ की चीजें भूलते जाते।
मां सारा दिन काम करतीं और बड़बड़ाती और सोते समय भी। मैं पूछती‚ ' यह तुम सारा दिन क्या बोलती रहती हो मां‚ कुछ सुनाई भी नहीं देता ठीक से।'
मां दांत पीसतीं‚ ' तुझसे मतलब‚ तू सारा दिन उसके चील – कौए उड़ाया कर।'
बाबू आगरा में पढ़ते थे।
जब मैं थोड़ी बड़ी हो गई‚ मैं ने देखा बाबू जब आगरे से लौटते‚ मां रात में देर तक उनसे झगड़ा करतीं‚ ' हमारी मिट्टी क्यों खराब की ब्याह करके? या हमें ले चलो या यहीं अपने हाथ से ख़त्म कर दो। हमसे नहीं होती सारी उमर बुड्ढे – बुड्ढी की टहल – फिकिर। सारा दिन ऐसा लगता है जैसे तख्त पर दो मेंढक बिठा दिये हों।'
बाबू गुस्सा हो जाते। गाली – गलौज उन्हें पसन्द नहीं थी‚ गुस्से के मारे अपनी खटिया खींच कर दूर कोने में ले जाते।
बाबू के आने पर दादी इतनी खुश हो जातीं कि लगता वे ुबलकुल ठीक हो गई हैं‚ न उनका पैर दुखता है‚ न आंखें पनियाती हैं। उस दिन वे अपने हाथ से खाना बनातीं और सामने बैठ कर खिलातीं। मैं सोचती‚ बाबू जल्दी – जल्दी आया करें तो कितना अच्छा हो।
एक बार बाबू आगरे से लौटने पर टीन का एक कंघा लाये। घर आने पर दादी ही उनका बक्स खोलती थीं। कंघा निकाल कर बोलीं‚ ' मेरे लिये लायौ?'
बाबू सर खुजाने लगे‚ ' अम्मा रास्ते में बाल बिगड़ जाते हैं हवा से‚ येई मारे ले आयौ।'
दादी ने चुपचाप कंघा वापस रख दिया।
जब बाबू चले गये‚ तो एक दिन मैं ने देखा‚ मां उसी कंघे से बाल संवार रही हैं‚ मैं ने फौरन जाकर दादी से कहा।
दादी तख्त पर से उठ कर आईं‚ ' खसम से लेकर इतरा रही है।ये छिछोरापन यां न करियो। हम भी कहें छोरा का दिल क्यों रत्ती – रत्ती हुऔ जाय है‚ मां को देने के नाम पै!
दादी सारा दिन कुपित रहीं। मां जहां खड़ी होतीं‚ उनके पीछे घुड़कने लगतीं —
' चिट्ठी लिखी थी बड़के को?'
' हमसे कहती तो कंघा न मिलता?'
' रोज पत्तियां काढ़ा करैगी का?'
मां ने कुछ नहीं कहा। बाल बांध कर विजयी मुस्कान के साथ कंघा आले में रख दिया।
शाम को दादी ने मुझसे कहा‚ ' मुन्नी‚ ज़रा वह कंघा तो उठा ला।'
हम दोनों उस समय छत पर बैठे थे। मैं ने नीचे जाकर आले में से कंघा लाकर दे दिया। दादी ने झट कंघा उस मोटी नाली में डाल दिया जिसमें से बारिशों में परनाला पड़ – पड़ गिरा करता था। मैं ने मचल कर कहा‚ ' दादी ढूंढ कर लाऊं?'
दादी ने आंख दिखाई‚ ' पैर तोड़ देंगे‚ खबरदार!'
घर में दो लोगों से दादी की बिलकुल नहीं पटती थी। हम थे कुल चार। मैं बड़ी फूली फिरती थी‚ दादी की चहेती जो थी। मां से निपटने के बाद बाबा का नम्बर आता था। छत की दीवार से जुड़ी लेकिन घर के बाहर जो कोठरी थी उसीमें दुकान थी। मेरे मन में दुकान को लेकर हमेशा कौतुक बना रहता था। दुनिया भर का सामान बाबा उस छोटी सी दुकान में रखते थे। दादी कभी हल्दी‚ कभी दाल के लिये मुझे दुकान की तरफ रवाना कर देतीं। मैं पहले झिर्री में से झांक कर देखती‚ बिलकुल बाइस्कोप का मज़ा आता। बोरों के पीछे चूहों की धमाचौकड़ी कभी दिख जाती तो दिन दिलचस्प हो जाता। फिर मैं दुकान के सामने वाले दरवाजे. पर जाकर बाबा से चीज़ की फरमायश करती। बाबा खाली बैठे होते तो भी एक बार मना ज़रूर करते‚ ' चल भाग‚ दुकानदारी न खराब किया कर सुबह – सुबह।' मैं फिर भी न जाती। वहीं फ्रॉक समेट कर बैठ जाती। तब पिण्ड छुड़ाने के लिये बाबा पुड़िया बांध कर मेरी तरफ फेंक देते।
दादी को यह सब पसन्द नहीं था। बाबा दुकान से काफी हुज्जत के बाद एक दिन का सामान निकाल कर देते थे। अगले दिन फिर वही खींचातानी। दादी ने कई बार कहा कि तराज़ू से तौल कर सेर पक्की दाल और पंसेरी चावल अलग रख दें पर बाबा इसे फिजूलखर्ची मानते थे। वे कहते‚ ' ज़्यादा दिखेगी तो ज़्यादा उठेगी।' एक बार तो वे काली मिर्च की डिबिया चौके से उठा कर ले गये कि ये आठ रूपये की बिक जायेगी।
हम लोग कभी – कभी विश्रामघाट जाते थे। वहां औंधे पड़े कछुए देखकर मुझे डर लगता और मज़ा भी आता। दादी उन्हें छूÁ – छूÁ कर दूर भगा देतीं और देर तक नहातीं। वहां उनकी कुछेक सहेलियां मिल जातीं। कपड़े बदलते ‚ माला फेरते दुनिया जहान की बाते कर ली जातीं। ऐसी बातचीत के दौरान ही दादी को मनसा ने बताया कि डैम्पियर पार्क में एक बड़ा लायक डॉक्टर आया है‚ वकीलनी की टांग ऐसी ठीक की है कि कल तक बिस्तर पर हाय – हाय चिल्लाने वाली वकीलनी आज दगड़ – दगड़ करती फिर रही है। दादी सुनकर बहुत खुश हुईं‚ 'आज जमना मैया ने हमारी सुन ली‚ हम अभाल ह्य अभी हालहृ जायेंगे वहां।'
जितनी तेज़ वे चल सकती थीं‚ उतनी तेज़ चलती हुई वे घर आईं और बिना सुस्ताये सीधी बाबा की दुकान पर खड़ी हो गईं‚ ' अजी‚ डैम्पियर पार्क में एक बड़े डागडर आये हैं‚ हमें दिखाय लाओ।'
बाबा को बात पसन्द नहीं आई‚ ' का भयो है तोय?'
दादी को गुस्सा आ गया‚ ' तुम हमारी दूसरी टांग भी तोड़ दो‚ न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।'
बाबा बोले‚ ' अच्छे डागडर की फीस भी अच्छी होगी‚ का फायदा? तुम्हें कौन ब्याह रचाना है। मर्ज़ और कर्ज. समय पाकर जाते हैं बब्बू की मां। डागडरन की चीर फाड़ से तो या जनम भी खराब वा जनम भी खराब।'
दादी दुकान से हट आईं। मैं ने दोपहर में कहा‚ ' चलो दादी‚ चुपके से डाक्टर को दिखा आयें।'
दादी कुछ नहीं बोलीं बस मुझे कस कर छाती से लगा लिया। उस दिन के बाद से उन्होंने पैर में छुनछुना लगाना भी बन्द कर दिया।
पता नहीं क्यों दादी को अगर फोड़ा – फुन्सी निकलती तो वह जल्दी ठीक नहीं होती थी। वह धीरे धीरे फैलती जाती फिर उसमें मवाद पड़ जाता। दादी आंगन के नीम की पत्तियां पीस कर उस पर बांधती पर फोड़ा बहुत दिनों के बाद ठीक होता। अब तो उन्होंने यह सब भी बन्द कर दिया था।
मां कभी दादी के पास नहीं बैठतीं। काम में लगी रहतीं और जब काम न करती होतीं तो अपनी कोठरी में आंखों पर हाथ रख करकर पड़ रहतीं। मैं जाकर पूछती‚ ' मां क्या बात है‚ थक गई हो?'
वे कुछ न बोलतीं।
मैं कहती‚ ' कहां दर्द है लाओ दबा दूं।'
मां मेरा हाथ झटक देतीं‚ ' जा भाग उसी के पास।'
एक बार बाबू आगरे से लौटे। उनके बक्से में से कुछ लड्डू निकले‚ सूख गये थे‚ लेकिन स्वादिष्ट। बाबू ने सबको एक – एक दिया‚ ' हमारे कॉलेज में बंटे थे‚ आज़ादी मिल गई उसी खुशी में पन्द्रह अगस्त को बांटे गये।'
दादी चौंक उठीं‚ ' का मिल गयौ है?'
' आज़ादी‚ आज़ादी‚ अब हम गुलाम नहीं रहे‚ हमारा अपना राज हो गया। गांधी बाबा ने सुराज दिला दियौ है।'
' अब का हौगो?'
' हौगो का? इतनी बड़ी बात है‚ तुम समझ ही नहीं रही हो तो का करैं। सबको आज़ादी मिल गई अब।'
मैं बिना समझे ताली बजाने लगी‚ ' अहा जी – अहा जी‚ आज़ादी मिल गई अहा जी।'
दादी अचम्भे से बोलीं‚ ' सबौ को मिल गई?'
' हां – हां ।'
उन्होंने एक लम्बी सांस खींची‚ ' हमें ना मिलौ गांधी बाबा नहीं तो वासे कहती एकठो फितूरी दिलाय दें‚ आज़ादी का कहा करैं‚ न ओढ़बे की चीज न बिछाबै की!'
बाबू खिन्न हो गये‚ ' तुम्हें कुछ भी समझाना बड़ा मुश्किल है अम्मा।'
दादी ने अपना लड्डू थोड़ा – सा चख कर मुझे ही दे दिया। मां ने अपने हिस्से का लड्डू अनखाया रसोई की पड़हरी पर रख दिया जहां नज़र पड़ते ही चील की तरह झपट्टा मार मैं उठाकर खा गई।
बाबू इस बार घर पर पूरे वक्त बस पढ़ते ही रहे। मेरे लिये भी एक किताब लाये थे और सुबह – सुबह पढ़ाते थे। जब मैं जल्द समझ लेती तो मां की ओर देख कर कहते‚ ' मुन्नी की बुद्धि में कोई खोट नहीं । बस निचावली नहीं बैठती‚ यही मुश्किल है।'
बाबा घर में होती चहल – पहल से बेखबर अपनी दुकान में गद्दी पर बैठ कर गल्ला गिनते रहते। एक दिन ब्यालू के बाद बाबू से बोले‚ 'बब्बू तेरी पढ़ाई खत्म भयै वाली है‚ दुकान गद्दी संभारौ अब। मैं बहुत थक गयौ हूँ ।'
बाबू सन्न रह गये।
बाबा बोले‚ ' आखरी साल है न जे?'
' हां‚ बाऊजी।'
'तो बस इस बार तुम हिसाब – किताब समझ लो। दिवाली पर बहीखाता‚ बांट – तराजू तुम्हीं पूजियो आय के।'
' दुकान पर बैठने के लिये तो मैं एम। ए। नहीं कर रहा हूँ बाऊजी‚ मैं ज़ोरों से नौकरी ढूंढ रहा हूँ‚ पास होने तक मिल ही जायेगी।'
बाबा एकदम भड़क गये‚ ' नहीं बैठेंगे‚ का मतलब? का इसीलिये तोय पढ़ायौ है कि तू पढ़ लिख कर कुर्सी तोड़े!ससुरी फीस भरी है जनम भर। मर – मर कर पढ़ायौ है कि लोगों के सामने छाती ठोंक कर कहैं‚ ' देखो मेरा छोरा एै‚ सोलह क्लास पढ़ौ है।'
बाबूजी दबी ज़ुबान में बोले‚ ' लेकिन मैं ने तो बूरा तोलने के लिये पढ़ाई नहीं की।'
'मोपै नायं तेरी फीस के रुपे‚ चाहे जा कान सुन चाहे वा कान। पिछला रूपया भी मुझे लौटाल दे जो अपनी मैया को दूध पिये हौ।'
दादी बीच में बोलीं‚ ' अभी उमर का है‚ फिर नौकरी करेगा तबौ रुपये घर में आयेंगे।'
' चुप रह‚ तोय का समझ है। कल को अलगौझा हुआ तो पैसा अपने बटुए में रखैगो की नहीं?'
इतनी दूर की कौड़ी दादी को नहीं सूझी थी। चाहती तो वे भी थीं कि बाबू उनकी आंखों के सामने रहें‚ लेकिन इस वक्त वे चाहती थीं कि बाबू के आने पर घर में सब राजी – खुशी रहे‚ लड़ाई – झगड़ा न हो। इसी वजह से वे मां को भी बार – बार कहतीं थीं‚ ' हंसी – खुशी से काम किया कर‚ सूजो हुओ म्हौंड़ो बब्बूएै ज़रा पसन्द नहीं।'
मां तमक कर कहतीं‚ ' हमें तो बंसीवाले ने ऐसा ही बना कर भेजा है‚ ऐसे ही रहेंगे। शक्ल उधार कहां से लायें?'
बाबू भुनभुनाते घर में घूमते रहे‚ ' अजीब किस्सा है ये‚ पढ़ – लिख कर भी बांट तराजू से सिर फोड़ो। पढ़ने का क्या फायदा अगर अपना रास्ता चुनने की आज़ादी न हो!'
दादी ने सुन कर उसांस भरी‚ ' तोय तो फिर भी कछु है‚ मोय देख!ये इतनौ बड़ौ फोड़ो है पीठ पे पर तेरे बाबू जर्राह के नहीं ले जाते। रे बब्बू‚ तेरी नौकरी लगे तो सबसे पहले मोय डागदर के ले चलियो।'
बाबू बोले‚ ' तुम मेरे पास ही रहा करना अम्मा।'
पीठ के फोड़े में चीरा लगाना था। चीरा लगाने के जर्राह सात रुपये मांग रहा था। जब – जब फोड़े का मवाद दर्द के चपक्के मारता‚ दादी कराहती हुई जर्राह से जाकर हुज्जत कर आतीं। जर्राह कभी टस से मस न हुआ। दादी दुखी होकर कहतीं‚ ' अच्छी आज़ादी आई मरे चीर फाड़ के भी रुपये लगने लगे। पहले यही जर्राह एक सेर गुड़ लेकर चीरा लगाबे था।'
बाबा ने समझाया‚ ' अरी मैं तो कहूँ इसे बिलकुल न छेड़। पुल्टिस बांधे जा‚ ससुर आपई फूटैगो।'
फोडा. नहीं फूटा। धीरे – धीरे सारे शरीर में मवाद फैल गया। तख्त पर लेटे लेटे कराहतीं‚ किसी से कुछ न मांगती न पूछतीं।
गली की पाठशाला में मेरा नाम लिखवा दिया गया था। नई सहेलियों‚ नई किताबों में मैं मशगूल हो गई‚ फिर भी सुबह स्कूल जाने से पहले और स्कूल से लौटने पर सबसे पहले मैं दादी के पास ही दौड़ी आती‚' दादी‚ मैं स्कूल जा रही हूँ'‚ 'दादी‚ मैं आ गई।' दादी मेरे सिर पर हाथ फेर कर मुझे चूम लेतीं। दो‚ तीन और चार का पहाड़ा दादी के पास बैठकर ही याद किया था मैं ने। याद कर मैं उन्हें सुनाती‚ वे आंखें बन्द करके सुनती रहतींं।
एक दिन स्कूल में सफेद कपड़े पहन कर आने के लिये कहा गया। सुबह – सुबह पन्द्रह अगस्त का जलसा था। मैं मुंह अंधेरे नहा कर तैयार हो गई। स्कूल जाने से पहले दादी की कोठरी में गई‚ ' दादी‚ आज आज़ादी का दिन है‚ हम स्कूल जा रहे हैं‚ तिरंगा झंडा फहराया जायेगा।'
दादी बोलीं‚ ' री मुन्नी‚ थोड़ी आजादी मेरे लिये भी ले आना पुड़िया में बांध कै।'
मैं हंस पड़ी।
जन गण मन गाने के बाद बहनजी ने सबको लाइन में खड़ा करके बताशे बांटे। दोना भर बताशे थे लेकिन हम लड़कियों को लग रहा था‚ जैसे झउआ – भर हों। कई लड़कियों ने तो उसी समय अपना हिस्सा चबा डाला। मैं ने दो बताशे मुंह में डाले और चूसती रही। घर आते हुर मैं ने सोचा आधे दादी के लिये रख दूंगी और दादी को आज जन गण मन गा कर सुनाऊंगी।
कोठरी में जाकर मैं ने पीठ के पीछे हाथ ले जाकर कहा‚ ' देखो दादी‚ मैं सच्ची – मुच्ची आज़ादी लाई हूँ‚ पुड़िया में बांधकर।'
यह क्या!दादी न हंसी न बोलीं‚ न मेरी तरफ करवट ली।
मैं झपटकर दादी के पास पहुंच उन्हें हिलाने लगी।
दादी आसानी से नहीं हिलीं। उन्हें वाकई आज़ादी मिल चुकी थी।

- ममता कालिया
 


वरिष्ठ नागरिक
इमारतों का दायित्व नीवों के प्रति – सम्पादकीय

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